नीलाक्षी
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
धीरे-धीरे नीलाक्षी दिनों दिन सामान्य हो रही थी।उसके सिर से 'मानव'का भूत हालांकि खत्म तो नहीं हुआ था लेकिन एक सीमा तक सीमित जरुर हो रहा था।मानव भी अब नीलाक्षी को मानसी नाम से नहीं पुकारता है। वह भी नीलाक्षी ही कहता है।समय परिवर्तनकारी होने के साथ-साथ कालग्राही भी होता है।इसी के कारण जहां मानव समय को संवारने तथा उससे जुझने में धीरे-धीरे व्यस्त होता गया वहीं नीलाक्षी भी अपने सपनों के शहजादे के सपने में व्यस्त रहने लगी, लेकिन आनन्द स्वरूप इस बात से न तो बेखबर थे और न ही मानव और नीलाक्षी को लेकर सहज थे। इसीलिए तो वह अब जल्द से जल्द नीलाक्षी का हाथ पीला कर देना चाह रहे थे।नीलाक्षी भी बीसवां बसंत पार कर चुकी थी।एक बाप के सिर पर जवान लड़की का बोझ बहुत भारी होता है।इसी बात को लेकर आनंद स्वरूप परेशान रहते थे।आज आफिस में पुन:खोये खोये से लग रहे थे। टेबुल पर फाईलों का अंबार पड़ा था। आनंद स्वरूप किंकर्तव्यविमूढ़ से कुर्सी पर बैठे पड़े रहे।
"क्यों आनंद बाबू!किसी सोच में पड़े हैं? क्या बात है?"-अचानक सहकर्मी पटेल जी की आवाज ने आनंद स्वरूप की तंद्रा तोड़ दी।
"हां पटेल जी! लड़की बड़ी हो गयी है।उसकी शादी की चिंता सताये जी रही है।शादी है कि कहीं ठीक ही नहीं हो रही है।समझ में नहीं आ रहा कि क्या करुं?"-आनंद स्वरूप एक ही बार में कह गये।
"तब आप सर्वेश्वरदयाल जी से क्यों नहीं मिलते?अरे वही सर्वेश्वरदयाल जो चंडीगढ़ में आपके बड़े अच्छे मित्र रहे हैं।
आप दोनों की तो पटती भी खूब थी।"-पटेल ने आनंद स्वरूप से कहा।
"हां पटेल जी!सर्वेश्वर तो मेरे अच्छे मित्र रहे हैं।"-आनंद बाबू बोले।
"उनका लड़का बड़ा होनहार है।सुना है कि मेडिकल की परीक्षा पास किया है।आप उनसे मिल लें।"-पटेल ने आनंद बाबू से कहा।
"हां पटेल जी! मैं कल ही सर्वेश्वर से मिलने जाऊंगा।सुना है इन दिनों वह दिल्ली में हैं।"-आनंद बाबू पटेल से कहे।
"हां!इन दिनों वह दिल्ली मुख्य कार्यालय में हैं।वह आप के लिए अच्छी शादी होगी। सर्वेश्वरदयाल भी एक अच्छे इंसान हैं।वह आपको निराश नहीं करेंगे।"-पटेल ने आनंद बाबू से कहा।
आनंद बाबू अगले ही दिन दिल्ली के लिए रवाना हो गये घर पर बिना किसी को बताये ही।दरअसल आनंद बाबू घर पर शादी की बात बताते-बताते थक गये थे।जाते थे कोई बात बनती नहीं थी। इसीलिए अबकी बार आनंद बाबू यह सोचे कि शादी पूरी तरह से ठीक हो जाने के बाद ही घर पर बात करुंगा।
