बैरियर
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
आज फिर देर हो गयी।मैं जल्दी-जल्दी तैयार होकर आफिस के लिए निकला।एक तो शहर में आफिस समय में सभी सड़कों पर अक्सर जाम लग जाता है।मैं अभी घर से चलकर जैसे ही शहर में दाखिल होने के लिए पहुंचा,देखा कि शहर सीमा के पहले ही बैरियर पर दुपहिया वाहनों की सघन चेकिंग चल रही है।इधर उधर दुपहिया वाहन लिये लोगों में अफरातफरी मची है।कोई पुलिस वाले से गिड़गिड़ा रहा है, कोई अपना लाइसेंस तथा गाड़ी का कागज लिये दिखाने को बेताब इधर उधर जल्दीबाजी में दौड़ रहा है।कोई किसी ऊंची पहुंच के,परिचय का दुहाई दे रहा तो कोई और बहाना बनाकर निकलने की जुगत में लगा है।मुझे भी झल्लाहट हो रही है।देरी में देर।दुसरी तरफ पुलिसिया हनक के आगे सभी बौने हैं।हां इतना जरूर है कि दुपहिया वाहनों पर कुछ राजनीतिक दलों का झंडा लगायें,कुछ अन्य पदों का बोर्ड लगाये लोग आ जा रहे थे,बे रोक टोक।मैं इसे देखकर भनभनाया।कुछ और लोग भी मेरी हां में हां मिलाये।इतने में एक मोटरसाइकिल पर दो हट्ठे कट्ठे लोग शाल ओढ़े हाथ में झोला लिये वाहनों के बीच रास्ता बनाते तेजियाये से। बैरियर के पास पहुंचे और बिना रुके बैरियर पार करके चले गये।तब तक मेरी बारी आ चुकी थी।मैं पुलिस वाले को अपनी गाड़ी का कागज तथा लाइसेंस दिखाते हुए कहा-
"भाई साहब!हम लोग सीधे सादे लोग हैं। सरकारी कर्मचारी हैं। कोशिश यही रहती है कि कोई ग़लती न हो।फिर भी हमीं लोग रोके भी जाते हैं जबकि अभी- अभी जो लोग गये हैं उन्हें आप लोगों ने रोका तक नहीं,कागज पत्र देखने की बात ही दूर रही।"
"आप सरकारी कर्मचारी हैं न,तब तो आप भी सरकारी आदेश का पालन करते होंगे।"-पुलिस वाला मुझसे कहा।
"अरे!वह तो करना ही पड़ता है।"-मैं कहा।
"मैं भी यही कर रहा हूं।"-पुलिस वाला कुछ दोस्ताना मूड में कहा।
उसने मुझसे जैसे कोई राज बताने जा रहा हो उसी मुद्रा मेंकहा-
"देखिये!जानते हैं?वह मोटरसाइकिल पर सवार आतंकवादी थे।"
"तब आप जाने क्यों दिये?-मैं पूछा।
"अरे!जब लोग आने दे रहे हैं,तब मैं जाने क्यों न दूं।मैं रोकता तब मारा जाता।और भी लोग मारे जाते।-पुलिस वाला बोले जा रहा था।
"जानते हैं भाई साहब!हम लोगों के हाथ बंधे हैं।हम केवल जांच कर सकते हैं वह भी आप जैसे लोगों का।अगर उन लोगों को रोकते तब मारे जाते।मेरा पोस्टमार्टम होता।दो तीन दिन तक लाश सड़ती।उसके बाद बक्से में लादकर जिले का कोई प्रशासनिक अधिकारी मेरे घर जाकर मेरे घर वालों को सांत्वना देता। अखबार वाले शहीद बताते।इसके बाद मेरी बीवी सरकारी कार्यालयों में चक्कर काटती। उससे तरह तरह के प्रमाण पत्र मांगे जाते। पहचान करानी पड़ती।जो अधिकारी मेरी पत्नी को सांत्वना देने जाता वही पहचानने से इन्कार करता।मेरा पीएफ, ग्रेच्युटी नहीं मिल पाता।बच्चे भूखों मरने को मजबूर हो जाते।तब भला ऐसा कार्य करने से क्या फायदा?अरे! नहीं रोका उन आतंकवादियों को को तो क्या हुआ?वह तो वहीं करेगें जो करना होगा।अगर पकड़कर बंद भी कर देता तब भी वह छूट जाते। क्योंकि अब तक कोई आतंकवादी बंद रह सका है?"
मुझे पुलिस वाले की बात सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ। आखिर वह जो देख रहा था अपनी समझ से वही कर रहा था।मैं जल्दीबाजी में स्कुटर लेकर चल पड़ा।
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी