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-व्यंग

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सखि, दिल बहुत धड़क रहा है । अब तुम यह मत कह देना कि दिल तो होता ही धड़कने के लिए है । हां, यह बात मैं भी जानता हूं । मगर दिल इसलिए धड़क रहा है कि देश में क्या क्या नौटंकियां चल रही हैं ? आखिर हो

मानव तू क्या एक पुतला है  ? जबकि ईश्वर ने प्राण दिए? मनोभाव बुद्धि देकर ! चैतन्यता का आभास दिया!! तुझे करना क्या है?? इस धरती पर क्यों आया है?? इस विवेक का ज्ञान दिया !! फिर भी मानव पुतला बनकर ?

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दहेज लेना और देना, दोनों ही पाप हैं।हमें कुछ नहीं चाहिए,क्योंकि हम दहेज के खिलाफ़ हैं। गर्मियों में आपकी बेटी, कैसे पिएगी गरम पानी।कूलर और पंखा के बिना,कैसे रहेगी बहु रानी।एक फ्रिज और एसी की,उसके लिए

सखि,  कैसा जमाना आ गया है । एक तरफ तो लोग आधुनिक बन रहे हैं । बड़े बड़े रईस और खानदानी घरों की बेटियां "फटी पुरानी" सी चीथड़े वाली जींस पहन कर पार्टियों में जा रही हैं या फिर  उनके खरबपति बा

आज सुबह मैं अखबार पढ रहा था कि मोबाइल ने घनघना कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी । हमारी सोसायटी के अध्यक्ष जी थे । मैंने मन ही मन सोचा कि इतनी सुबह क्या बात हो सकती है ? मगर कोई क्लू हाथ नहीं लगा । 

कवियों के महासागर में खो गई है कविताएं।इंतजार कर रही अपने पाठकों का कविताएं।पद से अपंग हो गई कविताओं की भीड़ में।टेढापन आ गया है कविताओं की रीढ़ में।कुछ कमजोर हो लोगों के लिए समस्या करती।कुछ प्रोत्साह

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हाय ! कोरोना, हाय ! कोरोना,फिर से अब ना आना तू।मुश्किल से जान छूटी तुझसे,अब ना और डराना तू ।खूब तबाही मचा दी तूने,फिर से ना उकसाना तू ।बदल बदल कर आया भेष,अब और रूप ना दिखाना तू। कितनों को निगल लि

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कुछ रट लिए,कुछ याद किए,और कुछ घौंट कर पी लिए।हो गए कमर कस के,तैयार हम परीक्षा देने के लिए.....कुछ पेन रखे,कुछ पेंसिल रखे,और कुछ स्केल, रबड़ रखे।सजा के अपनी एग्जाम किट,तैयार हम परीक्षा देने के लिए.....

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टीवी सीरियल की गृहणियाँ,इतनी सजी धजी कैसे रहतीं हैं। करतीं पूरा काम है घर का,फिर भी हमेशा फ्रैश दिखतीं है। सेट रहते उनके बाल और कपड़े,जब सुबह सबेरे जगतीं हैं।बड़े से बड़े टास्क वो,चुटकिय

आज स्टॉफ रूम में बड़ी चहल पहल थी । सब शिक्षकों के मुख पर जिज्ञासा के भाव थे कि आखिर आज शिक्षक संघ के अध्यक्ष जी ने अर्जेंट मीटिंग क्यों बुलाई है ? क्या प्रधानाचार्य ने किसी शिक्षक से कोई पंगा ले लिया

सखि, जमाना कितना बदल गया है । आदमी चांद से भी आगे पहुंच  गया है।  मगर लोगों की सोच वहीं की वहीं पड़ी हुई है । अब अंधविश्वास को ही देख लो । आदमी आज किसी पर भी विश्वास नहीं करता है । यहां

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महंगाई के बढ़ते ग्राफ को देखकर,सिर चकराने लगा है।अब तो इस महंगाई में,जीना रास आने लगा है।गैस सिलेंडर के दाम,जब से बढ़ने लगा है।चूल्हे की रोटी खाने का,मन करने लगा है।पेट्रोल, डीजल महंगा,जब से होने लगा

कुछ लोग दारू पीकर,अपनों को गाली देते हैं।मैं नशे में था,अक्सर ऐसा कहते हैं।नशे की आड़ में,मन की भड़ास निकालते हैं।करते हैं मनमानी,दारू को बदनाम करते हैं।पीने की पड़ गई है लत,पीना मजबूरी बताते हैं।गम छ

वाह वाह रे समाज      तन ढँकने को कपड़े न थे,        फिर भी लोग तन ढँकने का           प्रयास करते थे ...!        आज क

घर-घर शौचालय,हर घर शौचालय,बन गए हैं गाँव में.....होता इनका,इस्तेमाल कैसे कैसे,जाकर देखो गाँव में.....कहीं कंडे भरे हैं,कहीं लकड़ी भरीं हैं,ईंधन को रखते गाँव में.....कोई रखे सामान,कोई खोले दुकान,करते ज

सर्दियों के दिन,ठिठुरन से भरे।कंपकपाती सर्दी में,आखिर कोई काम कैसे करे.....गर्मियों के दिन,तपिश से भरे। झुलसाती गर्मी में,आखिर कोई काम कैसे करे.....बारिश के दिन,कीचड़ से भरे। टिपटिपाती बारिश

"मुचकुंद गहरी नींद सो गया"...,एैसा कह के बल्लाव चुप हो गया। चिंता ऊसके सर पे मछरौं की तरहा मंडारा रही थी। अरे दादाजी ये तो कहानी का अंत हैं शुरवात नहीं! उसके पोते केशव ने कहा। “अरे अंत भी कह

"मुचकुंद गहरी नींद सो गया"...,एैसा कह के बल्लाव चुप हो गया। चिंता ऊसके सर पे मछरौं की तरहा मंडारा रही थी। अरे दादाजी ये तो कहानी का अंत हैं शुरवात नहीं! उसके पोते केशव ने कहा। “अरे अंत भी कह

वेलु नामका एक छोटासा तालुका, आसपास जंगल का ईलाका वहाँ सबकुछ था! था! हा था! एक सिनेमा टाकी. एक नगर परिषद, एक इतिहास कालीन छोटा कॉलेज कॉलेज में बहोत से पेड़, पौधें.अनेक वृक्ष वो सब कॉलेज

बड़ा पहाड़ उतर कर वो शहर तक आया. रेगिस्तानी शहर बहोत फैला हुवा नहीं था लेकिन ठिक ठाक था, वहाँ का राजा एक शिस्त प्रिय सा इंसान था इसलिए उसने राजा बनते ही शहर का सारा कचरा साफ किया, और एक रुका हुवा फैसल

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