तजुर्बे की बात कि बसा औकात बेबुनियाद खबरें दूर-दूर तक मशहूर हो जाया करती है, तो भला जिस बात की कोई असलियत हो उसको ज़बानज़दे हर ख़ासोआम होने से कौन राक सकता है। चारों तरफ मशहूर हो रहा था कि बाबू अमृतराय इसलिए बिरहमनी के घर आया-जाया करते हैं। सारे शहर के लोग हलफ़ उठाने को तैयार रहते कि दोनों में नाज़ायज़ ताल्लुकात है। कुछ अर्से से चौबाइन व पंडाइन ने भी पूर्णा के शौको-सिंगारो पर हाशिया चढ़ाना छाड दिया था। चूँकि वा अब उनकी दानिश्त में उन कुयूद की पाबन्द न थी जिनका हर एक बेवा को पाबन्द होना चाहिए। जो लोग तालीमयाफ्त़ा थे और हिन्दुस्तान के दीगर सूबेजात की भी कुछ खबर रखते थे वे इन किस्सों को सुन-सुनकर ख़याल करते थे। शायद इसका नतीजा नकली शादी होगी हज़ारो बाअसर आशख़ास घात में थे कि अगर यह हज़रत रात को पूर्णा के मकान की तरफ जाने लगें तो जिन्दा वापस न जाए। अगर कोई अभी तक अमृतराय की नीयती की सफ़ाई पर एतबार करता था तो वो प्रेमा थी। वा बेचारी वफ़ादार लड़की ग़म पर ग़म और दुख पर दुख सहती थी। मगर अमृतराय की मुहब्बत उस पर सादिक़ थी। उसकी आस अभी तक बँधी हुई थी। उसके दिल में कोई बैठा हुआ कहता था कि तुम्हारी शादी ज़रुर अमृतराय से होगी। इसी उम्मीद पर वो जीती थी। और जितनी ख़बरें अमृतराय की निस्तबध मशहूर होती थी उनपर वो कुछ यूँ ही-सा यक़ीन लाती थी। हाँ, अक्सर उसको यह ख्याल पैदा होता था कि पूर्णा के घर बार-बार क्यों आते है? और शायद देखते-देखते, अपनी भावज और सारे घर की बातें सुनते-सुनते वह अमृतराय को बेवफ़-बदखुल्क समझने लगी है। मगर अभी तक उनकी मुहब्बत उसके दिल में बजिन्सेही मौजूद थी। वो उन लोगों मे थी जो एक बार दिल का सौदा चुका लेते है तो फिर अफ़सोस नहीं करते।
आज बाबू अमृतराय मुश्किल से बँगले पर पहुँचे होंगे कि उनकी शादी की ख़बर एक कान से दूसरे कान फैलने लगी। और शाम होत-होते सारे शहर में यही ख़बर गूँज रही थी। जो शख्स पहले सुनता तो एकबार न करता और जब उसको इस ख़बर की सेहत का य़कीन हो जाता है तो अमृतराय को सलवाते सुनाता। रात तो किसी तरह कटी। सुबह होते ही मुंशी बदरीप्रसाद साहब के दौलतख़ाने पर शहर के शुरफ़ा व उलमा उमरा व गुरबा मय कई हज़ार बिरहनों और शोहदो के जमा हुए और तजवीज़ होने लगी कि ये शादी क्यूँकर रोकी जावे।
पण्डित भृगुदत्त—विधवा विवाह वर्जित है। कोई हमसे शास्त्रार्थ कर ले।
कई आवारों ने मिलकर हाँक लगायी—हाँ, जरुर शास्त्रार्थ हो। अब इधर-उधर से सैकड़ों पंडित विद्यार्थी दबाये, सर घुटाये, और अँगोछा काँधे पर रखे मुँह में तम्बाकू को भरे एक जा-जमा हो गये और आपस में झकझक होने लगी कि ज़रुर शास्त्रार्थ हो। यह श्लोक पूछा जावे और उसके जवाब का यों जवाब दिया जावे। अगर जवाब में व्याकरण की एक ग़लती भी निकलते तो फिर फ़तह हमारे हाथ हैं। बहुत से कठमुल्ले गँवारे भी इसी जमाते में शरीक होकर शास्त्रार्थ चिल्ला रहे थे। बदरीप्रसाद साहब जहाँदीदा आदमी थे। जब उन आदमियों को शास्त्रार्थ पर आमादा देखा तो फ़रमाया, किससे शास्त्रार्थ किया जाएगा। मान लो वह शास्त्रार्थ न करें तब?
