पंडित
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
अशोक नगर बशारतपुर
गोरखपुर।
आज परेमपुरा में दो ही चर्चा छिड़ी हुई है।एक तो शनिचरी द्वारा पंडित बाबा के घर जाकर भरी बभनौटी में किया गया ड्रामा दुसरे सेखुईवाली का पंडित बाबा पर चढ़ बैठना। प्रेमपुरा और उसके बभनैया पुरउवा में शनिचरी का मैटर मिर्च मसाला के साथ चटखारा ले लेकर सुनाया जा रहा है।शामत तो पंडित बाबा पर आयी है।एक ओर शनिचरी तो दुसरी ओर सेखुई वाली का डर उपर से पुरउवा वाली काकी के नाम से जानी जाने वाली पंडित बाबा की मां का डांट फटकार।उधर शनिचरी है तो उसे लगता है कि कोई फ़िक्र ही नहीं।वह केवल यही चाहती है कि पंडित बाबा सच को स्वीकार करें।वह पेट से है और खुलेआम चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है कि-
"इऽऽ लइका पंडित बाबा क हऽऽ।हमें खाली एतना चाहीं की पंडित बाबा सबके सामने इऽऽमानी लऽऽ।"
यह बात कहने जब शनिचरी पंडित बाबा के घर गयी तब उसे देखते ही सेखुईवाली आग बबूला हो गयीं।वह कहने लगीं -
"तोर एतना दीदा की घरे तक आ गइले?अबहीन तो पेट नाहीं भरल?बुधुआ से नाहीं अघइले त हमरे घर में आगी लगा देहरे?.....करे सतभतरी! कवन जादू कईले की इ तोंसे मिलल नाहीं छोड़त बाटें।?ओहपर से तें घरे तक आ गईले?"
सेखुईवाली की बात शनिचरी को बर्दाश्त नहीं हो रही थी। फिर भी वह पंडित बाबा के तरफ एकटक देखे जा रही थी। पंडित बाबा थे कि जैसे गूंगे हों।उनकी तो आवाज ही नहीं निकल रही थी।निकलती भी तो कैसे सेखुईंवाली जो मौजूद थीं। पंडित बाबा एक अच्छे पति, पुत्र और पिता हैं। लेकिन शनिचरी के नाते उनकी सभी अच्छाई मिट्टी में मिलती लग रही है। पंडित बाबा मन ही मन सोच रहे हैं-
"इ ससुरी है ही अइसी कि मन डोल जाये और यही गलती आज इंहां तक आ गयी है।"
पंडित बाबा यह जानते हैं कि शनिचरी पेट से है।उसके पेट में बच्चा भी पंडित बाबा का है क्योंकि बुधुवा तो नसबंदी करा लिया है और उसी पैसे वह परियार साल रजाई और चादर खरीदा था।कुछ रुपये से शनिचरी के लिए महकउवा तेल और बाजार से नकली वाला फेयर एण्ड लवली क्रीम खरीदा था।ऐसे में बुधुवा का बच्चा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। पंडित जी के मन में एक बात और है कि शनिचरी इस बीच केवल पंडित बाबा के पास ही आती रही।
सेखुईवाली शनिचरी को बोले जा रही हैं-
"कमीनी! ए से ना हीं पेट भरल ऽऽऽ...
