छाया
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© ओंकार नाथ त्रिपाठी
भादों के दिनों में इतनी तेज गर्मी तथा उमस ने जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया।पूरा देश सूखे की चपेट में हैं फिर भी जीने के लिए काम धंधा तो करना ही होगा।इतनी भीषण गर्मी तथा उमस के बाद भी सड़कों पर आवाजाही पूर्ववत बना हुआ है।इसी दौरान तीन चार लड़कियां उम्र यही कोई बारह से सोलह वर्ष के बीच,मैली कुचैली गंदी फ्रांक व कच्छी पहने पीठ पर लंम्बाई के बराबर ही प्लास्टिक वाले बोरे का झोला लटकाये पालीथीन बीनती बातें करती चली जा रही हैं।फ्रांक में बटन न होने के कारण कुछ की पीठ नग्न है।देखते ही देखते वो सब सामने सड़क के किनारे पेड़ की छाया में बैठकर सुस्ताने लगती हैं।बगल में ही कबाड़ी की कबाड़ कार खड़ी है।
"ऐ! क्या कर रही हो तुम सब?"
-इंजीनियर साहब का घूमंतु लड़का मोटर साइकिल रोक कर कड़कड़ाती आवाज में पेड़ के नीचे बैठी लड़कियों से पूछा।
"छहांत त हंई।"-एक बोली।
"सुस्तात हंई और का"-दुसरी लड़की बोली।
"यही जगह मिली है?भागो यहां से"
-इंजीनियर साहब का घूमंतु लड़का रोब में कड़क कर बोला।
वो सब उठीं झोला कांधे पर डालीं और चल दीं।
मैं सोचने लगा-"किस तरह से कब्जा कर लिया है मुट्ठी भर लोगों ने दुसरों की भी सम्पत्ति पर।शायद ऐसा ही कुछ सोच रहा था सड़क के किनारे खड़ा वह पेड़।
-"छाया मेरी।अधिकार कोई और जताये।कैसी बिडंबना है।"
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ओंकार नाथ त्रिपाठी, अशोक नगर
बशारतपुर, गोरखपुर उप्र।
(चित्र:साभार)