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जलेबी

22 फरवरी 2024

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जलेबी 
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                    © ओंकार नाथ त्रिपाठी
  कारखाने के गेट के अन्दर घुसते ही मन खिन्न हो गया।स्टैण्ड पर रखा सबमर्सिबल
मोटर का स्टेटर किसी तोप की मानिंद गेट की तरफ आज भी उन्मुख पड़ा फोरमैन की लापरवाही तथा रिवाइण्डर के गैरजिम्मेदाराना पर मुझे चिढ़ा रहा था।मेरे गुस्से में उबाल आ गया।मैं फोरमैन पर बरसते हुए रिवाइण्डर को कोसने लगा। उसके इस रवैये के कारण कारखाने की दुर्गति हो रही है।मैं अपने चैंबर में बैठकर जलापूर्ति को लेकर कर पब्लिक का आक्रोश, पार्षद के कोप भाजन, अधिकारियों के उलाहनों तथा कार्य प्रगति में रुकावट के प्रति चिंतित हो उठा।तभी अचानक घड़ी की सूई के  तरफ नज़र पड़ी।10बजकर25मिनट हो गये थे।आज मेरी संस्था द्वारा सरकार पर किये गये
 मानहानि के मुकदमें की सुनवाई है।मैं चैम्बर से बाहर निकला और फोरमैन को आवश्यक निर्देश देकर कोर्ट के लिए चल दिया।अभी तक मोटर रिवाइण्ड न होने के कारण उत्पन्न होने वाली दिक्कतों के बारे में हलचल दिमाग में चलती रही कि अचानक एक बच्चे के रोने की आवाज ने मेरा ध्यान उसकी तरफ आकृष्ट किया।मैं देखा कि सड़क के किनारे वाली दुकान पर एक छोटा बच्चा उम्र यही कोउ5-6वर्ष का होगा अपनी मां का साड़ी पकड़े जलेबी के लिए रो रहा है। दुकान पर जलेबी समाप्त हो गयी है लेकिन बच्चा है कि बिना लिये खिसकने का नाम नहीं ले रहा।औरत उससे पुचकारते हुए कहती है-
  "बेटा! जलेबी आज खत्म हो गयी है। दुसरी मिठाई ले लो।कल अंकल जलेबी बनायेंगे तब ले देंगे।"
  "नहीं!मुझे जलेबी चाहिए।"-बच्चा ठिठकते हुए कहा।
 औरत के लाख समझाने पर भी बच्चा जलेबी के लिए अड़ा था।
  सहसा मुझे कमली याद आ गयी।मेरे सामने उसकी पूरी जीवन गाथा घूम गयी।
    कोदई के मरने के बाद कमली अपने तीन बच्चों को लेकर न सिर्फ अकेली रह गयी बल्कि उसके सामने रहने और खाने के लाले भी पड़ गये। अब काली कलूटी कमली अपने जीवन के सैंतीसवें अड़तीसवें वर्ष में ही दरिद्रता असुरक्षा तथा तीन बच्चों के पालने के बोझ के कारण ठंठरी में तब्दील हो गयी।दिन रात हाड़ गला देने वाली मेहनत करने के बाद भी दो जून की रोटी मिल जाता हो ऐसा कभी नहीं हुआ। फिर भी वह किसी तरह से अपना पेट काटकाटकर बच्चों को जिंदा किये थी।उसकी बड़ी बेटी सुगंधी धीरे-धीरे 8वर्ष की हो गयी, दुसरी जुगनी6वर्ष की तथा तीसरा बेटा मोहन2वर्ष का।मोहन पेट में ही था कि अचानक कोदई किसी बिमारी में चल बसा था।
   मुझे याद है एक दिन कमली रात को सोते समय अपने बच्चों को भुलावा दे रही थी कि कल मैं जरूर जलेबी खरीदुंगी।मेरी सुगनी,जुगनी और मोहन खायेंगे।ऐसा भुलावा कमली अक्सर अपने बच्चों को रात में सोते समय देती थी और सुबह से ही बच्चे चाहत लिए शाम तक इंतजार करते रहते थे और शाम को पुनः मां का मीठा भुलावा लेकर एक आशा लिये सो जाते थे।
