प्रेमा की शादी हुए दो माह से ज्यादा गुजर चुके है। मगर उसके चेहरे पर मसर्रत व इत्मीनान की अलामतें नजर नहीं आतीं। वो हरदम मुतफ़क्किर-सी रहा करती है। उसका चेहरा जर्द है। आँखे बैठी हुई सर के बाल बिखरे, परीशान, उसके दिल मेंअभी तक बाबू अमृतराय की मुहब्ब्त बाकी है। वह हर चंद चाहती है कि दिल से उनकी सूरत निकाल डाले मगर उसका कुछ काबू नहीं चलता। गो बाबू दाननाथ उसके साथ सच्ची मुहब्बत ज़ाहिर करते हैं और अलावा वजीह-ओ-शकील नौजवान होने के निहायत हँसमुख, जरीक़तबा व मिलनसार आदमीहै मगर प्रेमा का दिल उनसे नहीं मिलता। वो उनकी खातिर करने में कोई दकीका नहीं फ़रोगुज़ाश्त करती। जब वे मौजूद होते है तो वो हँसती भी है, बातचीत भी करती है, मुहब्बत भी जताती है मगर जब वो चले जाते है तो फिर वो ग़मगीन होती है। अपने मौके में उसको रोने की आजादी थी। यहाँ रो भी नहीं सकती। या रोती है तो छुपकर। उसकी बूढ़ी सास उसको पान की तरह फेरा करती है न सिर्फ इस वजह सेकि वो उसका पास-ओ-लिहाज़ करती है। बल्कि इस वजह से कि वो अपने साथ निहायत बेशक़ीमत चीज लायी है। बेचारी प्रेमा की जिंदगी वाक़ई नाकाबिले रश्क है। उसकी हँसी जहरखंद होती है। वो कभी-कभी सास के तक़ाजे से सिंगार भी करती हैमगर उसके चेहरे पर वो रौनक़ और चमक-दमक नहीं पायी जाती जो दिली इत्मीनान का परतौ होती है। वो ज़ियादातर अपने ही कमरे में बैठी रहती है। हाँ कभी-कभी गाकर दिल बहलाती है। मगर उसका गाना इसलिए नहीं होता कि उसको खुशी हासिल हो। बरअक्स इसके वो दर्दनाक नग़मे गाती है और अक्सर रोती है। उसको मालूम होता है किमेरे दिल पर कोई बोझ धरा हुआ है।
बाबू दाननाथ इतना तो शादी करने के पहले ही जानते थे। कि प्रेमा अमृतराय पर जान देती है। मगर उन्होने समझा था किउसकी मुहब्बत मामूली मुहब्बत होगी। जब मैं उसको ब्याह कर लाऊँगा और उसके साथ इख़लाम व प्यार से पेश आऊँगा तो वो सब भूल जायगी और फिर हमारी ज़िंदगी बड़े इत्मीनान से बसर होगी। चुनांचे एक महीने तक उन्होंने उसकी दिलगिरफ्तगी की बहुत ज्यादा परवा न की। मगर उनको क्या मालूम था कि वो मुहब्बत का पौधा जो पाँच बरस तक खूने दिल से सींच-सींचकर परवान चढ़ाया गया है महीने-दो-महीने में हरगिज नहीं मुरझा सकता। उन्होंने दूसरे महीने भर भी जब्त किया मगर जब अब भी प्रेमा के चेहरे पर शिगुफ्त़गी व बशाश्त न नजर आयी तब तो उनको सदमा होने लगा। मुहब्बत और हसद का चोली-दामन का साथ है। दाननाथ सच्ची मुहब्बत करते थे मगर सच्ची मुहब्बत के एवज सच्ची मुहब्बत चाहते भी थे। एक रोज वो मामूल से सबेरे मकान पर वापस आये और प्रेमा के कमरे मे गये तो देखा कि वो सर झुकाये बैठी है। उनको देखते ही उसने सर उठाया, हाय। मुहब्बत के लहजे में बोली—मुझे आज न मालूम क्यूँ लाला जी की याद आ गयी थी। बड़ी देर से रो रही हूँ।
दाननाथ ने उसको देखते ही समझ लिया था कि अमृतराय के फ़िराक में ये आँसू बहाये जा रहे है। उस प्रेमा ने जो यूँ हवा बतलायी तो उनको निहायत नागवार मालूम हुआ। रूखे लहजे में बोले—तुम्हारी आँखे है, तुम्हारे आँसू भी, जितना रोया जाय रो लो। चाहे ये रोना किसी ज़िदा आदमी के लिए हो या मुर्दा के लिये।
प्रेमा इस आखिरी जुमले पर चौंक पड़ी और बिला जवाब दिये शौहर की तरफ मुस्तफ़सिराना निगाहों से देखने लगी। दाननाथ ने फिर कहा—क्या ताकती हो प्रेमा, मैं ऐसा अहमक़ नहीं हूँ।