...आदि।
अब शनिचरी चुप नहीं रह सकी। पंडित बाबा चुपचाप सिर झुकाए बैठे रहे तथा पैर के नाखून से मिट्टी खोदते रहे। शनिचरी बोल पड़ी-
"देखीं मलकीन! हम अइसन वोइसन नाही हंई।गरीब हंई त का।रहल बात पंडित बाबा क,तब पता ना हीं का हो गईल की हम ओनसे सटलीं।ईसर भगवान जानें हम बुधुवा के बाद केवल पंडित बाबा से सटलीं।उहो एह बातें की पंडित बाबा हमरे हारे गारे खड़ा रहे लऽऽ।हम ओनके नाहीं नाहीं कइ पउलीं।देखीं मलकीन सतभतरी न कहीं।हम घाट-घाट क पानी पीये वाला ना हंईं।"
इसपर सेखुईवाली बोल पड़ीं-
"इ त खूब बा नौ सौ चूहा खाई के बिल्ली हज को चली"।
शनिचरी इसपर तिलमिला उठी।बोल पड़ी-
"हे मलकीन!सुनीं,हम द्रुपतिया नाहीं हंईं।सब जाने ला ओ के। लेकिन ओ के केहु ना हीं कही सकेला। काहें से उ सट्ट जवाब दे ले।एक दिन मिसिराइ ऐसन वैसन कहलींन तब कहलस-
'हे मिसीराइन मलकीन!हम पांच करतीं चाहे सात,आप क का?अरे!पांच करऽऽ पंचबरता,सात करऽऽ सतवन्ती,धीरीक जीवन ओकर जे एक करऽऽ ते करऽऽ।'
हे मलकीन!हमें अउर कुछ ना हीं चा हीं।खाली हमरे लइका के पंडित बाबा आपन कहीं दें बस्स।"
कहकर शनिचरी अभी कुछ और कहती कि तभी पंडित बाबा की मां आ गयीं और आते ही बिफर पड़ीं-
"इ का ह?चमरउटी हो गइल बा?हे शनिचरी तें जो अपने घरे।हम अपने लइका से परेशान बांटीं।ऐसन ना हीं रहल लेकिन अब....।"-कहकर पुरउवावाली काकी सिर पर हाथ रख कर बैठ गयीं।
सेखुईंवाली बड़बड़ा रही हैं-
"मरद!और कुक्कुर में कउनो फरक ना हीं।जइसे कुक्कुर एहर ओहर सूंघत गोड़ उठा के जंह तंह मूतत चलऽला वइस इ मरद जातऽ।"
"चुप करा दुलहिन,जा आपन काम करा"।-पुरउवा वाली काकी सेखुईवाली को चुप कराती हुई बोलीं।
पंडित बाबा सिर झुकाए किंकर्तव्यविमूढ़ अभी तक बैठे रहे।
"अउर तूं हूं जा आपन काम धाम करा।हां तनिक ध्यान से रहाऽऽ।"-पुरउवा वाली काकी पंडित बाबा को नसीहत देती हुईं बोलीं।
प्रेमपुरा के खरोहवां टोला में शनिचरी के मैटर पर बिरादरी वालों की पंचायत बुलाई गई है।यह पंचायत, परधानी का चुनाव हार चुका रामधनी बुलाया है। वही प्रेमपुरा के खरोह टोला के अपने बिरादरी का अगुआ है। पंचायत इस मुद्दे पर बुलाया गयी है कि बुधुवा के नसबंदी के बाद भी बुधुवा बहू शनिचरी पेट से है।यह कोई प्रश्न नहीं कि यह बच्चा किसका है? क्योंकि खुद शनिचरी चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है कि-
"इ बच्चा! पंडित बाबा क ह।"
प्रश्न यह है कि बभनौटी के लोगों को शनिचरी के मैटर पर मजा कैसे चखाया जाय। बिरादरी के सभी लोगों को बुलाया गया है।इसमें बुजुर्ग, जवान,बच्चे भी आये हुए हैं। शनिचरी भी बुलायी गयी है और बुधुवा भी। पंचायत बैठी है।बुधुवा से पंच लोग कुछ बतकही कर रहे हैं। शनिचरी अपना पिछाड़ा पंचों के तरफ करके पंचायत से थोड़ी दूर बैठी खैनी मल रही है,शायद बुधुवा के लिए, क्योंकि वह खुद खैनी नहीं खाती है।
"तो काका!अब क्या करना चाहिए? आखिर बभनौटी के लोग हमारे बहू बेटियों के साथ कब तक ऐसा करते रहेंगे?"-रामधनी बिरादरी के बुजुर्ग गरबू काका से कहा।
"रामधनी बेटा!हमें सोच समझकर कुछ करना होगा और इसमें पहले शनिचरी और बुधुवा की रजामंदी भी तो चाहिए। आखिर हुआ तो उसी के साथ है यह सब।"-गरबू काका रामधनी को समझाते हुए बोले।
इस बात पर जहां अधेड़ लोग गरबू काका की हां में हां कर रहे वहीं नौजवान वर्ग विफर उठा। समवेत स्वर में कहा उठा-
"ऐसा नहीं। शनिचरी और बुधुवा को आगे चलना ही पड़ेगा।वह बिरादरी से अलग थोड़े ही है।"
अंतत: शनिचरी को पंचों के बीच में बुलाने के लिए बुधुवा से कहा गया।
शनिचरी आयी।भरे पंच में उससे पूछा गया -
"तेरे पेट में किसका पाप पल रहा है?"