सेठ धूनीमल—बिला शास्त्रर्थ किए ब्याह कर लेंगे? (धोती सम्हालकर)—थानों में रपट कर दूँगा।
ठाकुर ज़ोरावर सिंह (मूँछों पर ताव देकर)—कोई ठट्ठा है ब्याह करना। सर काट लूँगा। खून की नदियाँ बह जाएगी।
राव साहब-बारात की बारात काट डाली जाएगी।
उस वक्त़ सैकड़ों आवारा शोहदे वहाँ आ डटे और आग में ईंधन लगाना शुरु किया।
एक—जरुर से जरुर सर काट डालूँगा।
दूसरा—घर में आग लगा देंगे, बारात जल-भुन जाएगी।
तीसरा—पहले उसे औरत का गला घोंट देंगे।
इधर तो ये हड़बोंग मचा हुआ था, खस निशस्तगाह में वोकला बैठ हुए शादी के नाज़ायज़ होने पर क़ानूनी बहस रहे थे। बड़ी गर्मी सी ज़खीम जिल्दों की वरक़गिरदानी हो रही थी। साल की पुरानी नज़ीरें पढ़ी जा रही थी ताकि कोई क़ानूनी गिरफ्त़ हाथ आ जाये। कई घण्टे तक यही चह-पहल रहा। आखिर खूब सर खपने के बाद यह राय हुई कि पहले ठाकुर ज़ोरावर सिंह अमृतराय को धमका दें। अगर वो इस पर भी न मानें तो जिस दिन बारात निकले सरे बाज़ार मारपीट हो और ये रेज़ोलूशन पास करने के बाद जलसा बर्खास्त हुआ। बाबू अमृतराय शादी की तैयारियों में मसरुफ़ थे कि ठाकुर ज़ोरावर सिंह का शुक्क़ा पहुँचा। लिखा था—
‘अमृतराय को ठाकुर ज़ोरावर सिंह की सलाम-बंदगी बहुत-बहुत तरह से पहुँचे। आग हमन सुना है कि आप किसी विधवा बिरहमनी से ब्याह करनेवाली है। हम आपस कहे देते है कि भूलकर भी ऐसा न कीजिएगा बर्ना आप जाने और आपका काम।
ज़ोरावर सिंह अलावा एक मुतमव्विल और बाअसर आदमी होने के शहर के लठैतों और शोहदो का सरदार था और बारहा बड़े-बड़ों को नीचा दिखा चुका था। उसकी धमकी ऐसी न थी जिसका अमृतराय पर कुछ असर न होता। इस रुक्के को पढ़ते ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया। सोचने लगे कि उसको किसी हिकमत से पेर लूँ कि एक दूसरा रुक्का फिर पहुँचा, ये गुमनाम था और मजमून भी पहले ही रुक्के से मिलता-जुलता था। उसके बाद शाम होते-होते हज़ारों ही गुमनाम पुरजे आये। कोई कहता था अगर फिर ब्याह का नाम लिया तो घर में आग लया देगें काई सर काटने को धमकाता है, कोई पेट में लेगा भौकने के लिए तैयार बैठा था और कोई मूँछ के बाल उखाड़ने के लिए चुटकियाँ गर्म कर रहा था। अमृतराय ये तो जानते थे कि शरावाले मुख़ालिफ़त जरुर करेगे मगर इस किस्सम की मुख़ालिफत का उनको वहमोगुमान भी न था। इन धमकियों ने उन्हें वाक़ई खौफ़जदा कर दिया था और अपने से ज़ियादा अन्देशा उनको पूर्णा के बारे में था कि कहीं ज़ालिम उस बेचारी को कोई अज़ीयत न पहुँचा दें। चुनांचे वो वक्त़ कपड़े पहन बाइसिकिल पर सवार हो चटपट मजिस्ट्रेट की ख़िदमत में हाजिर हुए और उससे तमामो-कमाला वाकया बयान किया। अंग्रेंजों में उनका अच्छा रूसूख़ था। न इसलिए कि वो खुशामदी थे इसलिए कि वो रौनशख़याल और साफ़गो थे। मजिस्ट्रेट साहब उनके साथ बड़े अखलाक़ से पेश ओय। उनसे हमदर्दी जतायी और उसी वक्त़ सुपररिण्टेडेण्ट पुलिस को तहरीर किया कि आप बाबू अमृतराय की मुहाफिज़त के लिए पुलिस का एक गारद रवाना कर दे और त़ाक्कते कि शादी न हो जाय ख़बर लेते रहें ताकि मारपीट और खून-ख़राब न हो जाये। शाम होते-होते तीस मुसल्ला सिपाहियों की एक जमात उनकी मदद के लिए आ गयी जिनमें से पाँच मजबूत और ज़सीम जवानों को उन्होंने पूर्णा के मकान की हिफ़ज़त के लिए रवाना कर दिया।
