उस दिन
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
आज मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था। आफिस में भी कोई खास काम नहीं था।"खाली दिमाग शैतान का घर सोचकर" मैं अखबार पढ़ने की चेष्टा कर रहा था लेकिन पता नहीं क्यों आज तृप्ति की याद आ रही है।उसका मासूम सा चेहरा, खिलखिलाती हंसी मेरा ध्यान बराबर उसकी तरफ मोड़ दे रहा था। उसके साथ गुजरा एक-एक पल मेरे मानस पटल पर घूमते चलचित्र की भांति घूमने लगा था।"सचमुच कितना ध्यान देती है मेरा"-मैं मन ही मन बड़बड़ा उठा था।
इधर काफी दिनों से उसका फोन नहीं आ रहा था।ऐसा नहीं कि वह फोन बहुत कम करती है बल्कि इसके विपरित वह अक्सर मेरे पास फोन करती रहती है।
"तो फिर कहीं उस दिन वाली घटना से वह नाराज तो नहीं है।"-मैं मन ही मन सोचने लगा।
"नहीं ऐसा तो नहीं होना चाहिए। क्योंकि उस दिन की घटना तो मुझे आहत की थी।उसे नहीं।"-मैं अपने मन में ही बुदबुदाया।
"लेकिन मेरा बिना कुछ कहे वहां से चले आना कहीं यही बात तो उसे नहीं न मर्माहत कर दी"-हलांकि ऐसा तो नहीं होना चाहिए।मैने अपने मन को तसल्ली दी।
ऐसा तो नहीं कि-"जब मैं कहां कि तृप्ति तुम्हें कहीं जाना हो तो जाओ। कोई बंधन मत महसूस करो"इसी बात को लेकर वह रुष्ट है।"-फइर मेरा शंकालु मन प्रश्न किया।
"अगर ऐसा है भी तो कौन सा गलत कह दिया था मैं?उसने भी तो उस दिन कोई ध्यान नहीं दिया था मेरी तरफ।हर बार तो ऐसा नहीं होता था।इस बार ऐसा क्यों हुआ?"-मएरआ दिमाग स्वयं के प्रश्न में उलझा रहा।
"उसने अगर एकबार थोड़ा कम ध्यान दी तो इसमें नाराज़गी की क्या बात हो गयी?यह क्यों भूल गये कि वही तृप्ति तेरे पहुंचने की सूचना पाकर कितनी खुश होती थीं।इस बार तो वहीं कह रही थी कि
अगर आज भी आप नहीं आते तब लोग मुझे चिढ़ा कर रख देते।मैं कल से ही रास्ता देख रही हूं।-तृप्ति कही थी।"-मेरा मन मुझसे कहा।
"हां भई! मैं यह जानना हूं कि वह मुझे बहुत मानती है।मेरा सानिध्य पाने की लालसा उसमें रहती है।मेरे प्रति वह समर्पित है लेकिन यह भी सच है कि उस दिन उसने न सिर्फ मुझे नजरअंदाज की बल्कि उसके लिए मुझसे ज्यादा महत्वपूर्ण कलाधर रहा।तभी तो जब देखो तब वह उसी के साथ उसी के काम में व्यस्त रही।और तो और उस दिन मेरे आने के वक्त कलाधर का व्यंग्य मुझे अपमानित करने वाली भाषाओं से वह मुकदर्शक बनी सुनती रही। आखिर क्यों?"-मैंने पुनः अपने मन में उठ रहे उद्गार को स्वयं से व्यक्त किया।
"उससे नादानी भी तो हो सकती है।"-मेरा मन मुझ समझाया।
"मैं कहां कह रहा हूं कि वह सोच समझकर, जानबूझ कर यह सब होने दी।मैं यह जानना चाहता हूं कि उस दिन की घटना अचानक अकस्मात हो गयी।मैं यह भी जानना चाहता हूं कि इसका तृप्ति को मेरे आने के बाद दुःख भी हुआ होगा?"वह कलाधर तथा अन्य के साथ उस दिन की घटना पर चर्चा जरूर की होगी।सम्भव है कि दुःखी हुई होगी।झेंपी होगी।"-मैं स्वयं को उत्तर दिया।
"यह सब कुछ जानते हुए भी उस दिन फोन पर यह संदेश पाकर भी तृप्ति तुम्हें बात करना चाह रही है,उसे क्यों नहीं बुलाये?"-मेरी आत्मा मुझसे पुनः प्रश्न कर बैठी।
"क्योंकि मेरे मन में इस बात का ग़ुस्सा था कि उस दिन की घटना की जिम्मेदार वह स्वयं रही।मैंने उसे कुछ कहा भी नहीं फिर भी वह उल्टे नाराज हैं। अक्सर फोन करने वाली इतने दिनों तक फोन नहीं की। आखिर क्यों? क्या कारण रहा?मेरा कौन सा दोष है?मैं सोचा कि मैं बात नहीं करुंगा।देखता हूं कि कब तक नहीं बात करती है?अगर वह बिना कारण नाराज हैं तो मैं तो किसी कारण से नाराज़ हूं।वह भी नाराज़ नहीं बल्कि दुःखी हूं। दुःख भी नहीं बल्कि झेंपा हूं।"-मैंने अपनी आत्मा से अपनी व्यथा व्यक्त की।
"ऐसा करके क्या तुम जोड़ सकोगे उसे?"-मेरा मन पुनः मुझे टोका।
"अरे बाबा! मैं छोड़ कहां रहा हूं।मैं तो चिंतित हूं उसके उस दिन के व्यवहार पर।ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूं कि अभी भोली है।ईश्वर इसकी रक्षा करें।इसी द्वारा गुनगुनाए यह गीत आज भी मेरा ध्यान आकृष्ट करते रहते हैं"-
"दुनिया में ऐसा कहां अपना नसीब है
कोई-कोई अपने पिया के करीब है"...