    काम की व्यस्तता के कारण मेरा भी गांव आना जाना धीरे-धीरे कम हो गया। धीरे-धीरे दो वर्ष हो गये।इधर जब भी गांव जाना हुआ तब जल्दी बाजी में रहा।इधर 2-3बार से गांव जाने पर कमली नहीं मिली।मैं सोचा कि होगी कहीं लेकिन एक दिन कमली पर बात होते हुए किशोर ने बताया कि वह तो डेढ़ दो साल से पता नहीं कहां चली गयी अपने बच्चों के साथ।यह सुनकर पता नहीं क्यों मेरे अंतड़ियों में बल पड़ गया।मेरी आंखों के सामने कमली तथा उसके बच्चों का चित्र यदा कदा नाच उठता था। धीरे-धीरे समय के साथ-साथ कमली और उसका कुनबा दिमाग से ओझल हो गया।
       अभी हाल में अखबार में दो लड़की और एक लड़के का फोटो देख कर मेरी धड़कन बढ़ गयी।मेरा मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। फोटो मैं गौर से देखने लगा।यही कोई 10या8वर्ष कीदो लड़कियां सड़क पर बैठी थीं।उसके गोंद में एक लड़का था।उसका चेहरा स्पष्ट नहीं हो रहा था।मैं फोटो गौर से देखने लगा।बड़ी लड़की मुझे सगुनी तथा छोटी जुगनी लगी।मेरे सामने कमली का चेहरा घूम गया।मैं अखबार पढ़ने लगा। अखबार में लिखा था कि"सगुनी अपनी बहन जुगनी तथा भाई मोहन को लेकर दो वर्षों से मां का इंतजार कर रही है।इन बच्चों की मां यह कहकर कि-"मैं जलेबी लेकर आती हूं"-गयी और आज तक नहीं आयी।सगुनी अब भीख मांगकर अपना तथा जुगनी व मोहन का पेट भर रही है।
  यह पढ़कर मैं द्रवित हो गया। अखबार द्वारा बताये गये अड्डे पर उसे देखने के लिए चल पड़ा था। कचहरी गेट से सैंकड़ों के आने जाने का रेला लगा था।गाड़ी, घोड़े, हाकिम,हुक्काम, मालिक,प्रजा सभी आ जा रहे थे।मेरी आंखें सुगनी और उसके कुनबे को ढूंढ रही थीं।इधर उधर नजर दौड़ाया कहीं कोई भिखारी नहीं दिखाई दिया।मैं सोचा लगता है कि कहीं आगे खिसक गये हैं सब।मैं निराश हो कर चाय की दुकान पर बैठकर चाय पीने लगा तथा सगुनी के बारे में सोचने लगा कि अचानक दुकानदार की कड़कती आवाज मेरा ध्यान भंग कर दी।देखा!एक लड़की फटे पुराने कपड़े पहने अपने गोंद में एक छोटा बच्चा लिये है ।उसके एक हाथ में शीशे के गिलास में दूध है तथा बगल में एक और लड़की खड़ी है।
       दुकानदार कह रहा थआ-
  "दूध अपने गिलास से पिलाओ।और हां पैसा दे और हट जल्दी से। ग्राहकों का नुक़सान हो रहा है।"
  लड़की दूध अपने गिलास में उड़ेलने के बाद दुकानदार के सामने पैसा बढ़ाई।
  "यह तो दो ही रुपया है।एक रुपया और दे।"-दुकानदार बोला।
  "अब नइखीं।"-सहमी हुई लड़की बोली।
 "जब नइखीं तो क्या करें?जा कहां से।"-दुकानदार परोपकार जताते हुए घुड़का।