शहरवालों ने जब अमृतराय की पेशबन्दियाँ देखी तो निहायत—बर-अफ़रोख्ता हूए और मुंशी बदरीप्रसाद ने मय कई बुजुर्गां के मजिस्ट्रेट की ख़िदमत में हाज़िर होकर फ़रियाद मचायी कि अगर सरकार दौलत मदार ने इस शादी के रोकन को कोई बन्दोबस्त न किया तोबलवा हो जाने को अंदेशा है। मगर मजिस्ट्रेटे से साफ़-साफ़ कह दिया कि सरकार को किसी शख्स के फेल में दस्तन्दाज़ी करना मंजूर नहीं है तावक्त़े कि अवाम को उसे फ़ेल से कोई नुकसान न पहुँचे। यह टका-सा ज़वाब पाकर मुंशी जी सख्त महजूब हुए। वहाँ से जल-भुनकर मकान पर आये और अपने मुशारों के साथ बैठकर क़तई फ़ैसला किया कि जिस वक्त़ बारात चले उसी वक्त़ पचास आदमी टूट पड़ें। पुलिसवालों की भी खबर लें और अमृतराय की हड्डी-पसली भी तोड़ के धर दें।
बाबू अमृमतराय के लिए वाक़ई यह नाजुक वक्त़ था मगर वो क़ौम का दिलदादा बड़े इस्तिक़लाल व जाँफ़िशानी से तैयारियों में मसरुफ था। शादी की तारीख़ आज से एक हफ्ते पर मुकर्रर की गयी चूँकि जिसादा ताख़ीर करना ख़तरे से खाली न था और यह हफ्ता बाबू साहब ने ऐसी परेशानी में कटा जिसका सिर्फ़ ख़याल किया जा सकता है। अलस्सबाह दो कानिटिस्ब्लों के साथ पिस्तौलों की जोड़ी लगाये रोज़ एक बार पूर्णा के मकान पर आते। पूर्णा के मकान पर आते। पूर्णा बेचारी मारे डर के के मरी जाती थी। वो अपने को बार-बार कोसती कि मैंने क्यूँ उनको उम्मीद दिलाकर ज़हमत मोल ली। अगर ज़ालिमों ने कहीं उनके दुश्मनों को कोई गजन्द पहुँचाया तो उसका कफ्फ़ारा मेरी ही गर्दन पर होगा। गो उसकी मुहाफ़िज़त के लिए कानस्टिबिल मामूर थे मगर वो रात-भर जागा करती। पत्ता भी खड़कता तो वह चौककर उठ बैठती। जब बाबू साहब को आकर उसके तसकीन देते तब ज़रा उसके जान में ज्ञान आती।
अमृतराय ने खुतूत इधर-उधर रवाना कर ही दिये थे, शादी की तारीख से चार दिन पहले से शुरफा आने शुरु हुए। कोई बम्बई से आता था, कोई मद्रास, कोई पंजाब कोई बंगाल से। बनारस में रिफार्म से इन्तिहा दर्जे का इखतिलाफ था और सारे हिन्दोस्तान के रिफ़ार्मरों के जी से लगी हुई थी कि चाहे हो, बनारस में रिफ़ार्म को रोशनी फैलाने का ऐसा नादिर मौक़ा हाथ से न देना चाहिए। वो इतनी दूर की मंजिले तय करके इसीलिए आये थे कि शादी का कामयाबी के साथ अंजाम तक पहुँचाये। वो जानते थे कि अगर इस शहर में ये शादी हो गयी तो फिर इस सूबे के दूसरे शहरों के रिफ़ार्मरों के लिए बड़ी आसानी हो जाएगी। अमृतराय मेहमानों की