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मैं या मधूप?

18 नवम्बर 2023

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                 मैं या मधूप
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                    © ओंकार नाथ त्रिपाठी 
  समझाने के सारे उपकरण अस्वीकृत हो चुके थे। कृत्रिम हंसी, आवाज, बातचीत भी उसके अश्रूधारा को रोकने में कदाचित असफल हैं।पीड़ा उसे मर्मांतक है,यह स्पष्ट हो रहा है।पता नहीं क्यों चिड़ियों का कलरव,शुरमई शाम,संगीत,
हंसी आदि कुछ अच्छे नहीं लग रहे हैं।इधर उधर व्यस्तताओं के बाद भी रह रह कर उसकी सूजी हुई आंखें,लाल आंखें और लाल हो चुकी नाक से गिरता पानी मेरी नज़रों के सामने से गुजर जा रहा है।एक बोझिल थकी सी रात समाप्त होने के बाद पूरा 'दिन' भी थका-थका सा उदास ही उदय होकर अस्त हो चला।मेरा उसके पास जाना, उसे समझाने का यत्न करना पानी में लकीर खींचना ही रहा, क्योंकि कृत्रिमता यथार्थ को ढक नहीं पा रही थी,उसके लाख प्रयास के बाद भी। हालांकि मेरे प्रयास हरदम असफल रहे हों उसके साथ यह सच नहीं है।उसने मेरा साथ दिया है लेकिन आज ऐसा नहीं है।
   तो क्या, कदाचित ऐसा तो नहीं कि अपने अवसाद का कारण मुझे.... नहीं.... नहीं...मैं तो कुछ कहा भी नहीं.....।
  खैर उसका अवसाद में गिरना मुझे अवसादग्रस्त बनाना है।मैं भारी तनाव में उसके जीवन के अहम् फैसले के बाद बुनियाद की रुपरेखा में व्यस्त हूं।यदा-कदा ही उसके पास आता हूं। लेकिन उसका मुरझाया सा अस्फुट आवाज,
उदास तथा आंसुओं से सराबोर लाल आंखें एक टीस ही देती हैं। आखिर क्या हो गया? कैसे आयेगी उसके होंठों पर मुस्कान।ऐसे समय में जबकि लड़कियों के आधे शेष बचे जीवन का अनन्तिम निर्णय लिया जाता है तब तो वो भाव-विह्वल तथा प्रसन्नचित्त ही रहती हैं लेकिन यह अचानक इसे क्या हो गया?इसी उहापोह में मैं डूब उतरा रहा था कि अचानक मेरे कानों में लगा पहाड़ों से गिरती नदी के बहाव का कलकल, फूलों पर मंडराते मधूपों के आवाज की सरगम जैसी चिड़ियों सी चंहचआहट सुनाई दी।
वह हंस रही थी,बात कर रही थी।उसके चेहरे पर उदासी नहीं थी। कोई कृत्रिमता भी नहीं । यथार्थ परक खुशी थी।तनाव तथा अवसाद रहित।मैं यह सब सुन रहा था।वह मशगूल थी बातों में,लगा जैसे कुछ नहीं हुआ रहा।मैं उसकी प्रसन्नता में प्रसन्न होकर अतीत की खोह में डूबे गया।
जब तंद्रा टुटी तब फिर वही उदासी,वहीं सन्नाटा,रुआंसा सा चेहरा।मैं देखा एक भौंरा गुनगुन करता उसके पास से निकला और जाने लगा था।मुझे लगा कि इसी की गुनगुनाहट से उसके आवाज में संगीत थी।मैं अपनी तुलना उस काले भन भन करते भौंरे से करने लगा ।इसकी आवाज मुझे भनभनाहट लेकिन उसे गुनगुनाहट लग रही भी।मैं समझ गयी फूलों और भौंरों का मतलब।कैसी बिडंबना है किअपना सब कुछ उस भौंरे को लुटाने को वो तत्पर है जो कि की पुष्पों का रसपान करता है।मैं भी उसे ही निहारने लगा। धीरे-धीरे वह मेरी आंखों से ओझल हो गया।मैं अपने और उस मधूप में विभेद करने लगा।उसके लिए बेहतर मैं या मधूप?
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                     © ओंकार नाथ त्रिपाठी
         अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर। 
                   (चित्र:साभार)article-image

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बहुत सुंदर भाग है पढें कचोटती तन्हाइयां और हर भाग पर अपना लाइक 👍 कर दें 😊🙏

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समय की खिड़की ----------------------- © ओंकार नाथ त्रिपाठी "समय की खिड़की" मेरी प्रथम लघुकथा संग्रह है जो कि 'शब्द इन' पर आनलाइन प्रकाशित हो रही है।इस संग्रह में मेरी कई छोटी छोटी कहानियां संकलित हैं जो कि मैंने बहुत बर्षओं पहले लिखा था।इस संग्रह में मैंने समाज की ओर उनकी गतिविधियों पर झांकने का प्रयास किया है। शब्द इन पर हालांकि मेरी आठ कविता संग्रह प्रकाशित हैं लेकिन "समय की खिड़की" लघु कहानियों का पहला संग्रह है। आशा है कि यह संग्रह आप लोगों को रुचिकर लगेगा।आपके सुझाव मेरे लिए मार्गदर्शन का कार्य करेंगे तथा समीक्षाएं मेरे लेखन में निखार लायेंगी। आभार सहित।
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