  अब तक मैं आश्वस्त हो चुका था कि ये बच्चे कमली के सुगनी, जुगनी और मोहन ही हैं।इसके बाद बच्चों का चेहरा देखने के बाद मैं उन्हें पहचान गया।मैं इशारे से उन बच्चों को अपने पास बुलाया।मैं द्रवित हो गया था।मैं इन बच्चों के लिए कुछ करना तो चाहता था लेकिन पता नहीं क्यों कुछ कर नहीं पा रहा था।
 "मुझे पहचानती हो?"-मैं सगुनी से पूछा।वही बड़ी थी।
  "...."नहीं में सिर हिलाकर सगुनी जवाब दी।
  इस दौरान जहां अचम्भित होकर सगुनी मुझे देख रही थी वहीं दुसरी ओर जुगनी तथा मोहन ललचायी आंखों से दुकानदार द्वारा सजाये गये समोसों को निहार रहे थे। सगुनी इतने कम उम्र में ही प्रोढ़ लग रही थी।अपनी गोंद में मोहन को उठाये तथा दुसरी हाथ से जुगनी को पकड़े खड़ी थी।इन बच्चों के बाल बेतरतीब,गंदे तथा कपड़े बेसाइज के फटे हुए थे। सगुनी की पीठ पर एक झोला भी लटक रहा था जबकि जुगनी अपने हाथ में शीशे का गिलास लिये हुए थी।
  "तुम कमली की लड़की हो न?"-मैं पुनः पूछा।
  ".........."हां में सगुनी पुनः सिर हिलाकर उत्तर दी।इसी दौरान मोहन को छींक आयी।उसके नाक से पोंटा निकल आया। सगुनी बिना देर किये ही झट अपने हाथ से उसे पोंछकर हाथ झटकती है और पुनः हाथ अपने कपड़े में पोंछ लेती है।
  "कमली! कहां है?"-मैं पुनः पूछा।
  "जलेबी लेने गयी।तब से आयी नहीं।बोत दिन हो गया।"-इस बार सगुनी जबान खोलकर बोली।
  यह सुनकर मेरी अंतड़ियों ऐंठने लगीं।मुझे बहुत तरस आ रहा था इन बच्चों पर।मैं। इन्हें अपने पास रखने के लिए सोचने लगा। लेकिन कहां रखउंगआ?अपना तो मकान है नहीं। क्या मकान मालिक रहने देगा इन सबों को मेरे साथ? क्या घर वाले स्वीकार करेंगे?की प्रश्न मेरे सामने खड़े हो गये।मैं भी प्रश्नों का कवच बनाकर अपने आपको सुरक्षित सा कर लिया।मैं चाहकर भी पता नहीं क्यों कुछ कर सकने में असहाय सा लगने लगा।
  "कहां रहती हो?"-मैं पुनः पूछा।
 "इतकुल के घर में"-सगुनी बोली थी।
  जुगनी और मोहन अब भी टकटकी लगाए दुकान की ओर निहार रहे थे।मैं बहुत कुछ पूछने को चाह कर भी नहीं पूछा, क्योंकि मुझे पीड़ा हो रही थी,स्वयं को कमली के बच्चों को कुछ कर न सकने की असहाय स्थिति से।
 "क्या खाओगी?"-मैं सुगनी से पूछा ही था कि जुगनी तपाक से बोल पड़ी-
  "समोसा!"
 मैं दुकानदार को दो जगह समोसा मटर देने को कहकर सगुनी से पूछा-
 "यह क्या खायेगा?"मेरा इशारा मोहन की तरफ था।
 "इह..."। सगुनी बोली।
  मैं दुकानदार से एक और समोसा देने को बोला।
  समोसा पाकर कमली के बच्चों के चेहरे पर सफलता की मुस्कान थी।मैं भी संतुष्टि पा रहा था। सगुनी कभी खाती तो कभी मोहन के समोसा चाय से खा रहा था।रह रह कर अपने नन्हें हाथों से समोसा में पड़े मिर्चा के टुकड़ों को अलग करके फेंक देता था। समोसा खाकर कमली के बच्चे सगुनी के साथ दुकान से चल दिये।मैं चाहकर भी उन्हें न तो रोक सकता था।मैं भी उठा और कमली के बच्चों के पीछे-पीछे चल दिया एक अज्ञात गंतव्य की ओर लक्ष्य हीन बना पता नहीं क्यों?