इसीलिए आनंद बाबू अबकी बार घर पर किसी से इसकी चर्चा किये बगैर ही दिल्ली के लिए चल दिए थे। वहां पर सर्वेश्वरदयाल ने आनंद स्वरूप का गर्मजोशी से स्वागत किया।वह बहुत प्रसन्न हुए आनंद को पाकर।इस बात को सुनकर सर्वेश्वरदयाल के खुशियों का पारामार नहीं रहा कि आनंद स्वरूप अपनी लड़की नीलाक्षी की शादी नील से करना चाहते हैं। आनंद स्वरूप जहां सर्वेश्वरदयाल के एक अच्छे मित्र हैं वहीं पर नील सर्वेश्वरदयाल का एकलौता बेटा है।वह अभी-अभी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी किया है।एम एस की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाने की तैयारी में है।नीलाक्षी भी तो एक सुन्दर पढ़ी लिखी सुसभ्य लड़की है।वह भी तो अंग्रेजी से एम ए करके यूजीसी-नेट की तैयारी में जुटी है।
"तो हां सर्वेश्वरदयाल! क्या मैं आश्वस्त होऊं कि तुम मेरी बेटी को बहू के रुप में स्वीकार करने को तैयार हो?"-आनंद स्वरूप सर्वेश्वरदयाल से बोले।
"अरे यार! क्या इसमें भी कोई शक है?मेरे लिए तो खुशी की बात होगी कि नीलाक्षी जैसी लड़की मेरी बहू बने।"-सर्वेश्वरदयाल आनंद स्वरूप से बोले।
" लेकिन सर्वेश्वर!समय बहुत तेजी से बदल रहा है। हमलोगों की विचारधारा और बच्चों की विचारधारा में बहुत फर्क है।मेरी समझ से तो एक बार नील से भी बात कर लेनी चाहिए।"-आनंद बाबू बोले।
"आनंद!वैसे तो मैं इस बात से पूरी।ण रुप से आश्वस्त हूं कि नील! मर्यादाओं की रक्षा करने वाला लड़का है।वह मेरी इच्छाओं के विपरित नहीं है।एक बोझ समझकर नहीं बल्कि दायित्व समझकर।उसके और मेरे वसुल एक हैं आनंद।खैर तुम्हारी तसल्ली के लिए उससे मैं अभी बात कर लेता हूं।"-यह कहकर
सर्वेश्वरदयाल नील को पुकार कर कहे-
"नील बेटा!इधर आना,मैं और आनंद तुमसे कुछ बात करना चाहते हैं।"
"हां पापा!क्या बात है?"-नील आनंद के पास आकर कहा।
"बेटा!मैं और आनंद चाहते हैं कि आनंद की बेटी नीलाक्षी की शादी तुमसे कर दी जाये। लेकिन इससे पहले तुम्हारी राय जानना चाहते हैं।"-सर्वेश्वरदयाल बोले।
"पापा!आप तो जानते ही हैं कि मेरी क्या राय होगी।अरे आप और अंकल जो निर्णय लेंगे वह ठीक ही लेंगे।मुझे ऐतराज़ क्या हो सकता है।आप लोग अच्छा ही सोचकर करेंगे।मुझे आप लोगों के निर्णय पर कोई ऐतराज नहीं होगा।"-यह कहकर नील अपने कमरे में चला गया।
नील की बात सुनकर सर्वेश्वरदयाल तथा आनंद स्वरूप के आनंद का पारावार नहीं रहा।वह अब जल्द से जल्द घर पहुंच कर यह शुभ समाचार अपनी पत्नी,अपने एकलौते पुत्र व पुत्र बधू तथा बेटी नीलाक्षी को दे देना चाहते थे। दिल्ली से इसी उद्देश्य से वह सर्वेश्वरदयाल के लाख रोकने के बाद भी नहीं रुके और चल दिए।
सुबह-सुबह ही आनंद स्वरूप के घर कोहराम मच गया।सुबह टेलीफोन की घंटी घनघना उठी। आनंद स्वरूप की पत्नी रुक्मिणी देवीके हैलो! कहते ही दुसरी ओर से आवाज आयी-
"क्या आप आनंद स्वरूप के घर से बोल रही हैं?"
