अपनी इस कीर्ति पर नहीं है विश्वास मेरा।
मैं जानता हूं
काल सिन्धु इसे
निरन्तर निज तरंग आघात से
दिन पर दिन करता ही रहेगा लुप्त,
अपना विश्वास मेरा अपने ही आपको।
दोनों साँझ भर-भर उस पात्र को
इस विश्व की नित्य सुधा का
किया है मैंने पान।
क्षण-क्षण मेरा प्रेम
उसी में तो होता रहा संचित है।
किया नहीं विदीर्ण दुःख भारने
मलिन नहीं किया कभी धूलि ने
उसकी शिल्प कला को।
यह भी है ज्ञात मुझे
संसार रंगभूमि को
जाऊंगा छोड़ तब
कहकर यह पुण्य ऋतु-ऋतु में
मैंने किया प्यार निखिल विश्व को।
यह प्रेम ही सत्य है, दान इस जन्म का।
लेते समय विदा
अम्लान हो यह सत्य मेरा
करेगा उपेक्षा से
अस्वीकार मृत्यु को।