लता
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
कल से ही दिमाग में 'लता' की गतिविधियां नाच रही हैं।यह पहला अवसर था, जब लता का ध्यान मेरी तरफ कम रहा।उसकी सारी गतिविधियों 'तरु' के इर्द-गिर्द घूम रही थीं।कभी उसके साथ उसके घर चले जाना,कभी उसका,इसके घर चले आना।हम लोग बाहर हैं तो भी तरु का लता के साथ घर में अकेले पता नहीं क्या-क्या बात करना,यही नहीं तरु की हेकड़ी इतनी कि उसकी हर इच्छा की पूर्ति लता की तृप्ति का कारण बना रहना देर रात तक जारी रहा।मैं यह अच्छी तरह से जानता था कि लता और तरु के बीच कोई ऐसा वैसा संबंध नहीं है। दोनों के बीच गहरी दोस्ती का, भाई बहन के संबंध का रिश्ता है।यह रिश्ता इतना प्रगाढ़ कि बाहरी शायद ही भांप सकें कि दोनों भाई बहन नहीं हैं।तभी तो लता के मां बाप भी निश्चिंत थे इन दोनों के साथ पर, क्योंकि सभी को कम से कम लता के चरित्र पर किसी प्रकार का संदेह नहीं था, तभी तो निर्द्वन्द छोड़े हुए थे। फिर भी मैं सतर्क रहना चाहता हूं।इसका अर्थ शक कत्तई नहीं है।मैं दोनों का संबंध या साथ बिल्कुल नहीं खत्म करना चाहता, लेकिन इतना जरुर चाहता हूं कि सीमाएं बनी रहें।शायद मेरे ही विचार से मेल खाते हैं लता के परिवार जन के विचार, लेकिन असंगठित परिवार में भला कौन सुनता है।
खैर दिन भर मैं लता के व्यवहार के सामाजिक, मनोवैज्ञानिक तथा वैज्ञानिक पहलूओं पर विचार करता रहा और लता अपनी गतिविधियों में मशगूल रही।आज पहला अवसर था जब मैं खाने के टेबल पर अकेले बैठा था।मुझे लगा कि लता मुझे खाना भी नहीं खिलायेगी लगता है आज, लेकिन अचानक लता ऐन मौके पर हंसती खिलखिलाती आ गयी।मुझे खाना खिलायी। हल्की फुल्की बात की।मैं भी हां ना में केवल यंत्रवत उत्तर देता रहा।इसके बाद बिस्तर लगाने लगी हमेशा की तरह आज भी।हम सब सोने चले दिये।
सुबह जब मैं जगा तब तक लता नित्य की भांति दैनिक कार्य में व्यस्त थी।मैं आफिस आने की तैयारी करने लगा।इसी दौरान गांव के एक दो लोग मिलने चले आये।आज मेरा व्रत है।सबने मेरे साथ चाय पी।इसी दौरान तरु भी आ गया और सबके सामने मेरी परवाह किये बगैर लता की बड़ी बहन कामना को जबरन रामायण पढ़ने मंदिर भेजने लगा। कामना के मना करने पर कहा-
"अरे!तुम जाओ।इनको(मुझे)जाने दो।"
यह सुनते ही मेरा सिर शर्म से झुक गया।मैं रिश्ते में आया था।कल मैं रिश्तेदारों के जबरन कहने पर ही रुका था, लेकिन तरु का यह कहना मुझे लगा कि वह व्यंग्य कर रहा है,मेरे रुकने पर।मेरे दिमाग में यह बात घर करने लगी।
"लगता है मेरा रुकना इन दोनों को अच्छा नहीं लग रहा।शायद लता को भी मैं बाधक लग रहा हूं।"-तब तक अचानक कामना की यह बात -
"आप चले जायेंगे,मैं आपका पैर छू लूं।"
-सुनकर मेरा ध्यान पुनः अपनी प्रतिष्ठा के तरफ चला गया।सोचने लगा-
"क्या मुझसे महत्वपूर्ण तरु है? या तरु का जादू इन सबों के सिर चढ़कर बोल रहा है।"-मैं पुन: हतप्रभ व हतोत्साहित हुआ।मेरी नजरें शर्म से झुकी रही थीं।गांव के लोग भी चुपचाप यह सब सुन रहे थे। मैंने कामना से कहा-
"तुम जाओ, मंदिर पर जाना जरूरी है।मुझे जब जाना होगा चला जाऊंगा।"
मेरे इतना कहते ही तरु अपना मुंह बनाते हुए कहा-
"अरे जाओ!और निश्चित रहो ये आज जरुर जायेंगे।"
यह सुनते ही कामना मंदिर चली गयी।
मैं शर्म और अपमान से गड़ा जो रहा था।
लता मूकदर्शक बनी रही।वह अचानक बोली-
"आप जायेंगे?"
इसके बाद मैं उठा कपड़े पहनने लगा।गांव के लोग जाने लगे।तरु बैठा रहा।अंत में जब गप्पू जाने लगे तब तरु ने उन्हें रोकते हुए कहा-
"इन्हें भी लेते जाइये।"
"मैं वहां नहीं जा रहा"-गप्पू बोले।
"चौराहा तक ही छोड़ देना"-तरु ने गप्पू को रोकते हुए बोला।
यह सुनकर मैं झुंझलाते हुए गप्पू से बोला-"आप जाइये,मैं अभी रुक कर जाऊंगा।"
यह सुनते ही तरु नेपुन: अपने बड़बोलापन की विद्वता दिखाते हुए बड़बड़ाया-
"मैं तो इसलिए कह रहा था कि कहीं आप रास्ते में से ही न वापस आ जायें।"
यह सुनकर मैं अपमान का घूंट पी कर लता को बोला-"लता!अगर तुमको कहीं जाना हो तो जाओ।मैं चला जाऊंगा।मुझे बाधा मत समझो।"
"अरे!बाधा कौन हैं।"-कहकर लता बड़बड़ायी।
मैं भी कपड़ा पहनकर ब्रीफकेस उठाया चल पड़ा।
लता पैर छुई।तरु भी घर से बाहर तक छोड़ने आया पैर छुआ।मैं शर्मशार हुए चला आ रहा था।दिन भर तक लता के बदले व्यवहार पर सोचता रहा।मुझे तरु के व्यवहार पर कष्ट कम लता और कामना के व्यवहार पर कष्ट ज्यादा हो रहा था।मैं सोचने लगा-
"क्या तरु!मुझसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है?"
शायद हां।तभी तो मैं आज अपमानित होता रहा और वह भी लता की उपस्थिति में।वह चुप रही। सोचते-सोचते सिर दर्द करने लगा।मैंने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि अब कभी भी नहीं जाऊंगा लता के पास।उमस बढ़ने लगी।ललाट पर चुहचुहा आये पसीने को तौलिया से पोंछा।सिर कुर्सी पर रखकर शांत चुपचाप घूमते हुए पंखे को देखने लगा।
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर
(चित्र:साभार)