1946 से लेकर 1949 तक जब भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया जा रहा था, उस दौरान भारत और भारत से जुड़े तमाम मुद्दों को लेकर संविधान सभा में लंबी लंबी बहस और चर्चा होती थी. इसका मकसद था कि जब संविधान को अमली जामा पहनाया जाए तो किसी भी वर्ग को यह न लगे कि उससे संबंधित मुद्दे की अनदेखी हुई है. वैसे तो लगभग सभी विषय बहस-मुबाहिस से होकर गुजरते थे लेकिन सबसे विवादित विषय रहा भाषा – संविधान को किस भाषा में लिखा जाए, सदन में कौन सी भाषा को अपनाया जाए, किस भाषा को ‘राष्ट्रीय भाषा’ का दर्जा दिया जाए, इसे लेकर किसी एक राय पर पहुंचना लगभग नामुमकिन सा रहा.
पहले पहल महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू समेत कई सदस्य हिन्दुस्तानी (हिन्दी और उर्दू का मिश्रण) भाषा के पक्ष में दिखे. 1937 में ही नेहरू ने अपनी राय रखते हुए कहा था कि भारत भर में आधिकारिक रूप से संपर्क स्थापित करने के लिए एक भाषा का होना जरूरी है और हिन्दुस्तानी से अच्छा क्या हो सकता है. वहीं गांधी ने भी कहा था कि अंग्रेजी से बेहतर होगा कि हिन्दुस्तानी को भारत की राष्टीय भाषा बनाया जाए क्योंकि यह हिंदु और मुसलमान, उत्तर और दक्षिण को जोड़ती है. लेकिन विभाजन ने कई सदस्यों के मन में इतनी चिढ़ और गुस्सा भर दिया कि हिन्दुस्तानी की मांग पीछे होती चली गई और शुद्ध हिन्दी (संस्कृतनिष्ठ) के पक्षधर भारी पड़ते नज़र आए. इधर दक्षिण भारतीय सदस्य तो हिन्दुस्तानी और हिन्दी दोनों के ही खिलाफ नज़र आए. जब कभी कोई सदस्य अपनी बात हिन्दी या हिन्दुस्तानी में बोलता था तो कोई दक्षिण भारतीय सदस्य इसके अनुवाद की मांग करने लगता था.
इतिहासविद् रामचंद्र गुहा की किताब ‘इंडिया ऑफ्टर गांधी’ में इस विवादित विषय पर रोशनी डाली गई है. एक सदस्य आरवी धुलेकर का जिक्र करते हुए लिखा गया है – जब धुलेकर ने हिन्दुस्तानी में अपनी बात कहनी शुरू की तो अध्यक्ष ने उन्हें टोकते हुए कहा कि सभा में मौजूद कई लोगों को हिन्दी नहीं आती है और इसलिए वह उनकी बात समझ नहीं पा रहे हैं. इस पर धुलेकर ने तिलमिलाते हुए कहा कि 'जिन्हें हिन्दुस्तानी नहीं आती, उन्हें इस देश में रहने का हक नहीं है.'
उधर मद्रास के प्रतिनिधित्व टीटी कृष्णामचारी ने बड़ी ही साफगोई से कहा ‘मुझे अंग्रेजी पसंद नहीं क्योंकि इसकी वजह से मुझे जबरदस्ती शेक्सपीयर और मिल्टन को सीखना पड़ा जिनमें मुझे तनिक भी रुचि नहीं थी. अब अगर हमें हिन्दी सीखने के लिए मजबूर किया जाएगा तो इस उम्र में यह करना मेरे लिए मुश्किल होगा. साथ ही इस तरह की असहिष्णुता हमारे अंदर इस बात का डर भी पैदा कर देगी कि एक मजबूत केंद्र सरकार का मतलब उन लोगों को गुलाम बनाना भी है जो केंद्र की भाषा नहीं बोल सकते. सर...मैं दक्षिण भारतीयों की ओर से यह चेतावनी देना चाहूंगा कि पहले से ही दक्षिण भारत में ऐसे तत्व हैं जो वहां बंटवारा चाहतें है, ऊपर से मेरे यूपी के दोस्त ‘हिन्दी साम्राज्यवाद’ फैलाकर हमारी समस्या को बढ़ाने का ही काम करेंगे. तो मेरे यूपी के दोस्त यह तय कर लें कि उन्हें ‘अखंड भारत’ चाहिए या ‘हिन्दी-भारत’...’
कड़ी बहस के बाद संविधान सभा इस समझौते पर पहुंची कि ‘भारत की राजभाषा हिन्दी (देवनागरी लिपि) होगी लेकिन संविधान लागू होने के 15 साल तक यानि 1965 तक सभी सरकार कामकाज (अदालत और तमाम अन्य सेवाएं) अंग्रेजी में ही किया जाएगा.' हालांकि संविधान सभा में लिया गया यह फैसला 15 साल बाद कुछ और ही रंग लाया.