"हां! क्या बात है?"-रुकमिण देवी धड़कते दिल से पूछीं।
"एक दुःखद समाचार है। आनंद स्वरूप के साथ जहर खुरानी की वारदात ट्रेन में हो गयी है।मैं जिला चिकित्सालय से बोल रहा हूं।अब वह नहीं रहे।आप लोग आकर लाश ले जायें।"-यह सुनकर रुक्मिणी देवी अचेत होकर गिर पड़ीं, रिसीवर हाथ से छूटकर लटक गया।
आनन फानन में आनंद स्वरूप की लाश घर आ गयी और उनका दाह संस्कार हुआ।आनंद स्वरूप के घर पर विपदा का पहाड़ टूट पड़ा। एकमात्र वही कमाऊं सदस्य थे।बेटा भी बेरोजगार था।उसकी शादी हो गयी थी।एक नाती था।नीलाक्षी की उदास आंखें इधर-उधर अपना भविष्य ढ़ूढ रही थी लेकिन मां की उदास आंखों में झांकते ही नीलाक्षी का कलेजा बाहर आ जाता था।खैर-धीरे समय बीतता गया। आनंद स्वरूप के लड़के चंदन की नौकरी आश्रित कोटे से आनंद स्वरूप के जगह पर लग गयी लेकिन नियुक्ति चंडीगढ़ के आफिस में हुई।मां को पारिवारिक पेंशन मिलने लगा।नीलाक्षी की पढ़ाई पहले ही पूर्ण हो चुकी थी सो वह यूजीसी-नेट की तैयारी करने में लगी थी। अब सभी लोग चंडीगढ़ में रहने लगे थे।समय की मार बहुत गहरी पड़ती है। आनंद बाबू के निधन के बाद स्थिति बिगड़ती गयी।बेटा नौकरी पा गया,उसके स्वभाव में परिवर्तन शुरू हो गया।एक तरफ पति का निधन दुसरी ओर जवान लड़की की शादी तीसरी ओर बेटे का बदलता स्वरूप तथा चौथी तरफ बहू शालिनी का कर्कश व्यवहार रुक्मिणी देवी को काट खाने लगा।वह बिमारी रहने लगीं। अचानक एक दिन रुक्मिणी देवी बाथरूम से आते समय सीढ़ी से नीचे गिर पड़ीं।तभी से दो दिन तक कोमा में चली गयीं। अंततः तीसरे दिन रुक्मिणी देवी के प्राण पखेरू उड़ गए। देखते-ही-देखते नीलाक्षी के सिर से छत तथा पैर से जमीन छिन गयी।नीलाक्षी उदास रहने लगी।उसका समय नहीं बीत रहा था।घर का सारा कामकाज करती थी। शालिनी बैठे-बैठे केवल हुकुम चलाती थी।नीलाक्षी यह नहीं हुआ,नीलाक्षी वह नहीं हुआ।नीलाक्षी बर्तन धोना है, कपड़े धोना है। कुक्कू को स्कूल छोड़ना है।घर का सारा कामकाज निपटाना तथा भतीजा कुक्कू को स्कूल छोड़ने का काम नीलाक्षी का ही है।अब न तो नीलाक्षी को सपने आते हैं और न ही मानव की याद ही आती ह क्योंकि उसके मस्तिष्क में दु:खों तथा दर्दों का जो सिलसिला घनीभूत हुआ है वह कुछ और आने ही नहीं देता है और सच यह है कि मानव भी नीलाक्षी की खोज खबर चाहे जिस कारण से नहीं ले रहा।
एक दिन कुक्कू के स्कूल के नोटिस बोर्ड पर अध्यापक के लिए जगह रिक्त होने की सूचना पढ़कर नीलाक्षी स्कूल में पढ़ाने के लिए आवेदन कर दी। इंटरव्यू के बाद नीलाक्षी का स्कूल में चयन हो गया। हालांकि इससे चंदन तथा शालिनी को कोई खुशी नहीं हुई लेकिन इतनी तसल्ली जरुर हुई कि इससे अब नीलाक्षी पर खर्च नहीं करना पड़ेगा तथा कुक्कू की फीस की भी व्यवस्था नीलाक्षी ही कर देगी।