"इ पाप नाहीं।हमरी रजामंदी से पंडित बाबा का है।"- शनिचरी बेहिचक जवाब दी।
"अरे बेशर्म!इसे पाप नहीं कहती।क्या यह पूज्य हैं?"-पंचों में से एक ने कहा।
"........"- शनिचरी चुप रही।
"गरबू काका! चुनाव में पूरा बभनौटी एकजुट था।हम लोग इसीलिए हार गये। पंडित बाबा ही सबको बहकाये थे नहीं तो मैं केवल दो वोट से नहीं हारता।अब समय आ गया है पंडित बाबा के खिलाफ केस चलना चाहिए। शनिचरी के साथ न्याय होना चाहिए।"-रामधनी ने चुनाव में हारने की पीड़ा जाहिर करते हुए कहा।
"अरे भाई!केस के लिए इस ससुरी की रजामंदी तो चाहिए।"-पंचों में से एक ने कहा।
"बोल बुधुवा! पंडित जी पर केस चलवाया जाय?तुम तैयार हो?"-एक पंच ने बुधुवा से पूछा।
"इ त शनिचरी बताई काका "-बुधुवा शनिचरी के तरफ देखते हुए कहा।
"बोल शनिचरी तूं तैयार है?"-पंचों में से एक ने कहा।
"हम इ कुल के नाहीं तैयार।केस वोस हमें नाहीं चाहीं।बहुत केस चलल गांव में।का भईल रमेया के माई वाले में?हम आपन लड़ाई लड़त बानीं।हमें जवन चाहीं उ पंडित बाबा के घर जा के उनसे और मालकीन से कही अइलीं। इ लड़ाई हम अपने तरह से लड़ब।एह में पंडित बाबा क दोष नाहीं।दोष हमरो नाहीं और दोष हम दोनों जनी क बा।तब सजा भी हम दोनों जनीं के मिली।"-शनिचरी पंचों से बोली।
"आखिर वह सजा कैसे मिलेगी?-पंचों में से एक ने पूछा।
"एक सजा त हमें मिली गइल बा।हम पेट से बानीं।दुसरका सजा पंडित बाबा के मिलेके बाकी बा।"-शनिचरी बोली।
पंडित बाबा को सजा मिले इसीलिए तो हम लोग यहां जुटे हैं, लेकिन तुम्हें तौयार होना पड़ेगा इसके लिए।"-पंचों में से किसी ने कहा।
"पंडित बाबा के सजा हम हीं देब।एके खातिर पंचन क जरुरत नाही परी।"-यह कहकर शनिचरी भरी पंचायत से उठकर चली गयी।
"देखे गरबू काका! शनिचरी कितनी मनबढ़ है।चली जा रही है।ऐसे लोगों के कारण ही बिरादरी दबी है।"-रामधनी शनिचरी पर तमतमाते हुए कहा।
गरबू काका चुप रहे।तभी पंचों में से किसी ने बुधुवा के तरफ मुखातिब होते हुए कहा-
"बुधुवा!देखने अपने लुगाई कऽऽ।तें तो ओके अपने बस में नाहीं कईले लेकिन एकरे खातिर पूरा बिरादरी ना हीं बेइज्जत होई।या तो तें ओके छोड़ या पंडित बाबा के उपर केस में तैयार हो।ना हीं तो बिरादरी से तोर हुक्का पानी बंद।बोल का कइल जाय?केह पर तैयार बाटे?"-इस प्रस्ताव को सभी पंचों ने समवेत स्वर में पारित कर दिया। रामधनी ने बुधुवा से पूछा-
"तो बुधुवा! आखिर तीनों में से किस बात पर तुम तैयार हो?"