1963 में नेहरू ने राजभाषा अधिनियम को दिशा देने का काम किया जिसके तहत उन्होंने इस बात की तरफ इशारा किया कि 1965 से आधिकारिक रूप से सभी तरह का संचार हिन्दी में किया जाएगा और अंग्रेजी को एक सहायक भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जा ‘सकता’ है. नेहरू के इस संकेत ने हिन्दी विरोधियों के कान खड़े कर दिए. उन्हें इस 'सकता' है में इस शंका का संकेत मिला कि हो सकता है कि केंद्र के द्वारा गैर हिन्दी भाषियों पर हिन्दी 'थोपी' जाए, अंग्रेजी का सफाया हो जाए और यही नहीं हिन्दी को राजभाषा के साथ साथ राष्ट्रभाषा का दर्जा भी दे दिया जाए.
26 जनवरी 1965 को तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हिन्दी को राजभाषा घोषित करने का फैसला कर लिया था लेकिन उससे पहले ही दक्षिण भारतीय राजनीति क पार्टी डीएमके ने इस फैसले के खिलाफ तमिलनाडु में विरोध प्रदर्शन की घोषणा कर दी. मदुरै से लेकर कोयमबटूर और मद्रास से लेकर छोटे छोटे गांव में हिन्दी की किताबों को जलाया गया, यहां तक कि कुछ मामले ऐसे भी आए जिसमें तमिल भाषा के लिए लोगों ने जान तक दे दी.
इतने विरोध के बाद जाहिर है कांग्रेस अपने फैसले पर नरम पड़ती नज़र आई और शास्त्री ने ऑल इंडिया रेडियो पर राष्ट्र के नाम संदेश में साफ किया कि अंग्रेजी का इस्तेमाल तब तक किया जा सकता है जब तक जनता चाहे. साथ ही उन्होंने गैर हिन्दी भाषियों के डर को दूर करते हुए आश्वासन दिया कि हर राज्य यह खुद तय कर सकता है कि वह किस भाषा में सरकारी कामकाज या संचार करना चाहता है, वह क्षेत्रीय भाषा भी हो सकती है या अंग्रेजी भी. साथ ही केंद्रीय स्तर पर हिन्दी के साथ साथ अंग्रेजी भी प्रमुख तौर पर कामकाज और संचार की भाषा होगी.
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री
इतने कड़े विरोध के बाद हिन्दी को भारत की राजभाषा का दर्जा तो मिल गया लेकिन 'राष्ट्रीय भाषा' का दर्जा मिलते मिलते रह गया. यह बात अलग है कि कई स्कूली किताबों में हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बता दिया जाता है जो कि तथ्यात्मक रूप से गलत है क्योंकि भारत की कोई राष्ट्रीय भाषा है ही नहीं. भारतीय संविधान में किसी को भी राष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त नहीं है. राजभाषा विभाग द्वारा यह साफ किया गया है कि हिन्दी के साथ ही साथ अंग्रेजी को भी संसद और केंद्र में कामकाज के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. इसके अलावा राज्यों को विधायिका के तहत अपनी भाषा खुद तय करने का अधिकार है जिसके फलस्वरूप भारत में 22 भाषाओंको आधिकारिक दर्जा मिला हुआ है जिसमें अंग्रेजी और हिन्दी भी शामिल है. अलग अलग मौकों पर अदालत द्वारा यह साफ किया गया है कि इन सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा हासिल है और कोई भी भाषा किसी से भी कम या ज्यादा नहीं है.
गुहा की लिखी किताब में एक और दिलचस्प किस्सा है. रेडियो पर लाल बहादुर शास्त्री की इस अहम घोषणा के बाद एक बार फिर जब यह मामला संसद में उठा तो एंग्लो भारतीय सदस्य फ्रैंक एंथनी ने अंग्रेजी को स्वीकार नहीं करने की हिन्दी भाषियों की 'असहिष्णुता' पर चिंता जताई. इसके जवाब में जे बी कृपलानी ने मजाकिया अंदाज में कहा कि फ्रैंक को भारत में अपनी भाषा (अंग्रेजी) के खत्म होने की चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि ‘अब तो हमारे बच्चे भी अम्मा-अप्पा नहीं मम्मी पापा बोलने लगे हैं. यहां तक की हम अपने कुत्तों से भी अंग्रेजी में ही बात करते हैं.’ अपने पैर जमा चुकी अंग्रेजी पर कृपलानी ने तंज कसते हुए एंथनी को ‘विश्वास’ दिलाया कि इंग्लैंड से अंग्रेजी गायब हो सकती है लेकिन भारत से कभी नहीं...