आखिर क्यों?
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
उस दिन ठसा ठस भरी टैक्सी में मस्तिष्क को भिन्ना देने वाली पसीने की बदबू के बीच रह रहकर मन में एक सुखद सुगंधित परफ्यूम तथा डियोड्रेंट की खूशबू जब मेरे नथुने में घुसती थी, लगता था कि शीतल मन्द समीर शरीर के पोर- पोर में घुसकर कह रहा हो कि खोल दो सारी खिड़कियों को ताकि खिल उठे तेरा सारा रोम-रोम।उमस भरी गर्मी में बदबूदार वातावरण के बीच यह जरा सी छन-छन कर आने वाली खुशबू तथा टैक्सी की हिचकोलों के साथ हिचकोले खाता तेरा यौवन,पहली बार जब मैंने देखा मेरी नज़र टॅगी की टॅगी रह गयी। आसमानी नीली साड़ी में की गयी कढ़ाई के बीच रह रहकर चमकने वाले तार आकाश में तारों की मानिंद टिमटिमा रहे थे।मेरी आसक्ति बढ़ती जा रही थी। धीरे-धीरे पैर से होती हुई मेरी निगाहें जंघों,कमर,पेट और वक्ष पर जाकर टिक गयी।तेरी दमकती तांम्बई काया पूनम को भी शर्मिंदा कर रही थी,और तेरे वक्ष पर स्थित कपोत कैद से बाहर आने को बेताब फड़फड़ा रहे थे।तेरी सांसों की उच्छवासी के साथ हिलते हुए तेरे वक्ष परिधान के अधोवस्त्र से जुगाली करते कबूतरों के मानिंद चौकन्ने लग रहे थे।मैं अपने अन्दर की अभिलाषा, तुम्हें सम्पूर्ण रुप से देखने के मोह का स्वर्ण नहीं कर पा रहा था।मेरी नजरें तेरी कंचुकी से होते हुई गले में लटक रही सुनहरी मोतियों के हार पर जा टिकी जिसका लोकेट गले से लटक कर वक्ष पर स्थित दो पर्वत श्रृंखलाओं के बीच की घाॅटी में लटक रही थी। सुराहीदार गर्दन के उपर तेरा अण्डाकार चेहरा हालांकि पूरा भरा पूरा तो नहीं था लेकिन किसी को भी अपनी तरफ आकर्षित करने को बहुत काफी था।अति हल्के मेकअप के बाद भी तेरी गौरवर्ण की लम्बी काया वाली देहयष्टि पहली बार में मुझे आकृष्ट कर ली थी। अंततः टैक्सी स्टैण्ड पर आकर रुकी।हम सभी उतरकर अपने अपने गंतव्य के लिए चल दिये।पता नहीं क्यों मेरी नज़रें सड़क पार करने के बाद तुम्हें ढुढ़ने लगीं।तुम भी रिक्शा पर बैठकर मेरे ही गंतव्य की दिशा में जाने लगी। मेरी नज़रें तेरा पीछा करती हुई तेरे गंतव्य को जान गयीं।इसके बाद तो मेरा मन हमेशा इस आशा में तुमको ढुंढता रहा। हर दिन तथा येन केन प्रकारेण बनाता रहा जगह अपनी बगल में,तेरा सानिध्य पाने को,तेरे स्पर्श मात्र के लिए और ऐसा होता भी रहा।कई बार बार-बार जब तेरा नितम्ब,ऊरू,बांह ,वक्ष आदि को मैं स्पर्श करता रहा,तेरे चाहे, अनचाहे,जाने, अनजाने,ईच्छा अनिच्छा के बाद भी।
तुम भी तो बैठती रही अक्सर मुझसे सटकर।ऐसा क्यों?मुझे पता नहीं। अनायास ही हो सकता है लेकिन मेरे लिए तो यह एक स्वर्गिक सुखद आभास था। धीरे-धीरे समय बीतता गया।मैं और तुम हम सा होने लगे। तुम्हें जब तेरे साथ आने वाला युवक,शायद तेरा कोई रिश्तेदार हो सकता है,जब छोड़ने आता था तथा टैक्सी में तेरे बैठते ही उसे जाने के लिए तेरा इशारा मुझे बहुत तसल्ली देता था।मैं और तुम के हम में तब्दील होने के पहले की बेताबी रोज अलिखित महाकाव्य की रुपरेखा बनाते-बनाते कब सोते थे, कब जागते थे पता ही नहीं चलता था। तुम्हें याद होगा वह पहला वाक्य -
"किस विभाग में हैं आप?"
