लगता है मुझे ऐसा हेमन्त की दुर्भाषा- कुज्झटिकाकी ओर
आलोक की कैसी तो एक भर्त्सना
दिगन्तकी मूढ़ता को दिखा रही तर्जनी।
पाण्डुवर्ण हुआ आता सूर्योदय
आकाश के भाल पर,
धनीभूत हो रही लज्जा,
हिम-सिक्त अरण्य की छाया में
हो रहा स्तब्ध है विहंगो का मधुर गान।