कल्लुआ
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
"अबे कल्लुआ"
"लम्बू कहां है?
"हउ का उहां बैठल हैं।"-छर्री ड्राइवर के पूछने पर उसका सहायक जवाब दिया।
"ऊहां का करत बा बे"
"लुक्का लेते हैं,और का"-कल्लुआ के जवाब देने पर छर्री ड्राइवर सहित बस में बैठे यात्री जो सुन रहे थे हंस पड़े।
"भले!दो पुकार ले आ और हां लम्बू को बुला चला जाय।"-छर्री ने कल्लुआ को 'पुकार '(खैनी का एक गुटका) के लिए पैसा देते हुए कहा।
बस यात्रियों से खचाखच भर चुकी थी।ठंडक के महिने में सर्द हवाएं चल रही थीं।लोग जड़ावर पहने किकुरे हुए बस में बैठे थे। ड्राइवर की सीट के पीछे वाली सीट पर एक महिला अपने चार वर्षीय बालक को बार-बार खिड़की बंद करने के लिए डांट रही थी लेकिन बालक था कि शरारत से बाज ही नहीं आ रहा था। बार-बार खिड़की खोलकर बाहर झांक रहा था।
कल्लुआ! सिर्फ नाम का कल्लु था।उसका शरीर गोरा तथा सुन्दर था।उम्र यही कोई12या13 वर्ष की होगी।अभी तो उसके भी खेलने खाने के दिन हैं लेकिन गरीबी क्या नहीं करा देती है।इस नन्हीं सी उम्र में ही उसके उपर परिवार पालन की जिम्मेदारी आन पड़ी है। इसीलिए तो उसके मां बाप ने चाहते हुए भीअपने नन्हें से पौधे को सामाजिक थपेड़ों के झोंकों के हवाले कर दिया।इस तेज ठंडक में भी कल्लुआ मात्र एक बुशर्ट और पैंट पहने है।ऐसा नहीं कि उसे ठंडक नहीं लग रही है।ठंडक उसे भी लग रही है। लेकिन पेट में जल रही आग के कारण शायद उसे इस ठंडक का आभास कम लग रहा है अथवा कम महसूस हो रहा है।
बस में बैठी उस महिला के4वर्षीय बच्चे की शरारत कल्लुआ को बरबस अपने तरफ आकर्षित कर लेती है।वह अपनी दिनचर्या तथा व्यस्तता में से भी समय निकालकर उसी बालक की शरारतों को देख लें रहा है। मुस्कुरा रहा है।उसकी आंखें उसे देखकर मानों कह रही हैं कि मैं भी खेलूंगा।मैं भी ऐसी ही शरारत करता था।उसे शायद अपने पिछले दिनों के बीते दृष्य़ दिखाई दे रहे हैं।मां से किसी चीज के लिए जिद करना,उछल कूद करना
डांट ख़ाना,रोना, हंसना,गाना, दौड़ना सब कुछ उसकी आंखों के सामने से गुजर जाता है एक बारगी चलचित्र की तरह।
"गोली लोगे?"-अचानक पान की दुकान से छर्री ड्राइवर के लिए पुकार (गुटका) छर्री ड्राइवर को देकर बस के दरवाजे पर खड़ा हो गया। ड्राइवर ने बस स्टार्ट कर दी थी। कल्लुआ!रोक के....चला.... मेडिकल... मेडिकल...बायें लगा के...सवारी आ रही है...आदि कहता हुआ अपनी ड्यूटी पर लग गया। थोड़ी ही देर में बस फर्राटा भरने लगी।इतने में कल्लुआ जेब में हाथ डालकर ढ़ेर सारी शीशे की गोलियां उक्त महिला के चार वर्षीय बालक की ओर थमाते हुए बोला -
"लो!खेलो।"
यह कहते समय कल्लुआ के आंखों में अजीब चमक थी।एक तड़प भी थी शायद अपने अधूरे बचपन की।वह असमय ही जवान हो गया था।बोझ उठा सकने वाला जवान।असमय ही उस नन्हे से पौधे से फूल फल की फरमाइश होने लगी थी। कल्लुआ 12-13वर्ष का नन्हा बच्चा से पूर्ण वयस्क परिवार पालक बन गया था असमय ही।उक्त महिला के चार वर्षीय बच्चे को शीशे की गोलियां देते समय ऐसा लग रहा था जैसे वह अपना बचपन हस्तानांतरित कर रहा था।
बस चौराहे पर आ चुकी थी। यात्री चढ़ उतर रहे थे।लम्बू कण्डक्टर पैसे वसुल रहा था। कल्लुआ इस तेज की ठंडक में भी कलेजे को चीर कर उतर जाने वाली ठंड हवाओं से बेखबर बस के पायदान पर खड़ा-"मेडिकल...मेडिकल...
ऐ बच के....बांये से...रोकके...चलो......ऐ रिक्शा... किनारे...हट.. आदि कहते हुए कल्लुआ बस पर अपनी ड्यूटी निभा रहा है।बस चली जा रही है।सरकारके
खोखले, समाज कल्याण,बाल श्रम विरोधी कानूनों,पुनर्वास की योजनाओं,
साक्षरता तथा प्राथमिक शिक्षा मिशन,
गरीबी उन्मूलन जैसी अनेक योजनाओं के नारों की धज्जियां बिखेरती हुई।
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
अशोक नगर बशारतपुर
गोरखपुर।
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