अब नीलाक्षी रोज यथा संभव घर का कार्य निपटाकर स्कूल कुक्कू को लेकर जाती तथा वहां से वापस आने पर शेष बचे कार्यों को निपटाती। फिर भी शालिनी तथा चंदन का व्यवहार नीलाक्षी के प्रति पीड़ादायक ही बना रहा।अब घर पर नीलाक्षी की शादी की बात नहीं होती है।नीलाक्षी के सपनों में शहजादा भी नहीं आता है।एक भावशून्य भंगीमा लिए नीलाक्षी यंत्रवत स्कूल और घर के कार्य में दिन रात लगी रहती है।
सर्वेश्वरदयाल सेवा निवृत्त हो चुके हैं।नील अमेरिका में एम एस की पढ़ाई पूर्ण करने वाला है।अब सर्वेश्वरदयाल सोचते हैं कि नील की शादी कर देनी चाहिए।पता नहीं आनंद अब तक आया क्यों नहीं?कोई खबर भी नहीं दिया।वह कहां है इसका मुझे कोई खबर भी नहीं है।यही सब सोच रहे थे कि उनके दिमाग में पटेल का नाम कौंधा।तब क्यों न पटेल से ही पूछा जाय।यह सोचकर सर्वेश्वरदयाल ने पटेल को फोन लगाया।
"है लो!"-पटेल बोले।
"सर्वेश्वरदयाल बोल रहा हूं।"सर्वेश्वरदयाल ने कहा।
"नमस्कार! कैसे हैं?"-पटेल ने कहा।
"मैं ठीक हूं।आप कैसे हो?"-सर्वेश्वरदयाल पूछे।
इसके बाद वह आनंद स्वरूप से हुई नील और नीलाक्षी की शादी की बात करने लगे।पटेल से इस बात की खबर होते ही कि आनंद दो वर्ष पहले दिल्ली गये थे और वहीं से आते वक्त जहर खुरानी से उनकी मृत्यु हो गयी।उनकी पत्नी भी मर गयीं।आदि...आदि सुनकर सर्वेश्वरदयाल सदमे जैसी स्थिति में आ गये।वह पहले से ही दिल के मरीज थे।उनका रक्त चाप बढ़ गया।उन्हें सामान्य होने में आधे एक हफ्ते लग गये।
नील भी एम एस की पढ़ाई पूरी करके आ चुका था।उसकी नियुक्ति चंडीगढ़ के जिला चिकित्सालय में सर्जन के बतौर पर हो गयी है।
सर्वेश्वरदयाल नील की शादी कर देना चाह रहे हैं लेकिन उन्हें आनंद की बेटी का खयाल खाये जा रहा है। इसीलिए सर्वेश्वरदयाल ने नील से आनंद बाबू के साथ घटी सारी घटनाओं का जिक्र किया।नील ने कहा कि-
"पापा!अभी क्या जल्दी है?कुछ दिन और रुक जाइये।"
सर्वेश्वरदयाल सहमत हो गये।नील चंडीगढ़ जिला चिकित्सालय में बतौर सर्जन की नौकरी करने लगा।
कहते हैं कि समय का झण्डा बड़ा भारी पड़ता है।नीलाक्षी के उपर पड़ने वाला दु:खों का पहाड़ कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है।वह घर के सारे कामकाज करती है। स्कूल पढ़ाने जाती है। कुक्कू को पहुंचाती है ले आती है,उप्र से शालिनी की कर्कश आवाज,अभद्र व्यवहार, भाई का व्यवहारिक आचरण ,इन सब से जब ईश्वर का मन नहीं भरा तब एक और दु:ख का पहाड़ उसके उपर गिरा दिये।आज शालिनी सुबह से ही जली कटी सुना रही थी।नीलाक्षी भारी मन से घर का सारा काम निपटाकर जल्दी-जल्दी तैयार होकर कुक्कू को लेकर स्कूल जा रही थी। कुक्कू चंचलता में सड़क पार करने में लापरवाही कर बैठा उसे बचाने के चक्कर में नीलाक्षी कार के सामने आ गयी।ब्रेक लगाते लगाते कार नीलाक्षी से जा बीड़ी।नीलाक्षी के सिर तथा आंख में भारी चोट लगी। कुक्कू बच गया।आनन फानन में सड़क पर भीड़ जमा हो गयी।कार चालक भागने के बजाय कार से बाहर निकला नीलाक्षी को उठाया तथा कुक्कू को साथ लेकर चल दिया।
