सुनंदा
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
शाम का अंधेरा धीरे-धीरे अपना पांव पसारते हुए पूरी संध्या को ढ़ंक लिया। पंछियों का कलरव अब शांत हो चुका है।लोग अपने-अपने आफिसों तथा कार्यों से लौटकर घर जा चुके हैं। मुहल्लों में अंगीठियों से उठने वाली कोयले की सोंधी सुगन्धयुक्त धुंआ खत्म होकर आग के रुप में कोयला तप्त सूर्ख होकर दहक रहा है।लोग अपनी-अपनी अंगीठियों पर रोटियां सेंक रहे हैं।ऐसे में मुहल्ले के एक कोने में पुराने जीर्ण-शीर्ण मकान के दुसरे तल्ले में सुनंदा भी अपनी अंगीठी लहका कर अपने पति का इंतजार कर रही है।यह पहली दफा नहीं, बल्कि जब से सुनंदा इस घर में ब्याह कर आयी है तभी से उसे ऐसा करना पड़ता है। शाम के वक्त की सब्जी,मसाले,तेल, चीनी या अन्य और अनेक चीज़ें प्रतिदिन शाम को ही आती हैं,जब सुनंदा का पति ड्यूटी पर से वापस आता है।तब साथ लेकर आता है। इसीलिए अक्सर देर हो जाती है और कभी-कभी तो बहुत देर हो जाती है।
एक संभ्रांत घर की सुघड़ कन्या सुनंदा समय के हाथों इस कदर मजबूर कर दी गयी कि उसे छोटी-छोटी जरुरतों के लिए भी लम्बा इंतजार करना पड़ता है।अपनी शादी के बाद सुनंदा यह सोची थी कि पति के पास उसे इससे छुटकारा मिल जाएगा क्योंकि वह कमाता है। परन्तु उसका दुर्भाग्य यहां भी उसका साथ नहीं छोड़ा।पति कमाता तो है परन्तु अपने दायित्वों में इस कदर जकड़ा है कि उसे आय से अधिक धन गांव पर परिवार के लिए देना पड़ता है। परन्तु सुनंदा ने कभी भी न तो ऐतराज़ किया और न ही अपने लिए किसी चीज की फरमाइश की।अगर फरमाइश कर देती तो शायद उसके पति को कष्ट न रहता लेकिन एक तरफ सुनंदा को कुछ न कर सकने का दु:ख जहां उसके पति को काटता था वहीं सुनंदा का अपनी आवश्यकता को न कहने का दु:ख उसके पति को और ही पीड़ा देता था।तभी तो उसका पति अपराध भाव से चिंतित रहता था कि वह सुनंदा के लिए आखिर किया ही क्या है?
बीस बाइस वर्ष की उम्र में ही सुनंदा अपने पति के घर,घर चलाऊं गंभीर गृहणी हो गयी।ऐसा नहीं कि वह घर की समस्याओं के प्रति चिंतित नहीं हैं।वह चिंतित है और खूब चिंतित है।तभी तो वह गुमसुम बैठी हमेशा न जाने क्या-क्या सोचती रहती है।तभी तो सूख कर कांटा हो गयी है।देह दुबली पतली हो जाने के बावजूद संभ्रनियत उसके चेहरे से टपकती है।
सुनंदा अपनी अंगीठी लहका चुकी है।आटा गूंथकर अपने पति का इंतजार कर रही है। अक्सर सुनंदा की यही दिनचर्या हो गयी है।जब उसका पति आता है तब अपने साथ सब्जी के साथ ही अन्य दैनिक उपयोग की रोजमर्रा की चीजें लाता है। सुनंदा उसके बाद सब्जी बनाकर गर्मागरम रोटियां सेंक कर अपने पति को खिलाती है। कभी-कभी उसका पति आने में देर कर देता है तब सुनंदा समझ जाती है कि बाहर दौरे पर चले गये हैं, लेकिन आज धीरे-धीरे काफी देर होने लगी है।रात के 10 बज चुके हैं। अब सुनंदा का मन घबराने लगा है।वह बड़बड़ा उठती है-
"बार-बार कहती हूं कि नौ बजे तक घर आ जाइए, लेकिन मेरी सुनता कौन है?"