"इ कुली त शनिचरी बताई पंचों।हम का कहीं।"-यह सुनते ही पंचायत में हंसी होने लगी।"अगर बुधुवा कड़ा रहता त पंडित बाबा लपकतऽऽ।"
कहकर लोग हा हाऽ हाऽऽ....करके हंसने लगे।
गरबू काका ने सबको चुप कराते हुए कहा-
"शनिचरी पंडित बाबा पर केस को तैयार नहीं।बुधुवा शनिचरी के विरोध में कुछ कर नहीं रहा।ऐसे में यही राह है कि शनिचरी और बुधुवा का बिरादरी से हुक्का पानी बन्द हो।"
इसपर पंचों में आमसहमति हो गयी लेकिन रामधनी इससे संतुष्ट नहीं दिखा। उसने कहा-
".... लेकिन इससे भला बभनौटी को क्या सबक मिलेगा?"
"अरे रामधनी! जब बैल परुआ हो त खेत कैसे जोत बाऽ?"-कहकर पंच लोग उठकर चल दिये।
धीरे-धीरे समय बीतने लगा। पंडित बाबा के घर पर भी कोहराम कम हो गया।गांव में शनिचरी का मैटर धीरे-धीरे ठंडा होने लगा लेकिन समय के साथ-साथ शनिचरी के पेट का उभार बढ़ता जा रहा है।इस बीच पंडित बाबा लुकाछिपी शनिचरी से मिल लेते हैं।उसे यथासंभव उसकी जरुरतों को पूरा करने का बंदोबस्त कर देते हैं। शनिचरी सोचती है-
" ऐ में पंडित बाबा क भी कवन दोष दे ईं। आखिर उ हो मरद ह ऊ व।पता ना हीं का देखल ऽ हमरा में,ओन कर मन हम पर आ गइल ऽ।इ निगोड़ी जनानी देह बड़ी बाउर ह।के के कब केकरा पर भरमा दे ना हीं जानत।"
सहसा शनिचरी के आंखों के सामने वह दिन घूम गया।जिस दिन शनिचरी तथा पंडित बाबा एक हो गये थे।देखते ही देखते सब कुछ घट गया था।इसकी कल्पना न तो पंडित बाबा किये थे और न ही शनिचरी। शनिचरी तथा पंडित बाबा का मेल मिलाप काम धंधे पर ही होता था जैसे सभी का होता है।यह सच है कि न तो पंडित बाबा ऐयाश हैं और न ही शनिचरी बदचलन। शनिचरी बुधुवा को बहुत मानती है।उस दिन की घटना वह बुधुवा से बता दी थी।बुधुवा ने कहा था-
"च लूं,गोरु गोसया हैं ऽऽ।"
यह कहकर बुधुवा यह बात एक कान से सुनकर दुसरे कान से निकाल दिया था।
पंडित बाबा भी इस घटना से असहज हो उठे थे।उनके मन में जहां पत्नी तथा घर वालों के तरफ ग्लानि है वहीं शनिचरी तथा उसके पेट में पल रहे बच्चे के प्रति लगाव भी है।वह शनिचरी पर कभी भी बच्चा गिराने का दबाव नहीं डाले, बल्कि चोरी लुक्का उसे मदद करते रहे।
कभी-कभी शनिचरी अपने बढ़ते के आकार को देखकर चौंक उठती है।उसके दिमाग में पंचों की बातें घूमने लगती है।वह सोचने लगती है-
"का पंडित बाबा हमरे मजबूरी को फायदा उठउले हउवंऽऽ, लेकिन ना हीं।कउनो जोर जबरदस्ती ना हीं कइलऽऽ।कउनो लालच ना हीं दे ह लऽऽ।हमरे हरजे गरजे जरुर खड़ा रहलऽऽ।हमरे साथ जवन भइल एहमें शायद हमरऽऽ कमी ह। लेकिन अकेले हमरऽऽ ना हीं। पंडित बाबा कऽऽ भी।तब सजा त ओनहू के मिले के चाहीं।सजा इ लड़का के पैदा करके दिहल जाई। पंडित बाबा ओके देखिहं त जरूर ,ओन के मन में मन में टींस उठी।उ अपने ही लइका से आपन ना हीं कही पइहें जबकि पूरा जवार ओ न हीं क लइका कही।एतना बड़ा सजा अउर का हो सकेला।