इधर शालिनी परेशान हैं।वह बेचैन हो कर घड़ी देख रही है।दो बज गये हैं कुक्कू नहीं आया जबकि एक ही बजे आ जाता है। जरुर कहीं नीलाक्षी उसे लेकर कहीं मटरगस्ती में चली गयी होगी।उसे कहां ध्यान है कि बच्चा भूखा होगा।आज आये तब कह दूंगी कि इधर-उधर जहां चाहो मुंह मारो, मटरगस्ती करो लेकिन कुक्कू को समय से घर छोड़ दिया करो।वह बच्चा है भूखा रहता है।उसे मत बिगाड़ो। शालिनी यही सब सोच रही थी कि टेलीफोन की घंटी बज उठी।
"हैलो!"-शालिनी बोली।
"हैलो!मैं चिकित्सालय से बोल रही हूं। क्या आप नीलाक्षी के घर से बोल रही हैं?"-बोलने वाली कहीं।
"हां! क्या है?"-शालिनी बोली।
"एक दु:खद समाचार है,नीलाक्षी की दुर्घटना हो गयी है।उसे भारी चोट आयी है।आप जिला अस्पताल आ जाइये।"-बोलने वाली बोली।
"और कुक्कू.....?"-शालिनी घबरायी हुई बोली।
"वह ठीक है,आप चली आइये"-बोलने वाली बोली।
शालिनी की घबराहट बढ़ गयी।वह जल्दी-जल्दी जिला चिकित्सालय पहुंची।
वहां पर कुक्कू को सही सलामत पाकर उसे चूमने चाटने लगी।उसके बाद वह दुर्घटना के बारे में जानकारी ली।नीलाक्षी को गंभीर चोट लगी थी।उसकी आंख में ज्यादा चोट लगी थी।चेहरा विभत्स हो गया था।वह बड़ी मुश्किल से बोल पा रही थी।नर्स ने ज्यादा बोलने से मना कर दिया। शालिनी कुछ देर तक अस्पताल में रहने के बाद घर आ गयी।
नीलाक्षी की दवा दारु हालांकि जिला चिकित्सालय से डां.दयाल के कारण उपलब्ध हो जा रही थी।डांट.दयाल की गाड़ी से ही नीलाक्षी को ठोकर लगी थी। इसीलिए डां.दयाल अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझ रहे थे।दवा भी उन्हीं की देखरेख में चल रही है।शुरु-शुरु में तो नीलाक्षी के भाई चंदन तथा भाभी शालिनी अस्पताल आकर देख जाती तथा कुछेक पैसों से कुछ दवाएं आदि खरीद जातीं लेकिन करने से ज्यादा कह जाती थी।एक दिन अस्पताल में नीलाक्षी के अगल बगल के बेड खाली थे।वार्ड लगभग सुनसान था।चंदन तथा शालिनी नीलाक्षी के पास बैठे बतिया रहे थे-
"नीलाक्षी!जानती हो, हमारी कमाई कितनी कम है उपर से तुम्हारी दवा का खर्च बड़ा मुश्किल हो रहा है।अब तो डाक्टर कहते हैं कि तुम्हारी आंख का आपरेशन करना पड़ेगा तब रोशनी आयेगी।अब भला इतना खर्च कहां से आयेगा?तुम तो जानती ही हो।"
यह सब बात डाक्टर दयाल सुन रहे थे। उन्होंने ने आकर कहा-
"आप लोग फ़िक्र न करें मैं हूं। आप लोग चलें।मरीज को आराम करने दें।"
पता नहीं क्यों यह सब सुनने के बाद डाक्टर दयाल असहज हो गये थे। उन्हें नीलाक्षी से सहानुभूति थी ही अब उससे लगाव भी हो गया।वह सोच रहे थे,लड़की है।आंख की रोशनी चली गयी।अगर नहीं ठीक हुई तब क्या होगा?खैर डाक्टर दयाल की देख रेखा में नीलाक्षी की दवा होने लगी। धीरे-धीरे वह दिन भी आगया जब नीलाक्षी के आंख का आपरेशन होना था। आपरेशन से पहले कन्सेंट फार्म भरना था।नीलाक्षी के घर वाले अब आना जाना बंद कर दिये थे। डाक्टर दयाल नीलाक्षी के पास स्वयं जाकर पूछने लगे-
"आपके पिता जी का क्या नाम है नीलाक्षी?"
"स्व.आनंद स्वरूप।"-नीलाक्षी बोली।
यह सुनकर डाक्टर दयाल चौंके। उन्हें लगा कि यह नाम जाना पहचाना है लेकिन इसपर ज्यादा ध्यान न देकर फिर पूछे-
"पता बताओ?"