मैं आश्चर्य मिश्रित किंतु उत्सुक मुद्रा में जवाब दिया थआ-
"एक कंपनी में मैनेजर टेक्निकल के पद पर हूं।"
"लेकिन विभाग कौन सा है?"-तुम पुनः पूछ पड़ी थी।
"प्राइवेट कंपनी है।"-मैं जवाब दिया था।
"आप क्या करती हैं?"-मैं प्रतिउत्तर में पूछा था।
"मैं तो एक नर्सरी विद्यालय में टीचर हूं।"-तुम जवाब दी थी।
"अच्छा! कस्तूरबा में क्या?"-मैं पूछ पड़ा था।
"हां! लेकिन आपको कैसे मालूम?-तुम पूछ पड़ी थी।
"मैं एक दिन आपको उसी स्कूल में जाते हुए देखा था।"-मैं जवाब दिया था।
"इसका मतलब आप जासूसी करते हैं?"-तुम मजाकिया लहजे में बोली थी।
"नहीं.. नहीं...मैं कोई जासूस नहीं हूं।"-मैं झेंपते हुए बोला था।
इसके बाद टैक्सी में सवारियां आनी शुरू हो गयीं और हम दोनों में संवाद बंद हो गया था।
धीरे-धीरे टैक्सी सेआना-जाना,पास-पास
बैठना, इंतजार करना, टैक्सी बिगड़ने अथवा रास्ता जाम होने पर साथ साथ पैदल ही चौराहे तक आना,हमें एक दुसरे के करीब ले आता गया और पता नहीं कब हम दोनों मैं और तुम से हम हो गये पता ही नहीं चला।अब तो मेरा और तुम्हारा एक दुसरे से मिलना बहुत जरूरी होता गया।एक दुसरे के लिए हमारे दिल में बेचैनी और बेसब्री बढ़ती गयी।अब हमें काली घटाएं, पानी की फुहारें, बसंती हवाएं,पूनम की रात, चांदनी छटाएं,शबनम की बूंदें आदि बहुत आकर्षित करने लगीं।
तुम्हें याद होगा उस दिन जब उप प्रधानमंत्री आये हुए थे। सुरक्षा व्यवस्था में रास्ते बंद कर दिये गये थे पूरे तीन घंटे तक,और जब रास्ता खुला तो जाम घंटे भर तक लगा रहा।दुसरे, टैक्सी वाले भी नदारद थे।रात काफी हो गयी थी।केवल हमीं दो लोग अपनी रुट पर चलने वाले बचे थे।हम दोनों अकेले लगभग दो किलोमीटर की दूरी रात की नीरवता में तय किये थे और इस दौरान हम दोनों एक दूसरे के इतने अधिक नजदीक आते कि.....।
जब तुम शिमला जाने से पहले मेरे पास फोन करके मुझे सूचित की, लेकिन मैं नहीं मिला और तुम चली गयी तब जानती हो मेरे पर क्या गुजरी थी?इसका मैं वर्णन नहीं कर सकता।मैं अनेक शंकाओं, आशंकाओं तथा चिंताओं में डूबता उतराता रहा।कभी तुम्हें कोसता तो कभी परिस्थितियों को। हालांकि मैं जानता था कि तुम जहां हो बेहतर हो,जो कर रही हो उचित कर रही हो,जो सोच रही हो ठीक सोच रही हो, फिर भी पता नहीं क्यों एक अनजान सा भय,वह भी मुझसे तेरे बिछड़ जाने का भय या यूं समझो कि तेरा मुझसे खो जाने का भय मुझे सताता रहा।इस भय से भयाक्रांत चेहरा देखकर लोगों ने मुझपर तरस खाया,मुझपर हंसा,भला बुरा कहा, मुझे ग़लत समझा , फिर भी मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ।मुझे मर्मांतक पीड़ा तब हुई जब तुम शिमला प्रवास के दौरान मुझसे संपर्क नहीं की।मेरी पीड़ा कविताओं की पंक्तियों में संकलित होती गयीं रोज बा रोज,एक के बाद एक-
"ख्वाब सभी,
बेदर्द!
हो गये,
आंखों के।
जब से,
तुम!
परदेशी हो गयी
घर से।
घूमने लगे,
आसपास,
लोगों के-
कहकहे।
मैं!
करता रहा,
इंतजार!
तेरी-
इकरार!
इन्कार!!
तथा-
संवाद का!!!
सहसा-
अंतर्मन ने,
टोका!
जैसा-
सोच रही हो,
वैसा-
कत्तई नहीं है,
यहां पर।
क्रिटिकल,
और-
जजमेंटल,
लोगों के जवाब,
निहितार्थ करेंगे,
इस्तेमाल,
तेरे ही-
प्रोत्साहन पर।
अचानक,
तेरा-
मेरे जीवन में,
दस्तक देना,
एक!
