आठवाँ बाब-देखो तो दिलफ़रेबिये अंदाज़े नक्श़ पा
मौजे ख़ुराम यार भी क्या गुल कतर गयी।
बेचारी पूर्णा ने कान पकड़े कि अब मन्दिर कभी न जाऊँगी। ऐसे मन्दिरों पर इन्दर का बज़ भी गिरता। उस दिन से वो सारे दिन घर ही पर बैठी रहती। वक्त़ कटना पहाड़ हो जाता। न किसी के यहाँ आना न जाना। किसी से रब्त-जब्त, न कोई काम न धंधा। दिन कटे तो क्यूँ कर? पढ़े तो ज़रुर, मगर पढ़े क्या? दो-चार किस्से-कहानियाँ की किताबें पंडित जी के ज़माने की पड़ी हुई थीं मगर उनमें अब जी नहीं जगता था। बाज़ार जानेवाला कोई न था जिससे किताबें मंगवाती। ख़ुद जाते हुए उसकी रुह फ़ना होती थी। बिल्लो इस काम की न था। और सौदा-सुलफ़ तो वो बाज़ार से लाती मगर ग़रीब किताबों का मोल क्या जाने? दो-एक बार जी मे आया कि कोई किताब प्रेमा के घर से मँगवाऊँ मगर फिर कुछ समझकर खामोश हो रही। गुल-बूटे बनाने असके आते ही न थे। सीना जानती थी मगर सिये क्या?ये रोज़ बेशग़ली उसको बहुत खलती थी और हरदम उसको मुतफ़क्किर-ओ-मग़मूम रखती थी। ज़िन्दगी का चश्मा ख़ामोशी के साथ बहता चला जाता था। हाँ, कभी-पंडाइन व चौबाइन मय अपने चेले-चपाड़ों के आकर कुछ सिखावन की बातें सुनाती जाती थी। अब उनको पूर्णा से कोई शिकायत बाक़ी न रह गयी थी, बजुज इसके कि बाबू अमृतराय क्यूँ आया करते हैं। पूर्णा ने भी खुल्लम-खुल्ला कहा दिया था कि मैं उनको ओन से रोक नहीं सकती। और न कोई ऐसा बर्ताव कर सकती हूँ जिससे उनको मालूम हो कि मेरा इसको नागवार मालूम होता है। सच तो यह है कि पूर्णा को अब इन मुलाक़ातों में मज़ा आने लगा था। हफ्ते-भर किसी हमदर्द की सूरत नज़र न आती। किसी से हँसकर बोलने को जी तरस जात। पस, जब इतवार आता तो सुबह हीसे अमृतराय के ख़ैर मक़दम की तैयारियाँ होने लगतीं। बिल्लो बड़ी तंदिही से सारा मकान साफ़ करती, दरवाज़े के मक़बिल का सेहन भी साफ़ किया जाता। कमरे कुर्सियाँ, तसीवीरें बहुत क़रीने से आरास्ता की जाता। हफ्ते भर का जमा हुआ गर्दो-गुबार दूर किया जाता। पूर्णा ख़ुद भी मामूल से अच्छे और साफ़ कपड़े पहनती। हाँ, सर में तेल डालते या आइना—कंघी करती हुए वो डरती थी। जब बाबू अमृतराय आ जाते तो नहीं मालूम क्यूँ पूर्णा का मद्धम चेहरा कुन्दन की तरह दमकने लगता। उसकी प्यारी सूरत और ज़ियादा प्यारी मालूम होने लग़ती। जब तक बाबू साहब बैठे रहते, वो इसी कोशिश में रहती कि क्या बात करुं जिसमे ये यहाँ से खुश-खुश जावें। वो उनकी ख़ातिर से हँसती-बोलती। बाबू साहब ऐसे हँसमुख थे कि कि रोते को भी एक बार जरुर हँस देते। यहाँ वो खूब बुलबुल की तरह चहते। कोई ऐसी बात न करते जिससे पूर्णा के दिल में रंजों मलाल का शयेबा भी पैदा हो। जब उनके चललने का वक्त़ तो पूर्णा नहीं मालूम क्यूँ कुछ उदास हो जाती। बाबू साहब इसको इसको ताड़ जाते और पूर्णा के ख़ातिर से कुछ देर और बैठते। इसी तरह कभी-कभी घंटों बैठ जाते। जब चिराग़ में बत्ती पड़ने का वक्त़ आ जाता, बाबू साहब चले जाते और पूर्णा कुछ देर तक इधर-उधर बौखलायी हुई घूमती। जो-जो बातें हुई होती उनको फिर से दोहराती। ये वक्त़ उसको एक दिलख़ुशकुन ख़ाब-सा मालूम होता।