"डाक्टर साहब कौन सा पता बताऊं?वह पता बताऊं जहां पर अब कोई है नहीं केवल मां बाप की निशानी घर है?या वह पंत बताऊं जहां पर मेरे भाई तो हैं लेकिन मैं उनकी कुछ नहीं?"-नीलाक्षी दु:खी होकर बोली।
"चिंता नहीं करते नीलाक्षी!तुम अपने मां बाप की निशानी वाला पता बताओ।"-डांक्टर दयाल ने कहा।
"मकान नं.1266 हजरतगंज लखनऊ।"-यह सुनकर डाक्टर दयाल पुनः चौंक पड़े।
अरे! आनंद अंकल भी तो लखनऊ के ही रहने वाले थे-डाक्टर दयाल के दिमाग में कौंधा।
"तो क्या तुम आनंद स्वरूप की बेटी हो?वहीं एफ सीआई में कार्य करते थे।"-डाक्टर दयाल ने पूछा।
"हां!वही। लेकिन आप उन्हें कैसे जानते हैं?"-नीलाक्षी पूछी।
"हां वो मेरे पिताजी के अच्छे मित्र थे।"-डाक्टर दयाल ने कहा।
"आपके पिताजी का क्या नाम है?"-नीलाक्षी पूछी।
"सर्वेश्वरदयाल "-डाक्टर दयाल ने कहा।
"वह तो दिल्ली में रहते हैं।"-नीलाक्षी बोली।
"हां मेरे पापा उन्हीं के पास गये थे किसी काम के लिए। वहां से आते समय रास्ते में जहर खुरानी में उनकी मौत हो गयी।"-कहकर नीलाक्षी सिसक उठी।
"नीलाक्षी!वह मेरे ही घर गये थे।मेरी शादी के लिए।मेरे पापा तो तैयार भी हो गये थे।मैंने भी सहमति दे दी थी। लेकिन इधर दो वर्ष हो गये उनका पता नहीं लगा।मैं भी अमेरिका चला गया। वहां से आया तब चंडीगढ़ में नियुक्ति हो गयी और उस दिन तुम्हारी दुर्घटना भी मेरी ही गाड़ी से हो गयी।मैं बहुशर्मिंदा हूं नीलाक्षी।यह सब आज मेरे कारण हो गया।"-कहकर डाक्टर दयाल पछताने लगे।
"लेकिन इसमें आपका क्या दोष है डाक्टर साहब!वह तो मैं ही बिना देखे दौड़ गयी थी।"-नीलाक्षी बोली।
"खैर जो होना था हो गया।अब तुम्हें घबराने की कोई बात नहीं।मैं हूं।तेरे आंखों की रोशनी वापसआयेगी।"-कहकर डाक्टर दयालआपरेशन थियेटर में चले गये।
लगभग एक घंटे आपरेशन के बाद नीलाक्षी आपरेशन थियेटर से बाहर निकली।अब डाक्टर दयाल रोज सुबह शाम के अलावा भी नीलाक्षी के पास आकर बैठते थे। बात चीत करते थे।
अब धीरे-धीरे नीलाक्षी का घाव भरने लगा।वह दिन भी आ गया जब नीलाक्षी के आंखों की पट्टी खुलनी थी और शालिनी को भी खबर कर दी गयी थी लेकिन शालिनी यह कह कर असमर्थता व्यक्त की कि आज कुक्कू के स्कूल में पैरेंट्स मीटिंग है।नीलाक्षी को डार्करुम में ले जाया गया।पट्टी खुलने लगी।जब अंतिम लेयर रह गया तब डाक्टर दयाल ने नीलाक्षी से कहा-
"नीलाक्षी!मैं तुम्हारे मां बाप से तो नहीं मिला सकता लेकिन उनकी प्रतिबिम्ब से तुम्हें मिला सकता हूं। क्या तुम उस प्रतिबिम्ब को देखना चाहोगी?"-डाक्टर दयाल ने नीलाक्षी से कहा।
यह सुनकर नीलाक्षी की आवाज भर्रा उठी।वह बोली -
"डाक्टर साहब ऐसा सौभाग्य कहां?"