यह सोचकर शनिचरी मुस्कुरा उठी।उसने तय कर लिया कि बच्चे के पैदा होने के बाद उसकी परवरिश करेगी।बुधुवा भी उससे सहमत है।
लेकिन कभी-कभी शनिचरी सोचती है कि-
"एसे हम दुनों जनीं के सजा मिली जाइ।
लेकिन ई निर्दोष लिखा क का दोष हऽऽ,जेकर इ सजा सही।लोग एके ताना दिहं।"
फिर शनिचरी दृढ़ हो जाती है। बुदबुदा उठती है-
"कवने क हिम्मत हो ई,जवन कुछ कही।हम मुंह नोची लेब।कउनों क कमाई खाई हमार लइका।"
शनिचरी अब तब में हो गयी।उसका दिन नजदीक आ गया।फिर भी काम काज में कोई कमी नहीं।पिछले तीन बच्चे उसके चलते फिरते काम धाम करते ही जन गये थे।
आज शनिचरी का तबियत कुछ अनमने है। लेकिन उसे बाजार जाना है। सामान लेना है।सो वह बाजार जा कर जल्दी-जल्दी सामान लेकर घर के लिए चल दी।रास्ते में उसे बच्चे का दर्द महसूस होने लगा।वह गांव के उत्तर आते आते और चलने में असमर्थ हो गयी। पंडित बाबा के खेत में कुछ लोग खलिहान किये थे। वहां पर दो चार औरतें थीं। शनिचरी को देखकर वो सब द्रवित हो गयीं।किसी तरह खलिहान में ले आयीं।चादर से आंड़ कीं। शनिचरी दर्द से छटपटा रही थी। थोड़ी ही देर में बच्चे के रोने की आवाज आयी।
"शनिचरी को बच्चा हुआ छोकड़ा।"
-औरतें कह उठीं।
अब शनिचरी सामान्य थी। बच्चे का नाल काटा जा चुका था।वह घर जिनके की तैयारी में थी। देखते-ही-देखते पूरे गांव में यह खबर फैल गयी। शनिचरी को बच्चा हुआ।छोकड़ा हुआ।वह भी पंडित बाबा के खेत वाले खलिहान में।खबर पाकर बुधुवा आया और शनिचरी को लेकर घर गया।इसके बाद शनिचरी सामान्य हो गयी।उसके चेहरे पर न तो अतिरिक्त खुशी है और न ही विषाद का कोई चिह्न ही। इतना जरुर है कि इधर शनिचरी के खाना चौका बर्तन तथा काम काज से दो चार दिनों की फुर्सत मिल गयी है।वह बच्चे को दुध पिलाते वक्त सोचने लगती है। बच्चे को निहारती है-
"सच्च!गोरहराई तो पंडित बाबा के है।हे भगवान किइसे गढ़ला तूं।"
धीरे-धीरे शनिचरी का बच्चा एक माह का हो गया।इस बीच खेत खलिहान जाते समय पंडित बाबा शनिचरी से मिलकर बच्चे को देख चुके थे।उनके मन में एक टींस उठ रही थी। वह सोच रहे थे-
"है तो मेरा ही।कैसी विडंबना है कि मैं इसे अपना नहीं कह पा रहा हूं जबकि पूरा जवार इसे मेरा कह रहा है।"
एक अपनापन,एक कशिश,एक वात्सल्य,पिता वाली ममता उमड़ पड़ी पंडित बाबा के दिल में।उनकी आंखों में बरबस ही बेबसी के आंसू उमड़ पड़े।
शनिचरी अपनी दिनचर्या में लग गयी।बच्चा भी इधर-उधर आने जाने लगा।लोग दबी जुबान से इसके बच्चे को बुधुवा का नहीं, पंडित बाबा का कहने लगे। शनिचरी भी सोचती है कि"आखिर एकर का नाम रखीं?"