इसी तरह कई महीने गुजर गये और आख़िरश जो बात बाबू अमृतराय के दिल में थी वो क़रीब-करीब पूर हो गयी। यानी पूर्णा को अब मालूम होने लगा कि मेरे दिल में उनकी मुहब्बत समाती जाती है। अब बिचारी पूर्णा पहले से भी ज्यादा उदास रहने लगी। हाय, ओ दिल ख़ाना-ख़राब, क्या एक बार मुहब्बत करने से तेरा जी नहीं भरा जो तूने नपयी कुलफ़त मोल ली। वो बहुत कोशिश करती कि अमृतराय का ख़याल दिल में ने आने पाये मगर कुछ बस न चलता।
अपने दिल की हालत के अन्दाज करने का उसको यूँ मौका मिल कि एक राज बाबू अमृतराय वक्त़ मुअय्यना पर नहीं आये। थोड़ी देर तक तो ज़ब्त किये उनकी राह देखती रही मगर जब वो अब भी न आ़ये तब उसका दिल कुछ मसोसने लगा। बड़ी बेसब्री से दौड़ती हुई दरवाज़े पर आयी और कमिल आधा घण्टें तक कान लगाये खड़ी रही। कल्ब पर कुछ वही कैफियत तारी होने लगी जो पंडित जी के दौर पर जाने के वक्त़ हुआ करती। शुबहा हुआ कि कहीं दुश्मनों की तबीयत नासाज़ तो नहीं हो गयी। आंखें में आँसू भर आये। महरी से कहा—बिल्लो, ज़रा जाओ देखा तो बाबू साहब की तबीयत कैसी है? नहीं मालूम क्यूँ मेरा दिल बैठा जाता है। बिल्लो को भी बाबू साहब के बर्त्ताव ने गिरव़ादा बना लिया था और पूर्णा को तो वो अपनी लड़की समझती थी। उसको मालूम होता जाता था कि पूर्णा उनसे मुहब्बत करने लगी है। मगर उसकी समझ में नहीं आता था कि इस मुहब्बत का नतीजा क्या होगा। यही सोचते-विचारते के बाबू साहब के दौलतख़ाने पर पहुँची। मालूम हुआ कि वो आज दो-तीन ख़िद मतगारों के साथ लेकर बाज़ार गये हुए है। अभी तक नहीं आये। पुराने बूढ़ा कहार जो बावजूद बाबू साहब के मुतवारि तकाज़ों के आधी टॉँग की धोती बॉँधता था, बोला—बेटा, बड़ा खतब जमाना आवा है। हजार का सौदा होय तो, दुइ हजार का सौदा होय तो हम ही लियावत रहेन। आज खुद आप गये है। भला इतने बड़े आदमी का अस चाहत रहा। बाकी फिर अब अंग्रेजी जमाना आवा है। अंग्रेंजी-पढ़न-पढ़न के जन हुई जाय तौन अचरज नहीं है।
बिल्लो यहाँ से खुश-खुश बूढ़े कहार के सिर हिलाने पर हँसती हुई घर को वापस हुई। इधर जब से वो आयी थी पूर्णा की अजब कैफियत हो रही थी किसी पहल तैन ही नहीं आता था। उसे मालूम होता था कि बिल्लो की वापसी में भी देर रही है। इसी असना मैं जूतों की आवाज़ सुनायी दी। वो दौड़कर दरवाज़े पर आयी और बाबूसाहब को टहलते हुए पाया तो गोया उसको नेमत मिल गयी। झटपट अन्दर से दरवाज़ा खोला दिया, कुर्सी करीने से रख दी, और अन्दरुनी दरवाज़े पर सर नीचा करके खड़ी हो गयी। बाबू साहब लबाद पहने हुए थे। एक कुर्सी पर लबादा रक्खा और बोल-बिल्लो कहीं गयी है क्या?