"सौभाग्य है नीलाक्षी!"-डाक्टर दयाल बोले।
"अब तुम अपनी आंख धीरे-धीरे खोलो।"-डाक्टर दयाल ने नीलाक्षी के आंखों से पूरी पट्टी हटने के बाद कहा।
डार्करुम में धीरे-धीरे रोशनी होने लगी।नीलाक्षी धीरे-धीरे आंखें खोलने लगी तो सामने एक वृद्ध दम्पत्ति को खड़ा पायी।उनके साथ ही डाक्टर दयाल भी खड़े थे।नीलाक्षी उन्हें अपरिचित हतप्रभ नेत्रों से देखने लगी तथा पहचानने का प्रयास करने लगी। लेकिन असफल रही।
"जानती है इन्हें?"-डाक्टर दयाल ने पूछा।
"नहीं की मुद्रा में नीलाक्षी ने सिर हिलाया।
"ये हैं मेरे पिताजी!श्री सर्वेश्वरदयाल तथा माता श्रीमती जान्हवी दयाल। तुम्हारे पिता जी के अच्छे मित्र।"-डाक्टर दयाल ने नीलाक्षी से कहा।
इतने में श्रीमती जान्हवी दयाल नीलाक्षी के बेड के पास आकर उसे पकड़कर बैठ गयीं।
"बेटी! चिंता मत करो।अब हम हैं तुम्हारे मां बाप। आनंद भाई साहब बड़े अच्छे थे।वो हमलोगों के पास से गये लेकिन हमलोगों को कुछ भी पता नहीं चला।"-कहकर जान्हवी दयाल नीलाक्षी को पुचकारने लगीं।तब तक सर्वेश्वरदयाल भी नीलाक्षी के पास आकर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले-
"बेटी!अब चिंता की कोई बात नहीं।मुझे सारी बातें नील ने बता दी है।मैं आनंद से वादा किया था कि नीलाक्षी को बहू बनाऊंगा,उसे मैं आज ही पूरा करुंगा।तुम अब हमारे साथ चलोगी।बेटा नील! क्या अब नीलाक्षी अस्पताल से जा सकती है?"-सर्वेश्वरदयाल यह सब कहने के बाद डाक्टर दयाल से पूछे।
"हां पापा!अब कोई बात नहीं है।"
यह सारी घटनाएं नीलाक्षी के सामने नाटकीय ढंग से घटती जा रही थी।नीलाक्षी को विश्वास नहीं हो रहा था।वह समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या कहे।क्या करें।वह किंकर्तव्यविमूढ़ "सबकी बातें सुनती जा रही थी।उसके आंखों से आंसू टपक रहे थे।
"रोते नहीं बेटी!सब ईश्वर करता है।"-नीलाक्षी के आंसू को पोंछती हुई श्रीमती दयाल नीलाक्षी को सांत्वना दीं।
"देखो नीलाक्षी बेटी!हम कोई एहसान नहीं कर रहे हैं।हम अपने दोस्त आनंद स्वरूप के साथ किये गये वादे को निभा रहे हैं।यही मेरे मित्र आनंद की ईच्छा भी थी।इसमें कोई जोर जबरदस्ती भी नहीं है।नील तुमसे अब भी शादी करना चाहता है।"
"चलो बेटी!अपने घर चलो।हम चंदन तथा शालिनी को तुम्हारी शादी की तारीख की सूचना दे देंगे।"-कहकर सर्वेश्वरदयाल नीलाक्षी, डाक्टर नील दयाल तथा श्रीमती दयाल के साथ घर को चल दिये।
नीलाक्षी को अपने आप पर विश्वास नहीं हो रहा था।उसके साथ समय का
खिलवाड़ तथा फिर समय का यह
बदलाव सब कुछ बड़ा ही अजीब लग रहा था।
आज सर्वेश्वरदयाल के घर पर चहल पहल है।घर खूब सजाया गया है।बड़े पण्डाल की खूबसूरत सजावट हुई है।आज डाक्टर दयाल (डाक्टर नील दयाल)की शादी नीलाक्षी से हो रही है।नीलाक्षी के भाई चंदन तथा शालिनी भी आये हुए हैं। पूरे विधि-विधान से नीलाक्षी की शादी नील से संपन्न हुई।चंदन तथा शालिनी कन्यादान किये। धीरे-धीरे आगंतुक मेहमान शुभकामनाएं देकर जाने लगे। डाक्टर नील भी अपने खास मित्रों से मिलते तथा नीलाक्षी से मिलाते थे।तभी अचानक डाक्टर नील ने नीलाक्षी से कहा-
"नीलाक्षी!देखो ये हैं मेरे बिल्कुल नये मित्र।इनसे मिलों।"
"जैसे ही नीलाक्षी उस मित्र के सामने मुखातिब हुई वह देखकर चौंक पड़ी।
उसके सामने मानव अपनी पत्नी के साथ खड़ा था।"
नीलाक्षी हतप्रभ रह गयी।साथ ही मानव भी।नील अन्य दोस्तों से मिलने में व्यस्त हो गये।
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
अशोकनगर बशारतपुर
गोरखपुर।
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(चित्र:साभार)