आवभगत में मशगूल थे और उनके पुरजोश पैरो जिनकी तादाद कलिज के दस-बारह तुलबा पर महदूद थी, साफ-सुथरी पोशाक पहने स्टेशन पर जाकर मेहमानो की तक़दीम करते और उनके तवाज़ो-तकरीम में बड़ी सरगर्मी दिखाते थे। शादी के दिन तक यहाँ कोई डेढ़ सौ शुरफा मुजतमा हो गये। अगर कोई शख्स हिन्दोस्तान की रौशनी, हुब्दुल वतनीव जोशे कौम को यकजा देखपना चाहता हो इस वक्त़ बाबू अमृत राय के माकन पर देख सकता था। बनारस के पुराने खयालवाले अहसहाब इन तैयारियों और मेहमानों की कसरत को देख-देकर दिल में हैरानी होते थे। मुंशी बदरीप्रसाद साहब और उनके हमख़याल आदमियों में कई बार मशवरे हुए हुए और हर बार कतई फ़ैसला हुआ कि चाहे जो हो मगर मारपीट ज़रुरी की जाए। चुनांचे सारा शहर आमादये जंगोकारज़ार था।
शादी के क़ब्ल को बाबू अमृतराय अपने पुरजोश पैरवों को लेकर पूर्णा के मकान पर पहुँचे और वहाँ उनको बारतियों की खातिर व तवाज़ो करने के लिए मामूर किया। बाद अज़ॉँ पूर्णा के पास गये। वो उनको देखते ही आबदीदा हो गयी।
अमृतराय—(गले से लगाकर) प्यारी पूर्णा, डरो मत। ईश्वर चाहेगा तो दुश्मन हमारे बाल भी बीका न कर सकेगे। हम कोई गुनाह नहीं कर रहे है। कल जो बारात तुम्हारे दरवाज़े पर आएगी वैसी बारात आज तक शहर में किसी के दरवाज़े पर न आयी होगी।
पूर्णा—मगर मैं क्या करुँ? मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि कल ज़रुर मारपिट होगी। मैं चारों तरफ़ यह ख़बर सुन रही हूँ। इस वक्त़ भी मुंशी बदरीप्रसाद के यहाँ लोग, जमा है।
अमृतराय—प्यारी, तुम इन बातों का जरा भी अन्देशा न करो। मुंशी जी के यहाँ तो ऐसे मशवरे महीनों से हो रहे है और हमेशा हुआ करेगे। इसका क्या खौफ है? तुम दिल को मज़बूत रखो। बस यह रात और दरमियान है। कल प्यारी पूर्णा मेरे ग़रीबख़ाने पर होगी। हाय, वो मेरे लिए कैसा खुशी का वक्त़ होगा।
पूर्णा यह सुनका वाक़ई अपने खौफ को भूल गयी। उसने अमृतराय को प्यार की निग़ाहों से देखा और जब बाबू साहब चलने लगे तो उनके गले से लिपट गयी और बोली—प्यारी अमृतराय, तुमको मेरी क़सम इन जालिमों से बचते रहना। आफ़वहों को सुन-सुन के मेरी रुह फ़ना हुई जाती है।
अमृतराय ने उसे सीने से लशफ्फी व दिलासा देकर अपने मकान को रवाने हुए। शाम के वक्त़ पूर्णा के मकान पर कई पंडित जिनकी शक्ल से शराफत बरस रही थी, रेश्मी मिर्जाइयाँ पहने, गले में फूलों का हार डाले, आये और वेद की रीति से रसूमात अदा करने लगे। पूर्णा दुलहिन की तरह सजायी गयी। भीतर-बाहर गैस की रोशनी से मुनव्वर हो रहा था। कानिस्टिबिल दरवाजे पर टहल रहे थे। वो नये खून और नयी रोशनी के तुलाब जिनको अमृतराय यहाँ पर तैनात कर गये थे, तैयारियों में मसरूफ थे। दरवाज़े का सेहन साफ़ किया जा रहा था। फ़र्श बिछाया जा रहा था। कुर्सियाँ आ रही थी। सारी रात इन्हीं तैयारियों में कटी और अलस्सबाह बारात अमृतराय के घर से रवाना हुई।