   चलते-चलते अचानक चौराहे पर जुगनी अड़ जाती है। चौराहे के कोने की दुकान पर सजे मलाई को खाने की ईच्छा हो रही है। सुगनी से कहती है-
  "दीदी!मलाई खाईं।"
  "तल!पइसा नईखीं।कल लेना।"-कहकर सगुनी उसका हाथ पकड़कर खिंचती है लेकिन जुगनी टस से मस नहीं हो रही।
  तभी अचानक दुकान पर मलाई खा रहे एक बच्चे ने आधी मलाई खाने के बाद दोना फेंक दिया। जुगनी झपटकर दोना उठाकर खाने लगी। सगुनी इसे देखकर हंस देती है।
  मुझसे रहा नहीं गया।मेरी जेब भी हल्की थी फिर भी दो दोना भर के पैसे मेरे पास थे।मैं कमली के बच्चों के पास पहुंच कर पूछा-
  "क्यों?मलाई खायेगी?"
 कमली के बच्चे कृतज्ञता से मेरी तरफ देखते हुए हां में सिर हिला देते हैं।मलाई खरीदकर बच्चों को दे देता हूं। जैसे-जैसे वो खा रहा हूं वैसे-वैसे मैं संतुष्ट होता जा रहा हूं।खाने के बाद बिना कुछ कहे ही कमली के बच्चे फिर चल देते हैं।मुझे उनके बारे में चिंता सताने लगती है।
  कहां रहेंगे?कैसे रहेंगे? क्या खायेंगे? क्या पहनेंगे, ओढ़ेंगे आदि आदि।मैं भी बरबस उनके पीछे हो लेता हूं। थोड़ी दूर जाने के बाद पार्क में कमली के बच्चे घुसते हैं। सगुनी अपने झोले में से फटी चादर निकल कर घास पर बिछाती है।उसपर मोहन को लेकर लेट जाती है।मोहन को थपकी देकर सुलाते सुलाते वह स्वयं ही सो जाती है। जुगनी चद्दर पर बैठे बैठे ही खेलने लगती है।कभी वह पास ही में लेटे कुत्ते को ढ़ेला मारती है तो कभी धुर उठाकर घास पर रखती है।
    अचानक मेरी नज़र घड़ी पर पड़ती है।मेरा अधिकारी से मिलने का समय हो गया था। मैं न चाहते हुए भी अनमने मन से वहां से चला आया। जुगनी खेल रही थी। सगुनी व मोहन सो रहे थे और मैं रो रहा था अन्दर ही अन्दर।शायद कमली के बच्चों के लिए या शायद अपनी बेबशी पर।
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                      © ओंकार नाथ त्रिपाठी
                       अशोक नगर बशारतपुर
                              गोरखपुर।
                       (चित्र:साभार)article-image
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रचनाएँ
समय की खिड़की
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समय की खिड़की ----------------------- © ओंकार नाथ त्रिपाठी "समय की खिड़की" मेरी प्रथम लघुकथा संग्रह है जो कि 'शब्द इन' पर आनलाइन प्रकाशित हो रही है।इस संग्रह में मेरी कई छोटी छोटी कहानियां संकलित हैं जो कि मैंने बहुत बर्षओं पहले लिखा था।इस संग्रह में मैंने समाज की ओर उनकी गतिविधियों पर झांकने का प्रयास किया है। शब्द इन पर हालांकि मेरी आठ कविता संग्रह प्रकाशित हैं लेकिन "समय की खिड़की" लघु कहानियों का पहला संग्रह है। आशा है कि यह संग्रह आप लोगों को रुचिकर लगेगा।आपके सुझाव मेरे लिए मार्गदर्शन का कार्य करेंगे तथा समीक्षाएं मेरे लेखन में निखार लायेंगी। आभार सहित।
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