दमादे के फूफा
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
सुबह के सात बज गये थे।मैं नहा धोकर, दैनिक क्रियाओं से निवृत्त हो सोचा कि पूजा कर लूं,तब साथ वालों को जगाऊं।लोग देर रात तक जागते रहे हैं,शादी में। हालांकि इन सबके बाद मैं सोया था।खैर मैं पूजा पाठ करके उठा और लोगों को जगाया। गुसलखाने में जाने की भगदड़ सी मच गयी।मैं कपड़ा पहनकर सड़क की ओर जाना चाहा तभी फोरमैन और बी एल सिंह मिल गये।हम लोग मेजबान के घर पहुंचे।सुबह के 7:30बज चुके थे।मैं सोचा कि देर हो गयी है।चाय तो खत्म हो चुकी होगी। लेकिन मेरी सोच ग़लत साबित हुई। यहां पर भी लोग अभी अभी जागे से लग रहे थे।कोई चाय वाय नहीं।खैर हम लोग बैठे कर इंतजार करने लगे।वह समय भी आ गया जब लड़की की विदाई और नाश्ते का समय दोनों हो गया। चूंकि यह आयोजन पैसों के क्षेत्र के तथाकथित अभिजात्य वर्ग का था सो लोग दिखावे में ज्यादा वास्तविकता में कम थे। लड़की की विदाई में घर के अलावा बाहर की केवल
महिलाएं शरीक थीं। बाकी लोग नाश्ते में
मशगूल थे।कुछ लोग इधर उधर केवल जायजा लेते नजर आये। जबकि असलियत यह है कि इनके जिम्मे कुछ भी नहीं रहा।ये थे केवल "मड़वे में नाचे दमादे क फूफा" या यह कहिये कि "दाल भात में मूसल चंद"। नाश्ता करके लोग पानी पीने में व्यस्त थे।ठंडा पानी मिनरल वाटर (आज के भव्य आयोजन का एक हिस्सा)।
अचानक एक "दमादे क फूफा" सा दिखने वाले सज्जन ने बेयरा से डपटकर पूछा-"ऐ!ये बाटल कहां से ले आये हो?"
"लान में से ले आया हूं"-बेयरा डरते हुए बोला।
"बाटल भरी थी?"-दमादे के फूफा जैसे सज्जन ने पूछा।
"नहीं!खाली थी।"-बेयरा डर कर जवाब दिया।
"तब पानी कहां से ले आया?"-उस सज्जन ने कड़कती आवाज में पूछा।
"हैंण्डपंप से भर कर"-बेयरा डरते हुए बोला।
"हरामखोर!स्साले!! बदमाश!!! हैंण्डपंप का पानी पिलाते हो?अभी लोग बीमार पड़ जायें तब? एक्वागार्ड का पानी क्यों नहीं ले आये?"-कहकर उस सज्जन ने आसमान ही सिर पर उठा लिया।
इतना सुनते ही एक सज्जन जो अब तक इसी बाटल का दो गिलास पानी पेट में डाल चुके थे, तीसरी गिलास का पानी फेंकते हुए मुंह ऐसे बिचकाये जैसे कि नाबदान का पानी पी लिये हों।
इतने में 'दमादे क फूफा' सा दिखने वाले सज्जन ने तेजी बरती।
दुसरा बाटल आया। लगाया गया।पानी पी रहे सज्जन ने अपनी तीसरी गिलास भरी।
"दमादे क फूफा"जैसे सज्जन ने पूछा
-"कैसा है?"
पानी पी रहे सज्जन ने संतुष्टि में सिर हिलाया,जैसे उन्हें गंगाजल मिल गया हो।
"दमादे क फूफा"जैसे सज्जन के भी चेहरे पर कारगिल की फतह हासिल कर लेने की सी चमक उभरी।
"ह:...!...ह:...स्साला! हैंण्डपंप का पानी पिला रहा था"-कहते हुए भीड़ में इधर उधर घूमने लगे।
लड़की की विदाई हो चुकी थी।लोग जाने के चक्कर में इधर-उधर छटपटा रहे थे।गर्मी बढ़ने लगी थी।
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर।
(चित्र:साभार)