तुम अब तो मुझे स्वीकारो नाथ, स्वीकार लो।
इस बार नहीं तुम लौटो नाथ
हृदय चुराकर ही मानो।
गुजरे जो दिन बिना तुम्हारे
वे दिन वापस नहीं चाहिए
खाक में मिल जाएँ वे
अब तुम्हारी ज्योति से जीवन ज्योतित कर
देखो मैं जागूँ निरंतर।
किस आवेश में, किसकी बात में आकर
भटकता रहा मैं जहाँ-तहाँ-
पथ-प्रांतर में,
इस बार सीने से मुख मेरा लगा
तुम बोलो आप्तवचन।
कितना कलुष, कितना कपट
अभी भी हैं जो शेष कहीं
मन के गोपन में
मुझको उनके लिए फिर लौटा न देना
अग्नि में कर दो उनका दहन।
विश्व है जब नींद में मगन / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
विश्व है जब नींद में मगन
गगन में अंधकार,
कौन देता मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झनकार।
नयनों से नींद छीन ली
उठ बैठी छोड़कर शयन
ऑंख मलकर देखूँ खोजूँ
पाऊँ न उनके दर्शन।
गुंजन से गुंजरित होकर
प्राण हुए भरपूर
न जाने कौन-सी विपुल वाणी
गूँजती व्याकुल सुर में।
समझ न पाती किस वेदना से
भरे दिल से ले यह अश्रुभार
किसे चाहती पहना देना
अपने गले का हार।