अंगीठी की आग राख होती जा रही है। सुनंदा उठकर फोड़े कोयला ले आकर अंगीठी में डालती है। पुन:अंगीठी के पास बैठ जाती है।अपने पति की राह निहारत-निहारते वह अतीत में डूबे जाती है।उसे याद हो आता है जब उसकी शादी आलोक नाथ के साथ तय हुई थी।उसने भी सुना था कि आलोक नाथ एक प्राइवेट फर्म में मैनेजर हैं।उसे सम्मान जनक रुपया तो नहीं लेकिन महिने का सामान्य वेतन मिलता है।तभी तो सुनंदा ने अनेक सपने संजोये रखे थी अपने मन में। लेकिन आलोक के घर आते ही धीरे-धीरे इस निम्नमध्यवर्गीय परिवार में उसकी छोटी-छोटी जरुरतों भी बेमौत दम तोड़ने लगी थीं।कम आय वाला आलोक अपनी पूरी मेहनत के बाद भी किसी तरह से जरुरी ज़रुरतें पूरी करने भर को भी नहीं कमा पाता है फिर भी वह सुनंदा की हर जरुरतों को पूरी तरह पूर्ण करना चाहता है। सचमुच पैसे कमजोर होते हुए सुनंदा अपने पति के प्रेम से काफी मजबूत हैऔर इसलिए सुनंदा को किसी प्रकार का गिला शिकवा नहीं है आलोक से,तभी तो वह आलोक के चिंतित होकर यह कहने पर कि-
"मैं कैसा पति हूं जो अपनी पत्नी को सुख सुविधा या उसकी इच्छाओं की पूर्ति तक नहीं कर पाता।"
सुनंदा शांत परन्तु दृढ़ शब्दों में ढ़आंढ़स बंधाती हुई संतोष की मुद्रा में कहती है-
"क्या चाहिए सब कुछ तो मिल रहा है।"
इसपर एक गहरी उछ्वास लेकर रह जाता है आलोक।
अचानक कुत्तों के भौंकने तथा जूतों के पदचाप से सुनंदा का ध्यान टूट जाता है।वह उठकर दरवाजे के पास जाकर खिड़की से झांकती है, लेकिन पदचाप उसके दरवाजे पर ठहरने के बजाय आगे बढ़ जाती है। कुत्तों का भौंकना धीरे-धीरे कम होकर शांत हो जाता है। सुनंदा चौके में पुन: अंगीठी के पास बैठकर राख हो रहे कोयले पर कोयला रखती है।उसका मन अनेक आशंकाओं से घिर उठता है। आखिर क्यों नहीं आये अब तक?इतनी देर तो कभी नहीं लगाते थे? रह-रहकर गुस्सा भी होती है। धीरे-धीरे घड़ी की दोनों सुइयां 12.00पर टिक गयीं। सुनंदा की नजर पड़ते ही उसका शरीर सिहर उठा।वह बोल पड़ी-
"12.00भी बज गये।हे भगवान! क्या हो गया? कहीं कुछ.....। नहीं.... नहीं....।...ऐसा नहीं होगा।.....तब आखिर कहां हैं,अब तक?....हो सकता है कि आफिस के काम से बाहर गये हैं और देर हो गयी हो।की बार ऐसा भी हुआ है।पिछले ही महीने लगभग दो बजे रात में आये थे।तब मैं काफी परेशान हो गयी थी।.... लेकिन उस बार उनका फोन तिवारी जी के घर आया था कि मैं देर से आऊंगा।इस बार तो ऐसा नहीं हुआ। कहीं जाते हैं या देर से आना होता है तब वो जरूर बतला देते हैं।आज वो बतलाये भी नहीं हैं।"-आदि अनेक बातें सुनंदा के मानस पटल में उठती हैं। सुनंदा स्वयं प्रश्न उठाती है।स्वयं उत्तर देती है।स्वयं संतुष्ट होती है अपने उत्तरों से।स्वयं ही असंतुष्ट होकर पुनः: प्रश्न कर बैठती है।यह सब सोचते-सोचते कब घड़ी रात के1.00बजा दी सुनंदा को पता ही नहीं चला।
रात के एक बज गये हैं। आलोक अभी तक नहीं आया। सुनंदा का दिल बैठा जा रहा है। आशंकाएं उसके दिलो-दिमाग को उद्वेलित आशंकित करती हैं।उसका मन अब कहीं भी नहीं लग रहा। सुनंदा झल्लाकर बड़बड़ाने लगती है-
"एक बज गये हैं।कुछ भी है। यदि मेरी फ़िक्र नहीं तो कम से कम आदमी को अपनी तो होनी चाहिए। जमाना जल रहा है।चारो तरफ आग लगी है।कहीं कुछ उल्टा सीधा हो जाय तो....'हे भगवान!ऐसा कुछ न हो....वो जहां भी हों सुरक्षित हों....मुझे और कुछ नहीं चाहिए.....मैंने और कुछ भी नहीं मांगी है आज तक आप से.....उनकी रक्षा करना।"-कहकर सुनंदा अपने हाथ जोड़कर सिर झुका लेती है।
सुनंदा अंगीठी के पास बैठी है।वह कुछ कर नहीं रही है।वह सोच रही है कि "वो आयेंगे तब रोटी बना दूंगी। गरम-नरम खा लेंगे।"पता नहीं कहां-कहां देर लगा देते हैं।बैठूं भी तो कब तक।बैठा भी नहीं जा रहा है।कमर बैठे-बैठे अकड़ गयी है।कई बार कोयले लहक कर बुझ चुके हैं।पुन:जो अभी थोड़ी देर पहले कोयले डाली थी वो भी लहक चुके हैं। सुनंदा झल्लाकर उठती है ,सोचती है कि वह अब रोटी बना डालेगी। सुनंदा ने तावा अंगीठी पर रखकर आटे की थाली खिंच ली और रोटी बेलने लगी।
रोटी बेल बेल कर वह तावे पर डालती जाती।कभी तावे पर रोटी ऊलेटती तो कभी चौका पर रोटी बेलती,तो कभी थाली में से आटा लेकर उसका चकवा बनाती रोटी के लिए। अचानक इसी बीच उसे जीने पर पैरों की आहट सुनाई दी।उसका दिल धड़क उठा। आशाएं जाग उठीं।चेहरे पर तल्लीनता आ गयी।वह रोटी तवा पर से उतारकर दरवाजे के पास खिड़की से झांकने को होती है तभी-
"रम्मी!.... रम्मी!!.... दरवाजा खोलो।"-बगल के मिश्रा जी की आवाज सुनकर क्षण भर में ही सुनंदा के चेहरे की आभा चली गयी।उसकी आशा निराशा में तब्दील हो गयी। सुनंदा अंगीठी के पास आकर बंचे हुए आटा से गोल गोल चकवा बनाकर उसे बेल-बेल कर तावा पर फेंक-फेंक सेंकने लगी।
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी । अशोकनगर, बशारतपुर
गोरखपुर उप्र।
(चित्र:साभार)