माशेअल्ला, क्या महज्जब बारात था और कैसे महज्जब बाराती, न बाज़ो का धड़-धड़ पड़-पड़, न बिगलों की घो-पों, -पो न पालकियों का झुरमुट, न सजे हुए घोड़ों की चिल्लापों, न मस्त हाथियों का रेल-पेल, न वर्दीपोश असबरदारों की कतार, न गुल न गुलदस्ते। बल्कि सफेदपोशों की एक जमात थी जो आहिस्ता-आहिस्ता चहलकदमी करती अपनी संजीदा रफ्तार से अपनी मुस्त किलमिज़ाजी का सुबूत देती हुई चली जा रही थी। हाँ, ई जाद यह थी की दोरुया जंगी पुलिस के आदमी वर्दियाँ डाले सीटे लिये खड़े थे। सड़क के इधर-उधर जा-बजा झुंड के झुंड आदमी लाठियाँ लिये जमा नज़र आते थे और बारात की तरफ देख-देखकर दॉँत पीसते।
मगर पुलिस का वो रोब था कि किसी क़दम हिलाने की जुरअत न पड़ती। बारातियों के पचास क़दम के फ़सले पर रिज़र्व पुलिस के सवार हथियारों से लैंस घोड़े पर रनपटरी जमाये भाले चमकाते और घोड़ों को उछालते चले जाते थे। ताहम हा लम्हा ये अन्देशा था कि कहीं पुलिस के खौफ का ये तिलिस्म टूट न जाए। बारातीयों के चेहरे से भी कामिल इत्मीनान नहीं जाहिर होता था और बाबू अमृतराय जो इस वक्त़ निहायत खूबसूरत वज़ा की शेरावानी पहने हुए थे, चौंक-चौंक कर इधर-उधर देखते थे। ज़रा भी खटपट होती तो सबके कान खड़े होते। एक मर्तबा ज़ालिमों ने वाकई धावा बोल दिया। फौरन चौतरफ़ा सन्नाटा छा गया मगर मिलिटरी पुलिस ने क्विक मार्च किया और दम के दम में चन्द शोरापुश्तों की मुश्के कस ली गयीं। फिर किसी को अपनी मुफ़सितापरदाज़ी को अमली सूरत में लाने का गुर्दा न हुआ। बारे खुदा-खुदा करके कोई आधा घण्टे मे बारात पूर्णा के मकान पर पहुँची। वहाँ पहले ही बाराती असहाब के खैर मक़दम का सामान किया गया था। सेहन में फ़र्श लगा हुआ था। कुर्सियों करीने मसरुफ़ थे और कुंड के इर्द-गिर्द चन्द पंडितो बैठे हुए वेद के श्लोक बड़ी खुशइलहानी से गा रहे थे। हवन की खुशबू से सारा मुहल्ला मुअत्तर हा रहा था। बारातियों के आते हीसब की परेशानी पर चन्दन और जफ़रान मला गया, सबके गलों में खूबसुरत हार पहनाये गये। बाद अज़ॉँ दूल्हा मय चन्द असहाब के मकान के अन्दर गया और वहाँ वेद रीति से शादी का रस्म अदा किया गया। न गीत हुआ न नाच न गाली-गलौज। बेचारी पूर्णा को सम्हालनेवाली कोई न था, सिर्फ बिल्लों मश्शाता का काम भी करती थी और ज़लीस का भी। अन्दर तो शादी हो रही थी, बाहर हज़ारों आदमी लाठियाँ और सोटे लिए गुल मचा रहे थे। पुलिसवाले उनको रोके हुए मकान के गिर्द एक हलका बॉँध खड़े थे। तमाम बाराती दम ब खुद थ। इसी वक्त़ में पुलिस का कप्तान भी आ पहुँचा। उसने आते ही हुक्म दिया कि भीड़ हटा दी जए और दम के दम में पुलिसवालों ने सोटो से मार-मारकर उस तूफ़ाने बेतमीज़ी को हटना शुरु किया। जंगी पुलिस ने डरने-के लिए बन्दूकों की दो-चार बाढ़े हवा मे सर कर दी। अब क्या था चौतरफ़ा भगदड़ मच गयी। मगर हमे उसी वक्त़ ठाकुर ज़ोरावर सिंह दोहरी पिस्तौल बॉँधे नजर पड़ा। उसकी मूँछे खड़ी थीं। आँखें से अंगारे उड़ रहे थे। उसको देखते देखते ही वो बेकायदा जो तित्तर-बित्तर हो रही थी फिर जमा होने लगी, जिस तरह सरदार को देखकर भागती हुई फौज दम पकड़ ले। एक लमहे में कोई हज़ारहा आदमी इकट्ठा हो गये और दिलावर ठाकुर ने ज्यूँ ही एक नारा मारा ‘जय दुर्गा जी की’ त्यूँ ही सारी जमात के दिलो में गोया कोई ताजा रुह आ गयी। जोश भड़कर उठा। खून में हरकत पैदा हुई और सब के सब दरियाकी तरह उमड़ते हुए आगे को बढ़े। मिलिटरी पुलिसवाला भी संगीन खोले हुए कतार के कतार हमले के मुन्तजिर खड़े थे। चौतरफ़ा एक खौफ़नाक सन्नाटा छाया हुआ था कि अब कोई दम में खून की नदी बहा चाहती है। पुलिस कप्तान बड़ी पामर्दी से अपने आदमियों का उभार रहा था कि दफ़अतन पिस्तौल की आवाज़ आयी और कप्तान की टोपी जमीन पर गिर पड़ी, मगर जख्म नहीं लगा। कप्तान ने देख लिया था कि पिस्तौल ज़ोरावर सिंह ने सर किया है। उसने भी चट अपनी बन्दूक सम्हाली और बन्दूक का शाने तक लाना था कि ठाकुर ज़ोरावर सिंह चारों खाने चित्त ज़मीन पर आ रहा। उसका गिरना था कि दिलावर सिपाहियों ने धावा किया और वो जमाता बदहवास होकर भागी। जिसके जहाँ सींग समये, चल निकला। कोई आधा घण्टे में चिड़िया का पूत भी न दिखायी दिया। बाहर तो यह तूफान बर्पा था, अन्दर दूल्हा और दुल्हन मारे डर के सूखे जाते। पूर्णा थर-थर काँप रही थी। उसको बार-बार रोना आता था कि ये मुझ अभागिनी के लिए इतना खून-ख़च्चर हो रहा है। अमृतराय के ख़यालात कुछ और ही थे। वो सोचते थे कि काश मैं पूर्णा के साथ किसी तरह बख़ैरियत मकान तक पहुँच जाता तो दुश्मनों के हौंसले पस्त हो जाते। पुलिस है तो काफ़ी। अरे ये बन्दूके चलाने लगी लीजिये, बेचारा ज़ोरावर सिंह मर गया। आधा घण्टे के ही अन्दर, जो अमृतराय को कई बरसों के बाराबर होता था, मियाँ-बीवी हमेशा के लिए एक-दूसरे से मिला दिये गये और तब यहाँ से बारात की रुखसनी की ठहरी।
पूर्णा एक फ़िनिस में बिठायी गयी और जिस तराह बारात आयी थी उसी तरह रवाना हुई। अब की मुख़लिफौन को सर उठानेकी जुरत न हुई। आदमी इधर-उधर जरुर जमा थे और क़ह़रआलूद निगाहों से इन जमात का देखते थे। इधर-उधर से पत्थर भी चलायये जा रहे थे तालियाँ बजायी जा रही थी, मुँह चिढ़ाया जा रहा था मगर उन शरारतों से ऐसे मुस्तक़िलमिजाज रिफ़ार्मरोकी संजीदगी में क्या खलल आ सकता था। हाँ, अन्दर फिनिस में बैठी हुई पूर्णा रो रही थी। ग़लिबन इसलिए कि दुल्हन दूल्हा के घर जाते वक्त़ जरुर रोया करती है। बारे खुदा-खुदा करके बारात ठिकाने पहुँची। दुल्हन उतारी गई। बारातियों की जान में जान आयी। अमृतराय की खुशी का क्या पूछना। दोड़-दौड़ सबसे हाथ मिलाते फिरते थे। बॉँछ खिली जाती थी। ज्योंही पूर्णा उस सजे हुए कमरे में रौनक अफ़रोज हुई, जो खुद भी दुल्हन की तरह सजा हुआ था, अमृतराय ने उसे आकर कहा—‘प्यारी, लो हम बख़ैरियत पहुँच गये। ऐ, तुम तो रो रही हो’ यह कहते हुए उन्होंने रुमाल से उसके आँसू पोंछे और उसको गले से लगाया।