मैं उसके नसीब में दखल नहीं दे सकता लेकिन उसको संवारने की चेष्टा जरूर करता हूं ताकि उसका नसीब सुगंधित होकर महकता रहे।"-मैंने अपने मन से कहा।
पंखे की हवा से अखबार टेबल पर इधर-उधर कब पसर गया पता ही नहीं चला।अब सिर में वैक्यूम सा बन गया था।मैं आंख की पलकों को उप्र खिंचकर आंख फाड़कर स्वयं के भौंह को देखने की चेष्टा रहने लगा।दोनों हाथों के अंगूठों को कनपटी पर लगाकर उन्हें जोर से दबाया और कुर्सी के पीठ वाले हिस्से पर सिर टिकाकर छत देखने लगा।दुःख रहे सिर को कुछ आराम मिला।मैं भाव और विवेक शून्य हो अब घूम रहे पंखे की उन पत्तियों को देखने लगा जो कि पंखे की गति के साथ गतिमान होकर अपनी वास्तविकता से विरत हो गयी थीं कम से कम गतिमान रहने तक।
"ट्रिन...ट्रिन..ट्रिन..ट्रिन..ट्रिन..."सहसा टेलीफोन की घंटी मेरा ध्यान तोड़ दी।मैं अपने आपको संयत और ठीक करते हुए टेलीफोन उठाया।
"... हैलो!"-मैंने पूछा।
"हैलो!...।"-उधर से तृप्ति की आवाज सुनाई दी।
"हैलो! तृप्ति!...।"-मैंने कहा।
"हां! नमस्ते!"-उसने फोन पर ही अभिवादन किया।
इसके बाद शुरू हो गयी उस दिन की घटना पर वाद विवाद तर्क कुतर्क।
"आप उस दिन वाली घटना से नाराज़ हैं?"-वह पूछी।
"नहीं तो"-मैंने संक्षिप्त जवाब दिया।
"नहीं आप नाराज़ हैं।तभी तो आप फोन तक नहीं कर रहे।उस दिन मेरा संदेश पाने पर भी मुझसे बात नहीं करना चाहे।"-तृप्ति उलाहना भरे शब्दों में बोली।
"ऐसा नहीं है।तुम जानती हो कि मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं।मैं तुम्हारे उपर नाराज क्यों होउंगा?हां रही बात उस दिन की तो मुझे झेंप जरुर लगी थी।"-मैं अपना बचाव करते हुए कहा।
"मैं अपनी ग़लती मानती हूं।मुझे कलाधर के साथ इतना नहीं घुलना चाहिए लेकिन उस दिन कलाधर अपना व्यक्तिगत बात करना चाहता था इसलिए वह चाहता था कि......।"-कहकर वह रुक गयी।
" जो भी हो, लेकिन एक सीमा रेखा तो होनी ही चाहिए।एक गरिमा होती है।इसका ध्यान रखना चाहिए।"-मैंने तृप्ति से कहा।
"एक बात पर आप और नाराज होंगे "-वह बोली।
"किस बात पर?"-मैं पूछा।
"उस दिन कलाधर जो कह रहा था"-वह बोली।
"हां यह सच है लेकिन इसपर मैं नाराज़ नहीं हुआ बल्कि बहुत ज्यादा झेंप गया था।"-मैं उससे कहा।
"मुझसे कुछ गलतियां हुई हैं।जिसका मुझे ष्ट है।यह सब अनजाने व अनचाहे में हुई है।मैं आपको दुःख नहीं पहुंचाना चाहती।मेरी ग़लती को माफ कर दीजिए।"-न्त में वह भर्राई आवाज में बोली।
"पगली!मैं तुमसे नाराज़ हो सकता हूं। ऐसा तुम सोची ही क्यों?इस तरह की बात कभी मत सोचना।"-उसने मैं तसल्ली देने लगा।
"ठीक है।अब फोन रखती हूं। प्रणाम।ग़लती को माफ करियेगा।"-कहकर तृप्ति फोन रख दी।
मैं पुनः तृप्ति में खो गया। इस बार फोन पर उसकी खिलखिलाती हंसी नहीं सुनाई दी।इस बार फोन पर वह स्वयं फोन रखने को ही, जबकि इसके पहलेऐसा नहीं होता था।पहले तो फोन मैं ही काटता था।तो क्या वह मर्माहत है?या खिसीयायी हुई है?यह बात मेरे दिमाग में उमड़ती घुमड़ती रही। रात भर मैं करवटें बदलता रहा। सोचता रहा कि फोन पर इस बार तृप्ति की खिलखिलाहट क्यों गायब थी?वह फोन मुझसे पहले क्यों काट दी?इसका कारण मैं मुन्नी से जानना चाहा तब वह कहीं-
"अरे वह पछता रही होगी। ग़लती महसूस कर रही होगी।"
लेकिन मैं संतुष्ट नहीं हो सका।अंतर्मन का क्लेश व्यथित करता रहा।
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
(चित्र:साभार)