पूर्णा—(लजाते हुए), जी हाँ, आप ही के यहाँ तो गयी है।
अमृतराय-मेरे यहाँ कब गयी? क्यूँ, कोई जरुरत थी?
पूर्णा—आपके आने में बहुत देर हुई तो मैंने समझा शायद दुश्मनों की तबीयत कुछ नासाज़ हो गयी हो, उसको भेजा कि जाकर देख आ।
अमृतराय—(प्यार की निगाहों से देखकर) मुझे सख्त अफ़सोस हुआ कि मेरे देर करने से तुमको तकलीफ़ उठानी पड़ी। फिर अब ऐसी ख़ता न होगी। मैं जरा बाज़ार चला गया था।
ये कहकर उन्होंने एक बार ज़ोर से पुकार—सुखई, अन्दर आओ।
और एक लमहे में दो-तीन आदमी कमरे में दाखिल हुए। एक के हाथ में ख़ूबसूरत लोहे का सन्दूक था और दूसरे के हाथ में तह किये हुए कपड़े थे। सब सामान तख्त़ पर धर दिया गया। बाबू साहब ने फ़रमाया—पूर्णा, मुझे उम्मीद है कि तुम ये सब चीज़े कबूल करोगी। चन्द रोज़ाना जरुरियात की चीजें है (हँसकर) ये देर में आने का जुर्माना है।
पूर्णा उन लोगो में न थी जो किसी चीज़ को लेना तो चाहते हैं मगर वज़ा की पाबन्दी के लिहाज से दो-चार बार ‘नहीं’ करना फ़र्ज समझते है। हाँ उसने इतना कहा—बाबू साहब, मैं आपका इस इनायत के लिए शुक्रिया अदा करती हूँ। मगर मेरे पास तो जो कुछ आपकी फय्याज़ी के बदौलत है वही जरुरत से ज्यादा है। मैं इतनी चीज़ें लेकर क्या करुँगी’’
अमृतरारय—जो तुम्हारा जी चाहे करो। तुमने क़बूल कर लिया और मेरी मेहनत ठिकाने लगी।
इसी असना में बिल्लो पहुँची। कमरे में बाबू साहब को देखते ही निहाल हो गयी। जब तख्त पर निगाह पहुँची और उन चीज़ों को देखा तो बोली—क्या इसके लिए आप बाज़ार गये थे? क्या नौकर-चाकर नहीं थे? बूढ़ा कहार रो रहा था कि मेरी दस्तूरी मारी गयी।
अमृतराय—(हँसकर दबी ज़बान से) वो सब कहार मेरे नौकर हैं। मेरे लिए बाज़ार से चीज़ें लाते है। तुम्हारी सरकार का मैं नौकर हूँ।
बिल्लो यह सुनकर मुस्कराती हुई अन्दर चली गयी तो पूर्णा ने कहा—आप बज़ा फ़रमाते है, मैं तो खुद आपकी लौंडियों की लौंडी हूँ।