वह इस बच्चे का नाम ऐसा रखना चाहती है जिससे पंडित बाबा चौंक उठें।पता नहीं ऐसा वह क्यों सोचती है।शायद इसलिए कि ऐसा करके वह अपना मौन विद्रोह उजागर करना चाहती है पंडित बाबा के खिलाफ। पंडित बाबा जिस सच को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने में डर रहे हैं अब शनिचरी उसे उनके उपर लक्षन के तरह चस्पा कर देना चाहती है। वह सोचती है कि-
"अब मौका आ गइल बा पंडित बाबा के सजा दिहले क।"
शनिचरी पंडित बाबा को अपने तरह से सजा देना चाहती है।यही बात वह पंचायत में भी कही थी।
अब वह मौका आ गया था।वह सोचने लगी कि पंडित बाबा को आखिर कैसे और कौन सी ऐसी सजा दी जाये जो कि पंडित बाबा को उसी तरह लगे जैसे मुझे लगी है।पूरे गांव जवार और भरी पंचायत में आखिर लांक्षन मेरे पर ही लगा पंडित बाबा पर नहीं।वह बुदबुदा उठी-
"का मेहरारू भइल हमार गुनाह हउऽऽ।पूरा दोष हमार खाली एह नाते हऽऽ की हम कमजोर हईंऽऽ।"
शनिचरी मन में ठान ली कि-
"इ तो सरासर ग़लत हउव।दोषी हम दुनों हईंऽऽ,सजा दुनों के मिलीऽऽ"।
"अरे शनिचरी!बड़ा सुन्नर बा तोर लइका।ऐके तनिक काजर वोजर लगा दे। नज़र न लगी जा।"-अचानक गोबरी के माई की आवाज ने शनिचरी की तंद्रा तोड़ दी।
"आईं बड़की माई..आईं..."कहकर गोबरी की मां को बैठने के लिए पुआल से बने बीड़ा को देती हुई शनिचरी बोली।
"बड़ा सुन्नर है रे तोर लाल।कव नाम वाले हऽऽ?"-गोबरी की मां बच्चे को दुलारते हुए पुछी।
"पंडित!"शनिचरी के मुंह से अचानक बीना पहले से सोचे समझे ही निकला।इसके बारे में स्वयं शनिचरी भी नहीं सोची थी।
"पंडित!..."-यह कहते समय गोबरी की मां के माथे पर बल पड़ गया।वह शनिचरी की आंखों में झांकती हुई कुछ पुछने की सी मुद्रा में शनिचरी को एकटक देखती रही।मानो पूछ रही हो कि शनिचरी बच्चे का नाम पंडित बाबा के ही नाम पर क्यों?
लेकिन उन्हें पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी। थोड़ी देर के लिए एक ख़ामोशी छा गयी।एक निर्वाक निर्वात। शनिचरी भी सोच में पड़ गयी। अचानक उसके मुंह से बच्चे का यह नाम कैसे निकल पड़ा? वह सोचने लगी-
"ठीक त ह। पंडित बाबा क लइका। पंडित बाबा कू जमीन पर पैदा भील तब पंडित नाव कउनो बुरा ना हीं। बहुत बढीयां नाव आगइल जीभ पर।सुरती माई क किरपा।अब पंडित बाबा इ नाव सुनी के हरदम चंउकिहं।इह ओनके सजा होई।"-यह सोचकर शनिचरी अपार संतुष्टि की सांस ली।वह गोबरी की मां के तरफ देखते हुए बोली-
"बइठीं बड़की माई।पानी ले आईं पी लीं।"
"ना हीं हम चलीं खेते।गोबरिया के बजारे भेजे के बा।"-कहकर गोबरी की मां चल दी।
शनिचरी बच्चे को गोंद में उठा कर बुदबुदा पड़ी-
"इ हमार पंडित हउवंऽ.....इ हमार पंडित हउवंंऽऽ।"
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
अशोक नगर बशारतपुर
गोरखपुर।
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(चित्र:साभार)