पूर्णा को कुछ थोड़ी-सी खूशी महसूस हुई। उसकी तबीयत खुद-ब-खुद सम्हल गयी। उसने अमृतराय का हाथ पकड़ लिया और बोली—अब यहीं मेरे पास बैठिए आपको बाहर न जाने दूँगी। ओफ, जालिमों ने कैसा ऊधम मयाचा।
इस मुबारक रस्म के बाद बारातियों के चलने की तैयारियाँ होने लगी। मगर सबने इसरार किया कि लाला धनुखधारीलाल सबको अपनी तकरीर से एक बार फ़ैजियाब करें। चुनांचे दूसरे दिन अमृतराय के बँगले के मुकाबिलवाले सेहन मे एक शामियाना नसब कराया और बड़े धूमधाम का जलसा हुआ। वो धुँआधार तकरीरे हुई कि सैकड़ों आदमियों के कुफ्र टूट गये। एक जलसे की कामयाबी ने हिम्मत बढ़ायी, दो जलसे और हुए और दूनी कामयाबी के साथ। सारा शहर टूट पड़ता था। पुलिस का बराबर इन्तज़ाम रहा। वही लोग जो कल रिफ़ार्म के ख़िलाफ लाठियाँ लिय हुए थे, आज इन तक़रीरों को गौर से सुनते थे और चलते वक्त़ गो उन बातों अमल करने के लिए तैयार न हों मगर इतना जरुर कहते थे कि यार, यह सब बातें तो ठीक कहते हैं। इन जलसों के बाद दो बेवाओं की और शादियाँ हुई। दोनों दूल्हे अमृतराय के पुरजोश पैरवों मे से थे और दुल्हनों में से एक पूर्णा के साथ गंगा नहाने वाली रामकली थी। चौथे दिन तमाम हज़रात रूखसत हुए। पूर्णा बहुत कन्नी काटती फिरी। मगर ताहम बारातियों से मिज़ाजपुर्सी करनी पड़ी और लाला धनुखधारी ने तो तीन फिर आध-आध घंटे तक उसके अख़लाकी तलकीन की।
शादी के चौथे दिन बाद पूर्णा बैठी हुई थी कि एक औरत ने आकर उसको एक सर-ब-मोहर लिफ़ाफा दिया। पढ़ा तो प्रेमा का खत था। उसने उसको मुबारकबाद दी थी और बाबू अमृतराय की वह तसवीर, जो बरसों से उसके गले का हार थी, पूर्णा के लिए भेज दी थी। उस खत की आखिरी संतरे ये थी—
‘’सखी, तुम बड़ी भाग्यवान हो। ईश्वर सदा तुम्हारा सुहाग कायम रक्खे। मेरी हजारों उम्मीदें इस तसवीर से वाबस्ता थीं। तुम जानती हो कि मैंने उसको जान से ज़ियादा अज़ीज रख्रा मगर अब मैं इस काबिल नहीं कि इसकों अपने सीने पर रक्खूँ। अब ये तुमको मुबारक हो। प्यारी, मुझे भूलना मत। अपने प्यारे पति को मेरी तरफ से मुबारकबाद देना। अगर जिंदा रही तो तुमसे ज़रूर मुलाकात होगी।
तुम्हारी अभागी सखी
प्रेमा’’
पूर्णा ने इसको बार-बार पढ़ा। उसकी आँखों में आँसू भर आये। इस तसवीर को गले में पहन लिया और निहायत हमदर्दाना लहजे में इस खत का जवाब लिखा।
अफ़सोस, आज के पन्द्रहवे दिन बेचारी प्रेमा बाबू दाननाथ के गले बॉँध दी गयी। बड़े धूमधाम से बारात निकली। हज़ारों रूपया लूटा दिया गया। कई दिन तक साराशहर मुंशी बदरीप्रसाद साहब के दरवाजे परनाच देखतर रहा। लाखों का वारा-न्यारा हो गया। शादी के तीसरे ही दिन बाद मुंशी जी रहिये मुल्के बक़ा हुए। खुद उनको म़गफिरत करे।