इसके बाद चन्द और बातें हुई। माघ-पूस का ज़माना था। सर्दी सख्त पड़ रही थी। बाबू अमृतराय ज्यादा देर तक बैठा न सके। आठ बजते-बजते दौलखाने की तरफ़ रवाना हुए। उनके जाते ही पूर्णा ने फ़र्तें इश्तियाक़ से लोहे का सन्दूक खोला तो दंग रह गयी। उसमें ज़नाने सिंगार की तमाम चीजें मौजूद थीं, आला दर्जे की—खुशनुमा आइना, कंघी, खुशबूदार तेलों की शीशियाँ, मूबाफ़ हाथों के कंगन और गले का हार जड़ाऊँ, नगीनेदार चूड़ियाँ, एक निहायत नफ़ीस पायदान, रुहपरवर इतरियात से भरी हुई एक छोटी-सी सन्दूक़ची, लिखने-पढ़ने के सामान, चन्द क़िस्सा-कहानी की किताबें, अलावा इनके चन्दू और तकल्लुफ़ात की चीज़ें क़रीने से सजाकर धरी हुई थीं। कपड़े खोले तो अच्छी से अच्छी साड़ियाँ नज़र आयी। शर्बती, गुलनारी, धानी, गुलाबी, उन पर रेशमी गुलबूटे बने हुए:चादरे, खुशनुमा, बारीक, खुशवज़ा—बिल्लो इनको देख-देख जामे में फूली न समाती थी—वह ये सब चीज़ें जब तुम पहनोगी तो रानी हो जाओगी, रानी।
पूर्णा—(गिरी हुई आवाज) कुछ भंग खा गयी हो क्या बिल्लोख् मैं ये चीज़ें पहनूँगी तो जीती बचूँगी चौबाइन व सेठाइन ताने दे-देकर मार डालेगी।
बिल्लो-ताने क्या देंगी, कोई दिल्लगी है, उनके बाप का इसमें क्या इजारा। कोई उनसे कुछ माँगने जाता हैं।
पूर्णा ने बिल्लो को हैरत और इस्तेजाब की निगाहों से देखा। यही बिल्लो है जो अभी दो घझ्टे पहले चौबाइन और पंडाइन की हमख़ायल थी, मुझको पहने-ओढ़ने से बार-बार मना किया करती थी। यकायक ये क्या कायपलट हो गयी, बोली—मगर ज़माने के नेको-बद का भी ख्याल होता है।
बिल्लो—मैं यह थोड़ी कहती हूँ कि हरदम ये चीज़ें पहना करो। बल्कि जब बाबू साहब आवे।
पूर्णा-(शर्माकर) यह सिंगार करके मुझसे उनके सामने क्योंकर आया जायागा। तुम्हें याद है एक बार प्रेमा ने मेरे बाल गूँथ दिये थे जिसको आज महीनों बीत गये। उस दिन वो मेरी तरफ ऐसा ताकते थे कि बेअख्त़ियार क़ाबू से दिल बाहर हुआ जाता था। मुझसे फिर ऐसी भूल न होगी।
बिल्लो—नहीं बहूं उनकी मर्जी यही है तो क्या करोगी। इन्हीं चीज़ो के लिए वो बाज़ार गये थे। सैकड़ों नौकर-चाकर हैं मगर इन चीज़ें को खुद जाकर लाये। तुम उनकासे पहनोगी तो वो क्या कहेंगे?