स्वप्न ही था।
एक-
अभिलाषा!
बस इतनी है,
नहीं अधिक तो,
इसी तरह ही,
साथ साथ,
तुम!
चलती रहना।
मैं-
करता रहा,
इंतजार!
तेरी आहट का,
तुम-
पड़ी रही,
बेखबर,
अनजानों की तरह।
यह-
आसक्ति!
तुम्हें छीन सकती है,
मुझसे,
फिर भी,
पता नहीं क्यों?
अनुरक्त हूं,
विरक्ति तक।
जब मुझे मालूम हुआ कि तुम आ रही हो,तब लगा जैसे मेरी कविताएं साकार रुप लेने जा रही हैं।मेरा रोम रोम प्रफुल्लित हो उठा था।मेरे कान फोन की घंटियों से जा सटे थे। आकाश में अरुण सारथी के साथ प्रभात के प्रवेश के साथ ही विभावरी जा चुकी थी।फोन की घंटियां मेरी नींद तोड़ दीं। रिसीवर उठाते ही तेरी आवाज़ तथा खिलखिलाती हंसी लगी जैसे बनारस की सुबह । मंदिरों की घंटियां। सचमुच तुम मेरी मन मंदिर ही तो हो।तेरे आने की सूचना के साथ ही मेरे सारे गिले शिकवे दूर हो गये थे।तेरी खिलखिलाती हंसी मेरे मन की कड़ुवाहट सोख ली थी।मैं सोचा था अब मिलकर सारे गिले शिकवे दूर कर लेंगे। इसीलिए उस दिन बड़े उत्साह के साथ मेरे पांव तेरी तरफ बढ़ रहे थे।
परन्तु मुझे घोर आश्चर्य हुआ था।यह पहला अवसर था जब मेरे आने की सूचना पाने के बाद भी तुम काफी बिलम्ब से मेरे पास आयी थीं वह भी कुछ उखड़ी उखड़ी।मैं स्तब्ध रह गया था।मेरा सारा उत्साह ठंड पड़ गया था।मुझे याद है वह दिन भी जब तुम मेरे आने की झूठी खबर को भी सच मानकर अपनी सहेलियों तक से मेरे आने की खबर बता देती थी यथा मेरा इंतजार करती रहती थी, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ।मेरे संदेश पर भी तुम तत्काल नहीं आयी थीं। मुझे काफी ग्लानि हुई थी।खैर इसे भी मैं कैजुअल बातें मानकर टाल दिया था लेकिन जब तुम मेरे लाख कहने पर भी मेरे पास बैठने तक से कतराती रही तब मेरे धैर्य का बांध टुट गया।मेरी आंखों से नींद उड़ गयी। जबकि तुम निश्चिंत खर्राटे लेती रही।मैं अपने संबंधों के गणित का जोड़-घटाना करता रहा।जिसमें शेष शून्य आता गया।
मेरी बेचैनी उस वक्त और बढ़ गयी जब मैं तेरी डायरी में किसी और के नाम के लिफाफों के पुलिंदे को पाया।अब मेरी आशंकाएं बलवती लगने लगीं।तो क्या?....
अनेक प्रश्न मेरे सिर की धमनियों को मोटा करने लगे।नींदों ने आंदोलन कर दिया।पलकें हठ कर बैठीं।धैर्य का बांध टुट गया।पीड़ा के उफान में प्रलय की धार बह निकली आंखों से।तुम इन सबसे अनभिज्ञ चाहे अनचाहे निभाती रही निभाना।
"अब क्या फायदा?चलो यहां से।"-यह सोचकर तुमसे कहा थआ-
"मैं अभी चला जाऊंगा,घंटे दो घंटे में।"-
तुम इस बार रुकने को नहीं कही थी जैसा कि हर बार कहती थी। बल्कि इस बार तो तुम मुझे छोड़ने के लिए भी नहीं आयी थीं।मेरे बताने के बाद भी तुम कहीं चली गयी थी। यह भी पहली बार हुआ था। इसके पहले कभी नहीं हुआ था।मैं मन ही मन तेरा दरस पाने की ईच्छा लिये होता गया दूर कदम दर कदम। आखिर क्यों? प्रीत की डोर थामे मैं आज भी यही सोचता हूं कि -
"क्या कसूर था मेरा? क्यों छोड़ दी मुझे अकेला?
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
अशोक नगर बशारतपुर
गोरखपुर।
(चित्र:साभार)