मैने भी आदमी देखे है और आदमी पहचानता हूँ। गो तुमने मुझको बिलकुल घोंघा समझ रखा होगा। मैं तुम्हारी एक-एक हरकत को गौर से देखता हूँ, मगर जितना ही देखता हूँ उतना ही ज्यादा सदमा दिल को होता है क्योंकि तुम्हारा बर्ताव मेरे साथ फीका है। गौ तुमको ये सुनना नागवार मालूम होगा मगर मजबूरन कहना पड़ता है कि तुम मुझसे मुहब्बत नहीं करती। मैंने अब तक इस नाजुक मुआमले परज़बान खोलने की जुर्रत नहीं की। और ईश्वर जानता है कि मैं तुम्हारी किस कदर मुहब्बत करता हूँ। मगर मुहब्बत चाहे जो कुछ भी बर्दाश्त करे, बेनियाजी बर्दाश्त नहीं कर सकती, और वे भी कैसी बेनियाजी, जिसका वजूद किसी रकीब के फ़िराक से हो। कोई आदमी खुशी से नहीं देख सकतर कि उसकी बीवी दूसरे के फ़िराक़ में आँसू बहाये। क्या तुम नहीं जानती हो कि हिन्दू औरत को शास्त्र के मुताबिक अपने शौहर के अलावा किसी दूसरे का ख्याल करना भी गुनाहगार बना देता है। प्रेमा, तुम एक आला दर्जे के शरीफ़ खानदान कीबेटी हो औरजिस खानदान की तुम बहू हो वो भी इस शहर में किसी से हेठा नहीं। क्या तुम्हारे लिए ये बाइसे नंग वशर्म नहीं है कि तुम उस आदमी के फ़िराक में आँसू बहाओ जिसने बावजूद तुम्हारे वालिद के मुतवातिर तकीज़ों के एक आवारा रॉँड बरहमनी को तुम परतरजीह दी। अफ़सोस है कि तुम उस आदमी को दिल में जगह देती हो जो तुम्हारा भूलकर भी ख्याल नहीं करता। इन्हीं आँखो ने अमृतराय को तुम्हारी तस्वीर पुरजा-पुरजा करके पैरों तले रौंदते देखा है। इन्हीं कानों ने उनको तुम्हारी शान में जा-ओ-बेजा बातें कहते सुना है। तुमको ताज्जुब क्यों होता है प्रेमा, क्या मेरी बातों का यकीन नहीं आया? क्या अमृतराय ने उन सर्दमेरियों काआला सुबूत नहीं दे दिया? क्या उन्होंने डंके की चोट नहीं साबित कर दिया कि वो खाक बराबर तुम्हारी कद्र नहीं करते? माना कि कोई जमाना वो था जब वो भी तुमसे शादी करने का अरमान रखते थे मगर अब वो अमृतराय नहीं रह गया। अब वो अमृतराय है, जिसकी आवारगी और बदचलनी की शहर का बच्चा-बच्चा कसम खा सकता है। मगर अफ़सोस तुम अभी तक उस नंगे खानदान के फ़िराक में आँसू बहा-बहाकर अपने और मेरे ख़ानदान के माथे पर कलंक का टीका लगाती हो।
दाननाथ गुस्से के जोश में थे। चेहरा तमतमाया हुआ था और आँखो से शोले न निकलते हो मगर इन्तिहा दर्जे की रोशनी जरूर पायी जाती थी। प्रेमा बेचारी सर नीचा किये खड़ी रो रही थी। शौहर की एक-एक बात उसके सीने के पार हुई जाती थी। सुनते-सुनते कलेजा मुँह को आ गया आखिर जब्त न हो सका, न रहागया। दाननाथ के पैरों पर गिर पड़ी और गर्म-गर्म अश्क के क़तरों से उनको भिगो दिया। दाननाथ ने फौरन पैर खिसका लिया। प्रेमा को चारपाई परबिठा दिया और बोले—प्रेमा, रोओ मत, तुम्हारे रोने से मेरे दिल को सदमा होता है। मैं तुमको रूलाना नहीं चाहता था मगर उन बातों को कहे बिना रह भी नहीं सकता था तो अगर दिल में रह गयीं तो नतीजा बुरा होगा। कान खोलकर सुनों। मैं तुमको जान से जियादा अजीज़ रखता हूँ। तुम्हारी आसाइश के लिए मै अपनी जान निछावर करने के लिए हाजिर हूँ। मैं तुम्हारे ज़रा से इशारे पर अपने को सदके कर सकता हूँ, मगर तुमको सिवाय अपने किसी और का ख़याल करते नहीं देख सकता। हाँ प्रेमा, मुझसे अब यह नहीं देखा जा सकता। एक महीने से मुझको यही दिक्कत हो रही है। मगर अब दिल पक गया है। अब वो जरा-सी ठेस भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। अगर इस अगाहीं पर भी तुम अपने दिल परकाबू न पा सको तो मेरा कुछ कुसुर नहीं। बस इतना कहे देता हूँ कि एक औरत के दो शौहर नहीं जिंदा रह सकते।
यह कहते हुए बाबू दाननाथ गुस्से में भरें बाहर चले आये। बेचारी प्रेमा को ऐसा मालूम हुआ गोया किसी ने कलेजे में छुरी मार दी। उसको आज तक किसी ने भूलकर भी कोई कड़ी बात नहीं सुनायी थी। उसकी भावज कभी-कभी ताने दिया करती थीं मगर वो ऐसे सख्त नहीं मालूम होते थे। वो घण्टों रोती रही। बाद अज़ॉँ उसने शौहार की सारी बातों को सोचना शुरू किया और उसके कानों में यह आखिरी अलफाज़ गूँजने लगे, ‘एक औरत के दो शौहर जिंदा नहीं रह सकते।‘
इनका क्या मतलब है?
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D