पूर्णा(चश्मेपुरआब होकर) बिल्लो, बाबू अमृतराय नहीं मालूम क्या करानेवाला हैं। कुछ तुम्हीं बतलाओ मैं क्या करुँ। वो मुझसे दिन-दिन ज़ियादा मुहब्बत जताते है मैं अपने दिल को क्या कहूँ। तुमसे कहते शर्म आती है। वो भी कुछ बेबस हुआ जाता है। मोहल्लेवाले अलग बदनाम कर रहे है। नहीं मालूम ईश्वर को क्या करना मंजूर है।
बिल्लो—बहू, बाबू साहब का मिज़ाज ही ऐसा है कि दूसरों को लुभी लेता हैं। इसमें तुम्हारा क्या कुसूर है। इस गुफ्तगू के बाद पूर्णा तो सोने चली गयी और बिल्लो ने तमाम चीज़ें उठाकर करीने से रक्खी। सुबह उठकर पूर्णा ने जो किताबें पढ़ाना शुरु की जो बाबू साहब लाये थे। और ज्यूँ-ज्यूँ पढ़ती उसको मालूम होता कि कोई मेरा ही किस्सा कह रहा है। जब दो-एक सफ़े पढ़ लेती तो एक महबियत के आलम में घंटों दीवार की तरफ ताकती और रोती। उसको बहुत-सी बातें अपनी हालत से मिलती हुई नजर आयी। इन किस्सों में जो जी लगा तो इधर-उधर के तफ़क्कुरख़ेज ख्य़ालात दूर हो गये। और वो हफ्ता उसने पढ़ने में कटा। फिर आखिर इतवार का दिन आया। सुबह होते ही बिल्लो ने हँसकर कहा—आज साहब के आने का दिन है। आज जरुर से जरुर तुमको गर्हन पहनने पड़ेंगे।
पूर्णा—(दबी हुई आवाज़ से) आज तो मेरे सर में दर्द होता है।
बिल्लो—नौज, तुम्हारे बैरी का सर दर्द न करे जो तुमको देख न सके। इस बानेसे पीछा न छूटेगा।
पूर्णा—और जो किसी ने मुझे तना दिया तो जानना।
बिल्लो—जाने भी दो बहू, कैसी बात मुँह से निकालती हो। कौन है कहनेवाला।
सुबह ही से बिल्लो ने पूर्णा का बयान-सिंगार शुरु किया। महीनों से सर न मला गया था, आज खुशबूदार मसाले से मला गया। तेल डाला गया। कंघी की गयी। रेशमी मूबाफ़ लगाकर बाल गूँथे गय। और जब सेह-पहर को पूर्णा ने गुलाबी कुर्ती पहनकर उसपर रेशमी काम की शर्बती साड़ी, पहनी, हाथों में चूड़ियाँ कंगन सजाये तो वो बिलकुल हूर होने लगी। कभी उसने ऐसे बेशक़ीमत और पुरतकल्लुफ़ कपड़े न पहने थे और न वह कभी ऐसी सुघड़ मालूम हुई थी। वो अपनी सूरत आप देख-देख कुछ खुश भी होती थी, कुछ शर्माती भी थी और कुछ अफ़सोस भी करती थी। जब शाम का वक्त़ आया तो पूर्णा कुछ उदास मालूम होने लगी। ताहम उसकी आँखें दरवाज़े पर लगी हुई थीं। पाँच बजते-बजते मामूल से सबेर बाबू अमृतराय तशरीफ़ लाये। बिल्लो से ख़ैरोआफ़ियत पूछी और कुर्सी पर बैठ के किसी के दीदार के इश्तियाक़ में अन्दरुनी दरवाज़ें के तरफ टकटकी लगाकर देखने लगे। मगर पूर्णा वहाँ न थी। कोई दस मिनट तक तो बाबू साहब ने खामोशी से इन्तज़ार किया। बाद में अज़ॉँ बिल्लो से पूछा –क्यूँ महरिन, आज तुम्हारी सरकार कहाँ हैं?
बिल्लो—(मुस्कराकर) घर ही में तो है।
अमृतराय—तो आयीं क्यूँ नही? आज कुछ नारज़ हैं क्या?
बिल्लो—(हँसकर) उनका मन जाने।
अमृतराय—ज़रा जाकर लिवा आओ। अगर नाराज हों तो चलकर मनाऊँ।
ये सुनकर बिल्लो हँसती हुई अन्दर गयी और पूर्णा से बोली—बहू, उठोगी या वो आप ही मनाने आते है।
पूर्णा ने अब कोई चारा न देखा तो उट्टी और शर्म से सर झुकाये और घूँघट निकाले बदन को चुराती, लजाती, बल-खाती, एक हाथ मे गिलौरीदान लिये दरवाज़ें पर आकर खड़ी हो गयी। अमृतराय ने मुतहैयर होकर देखा। आँखें चुँधिया गयीं। एक लमहे तक महवियत का आलम तारी रहा। बाद अज़ॉँ मुस्कराकर बोले—चश्मे बद दूर।
पूर्णा—(लजाती हुई) मिज़ाज तो आपका अच्छा है?
अमृतराय—(तिरछी निगाहों से देखकर) अब तक अच्छा था। मगर अब ख़ैरियत नहीं नज़र आती।
पूर्णा समझ गयी। अमृतराय के संजीदा मज़ाक का मज़ा लेते-लेते वो कुछ हाज़िरजवाब हो गयी। है। बोली—अपने किये का क्या इलाज?
अमृतराय—क्या से किसी को ख़ामाख़ाह की दुश्मनी है।
पूर्णा ने शर्मा के मुँह फेरा लिया। बाबू अमृतराय हँसने लगे और पूर्णा की तरफ़ प्यार की निगाहों से देखा। उसकी हाज़िरजवाबी उनको बहुत भायी। कुछ देर तक और ऐसे ही लुत्फआमोज़ बातों का मज़ा लेते रहे। पूर्णा को भी ख्याल न था कि मेरी ये बेतकल्लुफ और बज़लासंजी मेरे लिए मौजूँ नहीं है। उसको इस वक्त़ न पंडाइन का ख़ौफ़ था। न पड़ोसियों का डर। बातों ही बातों में उसने मुस्कराहट अमृतराय से पूछा-आपके आजकल प्रेमा की कुछ ख़बर मिली है?
अमृतराय—नहीं, पूर्णा, मुझे इधर उनकी कुछ ख़बर नही थी। हाँ, इतना अलबत्ता जानता हूँ कि बाबू दाननाथ से क़राबत की बातचीत हो रही है।
पूर्णा—सख्त अफ़सोस है कि उनकी किस्मत में आपकी बीवी बनना नहीं लिखा है। मगर उनका जोड़ है तो आप ही से। हाँ, आपसे भी कहीं बातचीत हो रही थी। फ़रामाइए वो कौन खुशनसीब है। वो दिन जल्द आता कि मैं आपकी माशूक से मिलती।
अमृतराय—(पुरहसरत लहजे में) देखें कब किस्मत यावरी करती है। मैंने अपनी कोशिश में तो कुछ उठा नहीं रक्खा।
पूर्णा—तो क्या उधर ही से खिंचाव है, ताज्जबु है
अमृतराय—नही पूर्णा, मैं जरा बदक़िस्मत हूँ, अभी तक कोई कोशिश कारागर नहीं हुई। मगर सब कुछ तुम्हारे ही हाथों में है। अगर तुम चाहो तो मेरे सर कामयाबी का सेहरा बहुत जल्दी बँध सकता है। मैंने पहले कहा था और अब भी कहता हूँ कि तुम्हारी ही रज़ामन्दी पर मेरी कामयाबी का दारोमदार है।
पूर्णा हैरत से अमृतराय की तरफ देखने लगी। उसने अब की बार भी उनका मतलब साफ़-साफ़ न समझा। बोली—मेरी तरफ़ से आप ख़ातिर जमा रखिये। मुझसे जहाँ तक हो सकेगा उठान रखूँगी।
अमृतराय—इन अलफ़ाज का याद रखना पूर्णा, ऐसा न हो कि भूल जाओ। नहीं तो मुझ बेचारे के सब अरमान खाक में मिल में मिल जायेंगे।
ये कहकर बाबू अमृतराय उट्ठे और चलते वक्त़ पूर्णा की तरफ़ देखा। बेचारी पूर्णा की आँखें डबडबायी हुई थी गोया इल्तिजा कर रही थी कि जरा देर और बैठिये मगर अमृतराय को कोई ज़रुरी काम था। उन्होंने उसका हाथ अहिस्ता से लिया और डरते-डरते उसको चूमकर बोले—प्यारी पूर्णा, अपनी बातों को याद रखना।
ये कहा और दम के दम में गायब हो गये। पूर्णा खड़ी रहती रह गयी और एक दम में ऐसा मालूम हुआ कि कोई दिलखुशकुन ख्वाब था जो आँख खुलते ही ग़ायब हो गया।