संसार के नाना क्षेत्र नाना कर्म में
विक्षिप्त है चेतना
मनुष्य को देखता हूं वहाँ मैं विचित्र मध्य में
परिव्याप्त रूप में;
कुछ है असमाप्त उसका और कुछ अपूर्ण भी।
रोगी के कक्ष में घनिष्ट निविड़ परिचय है
एकाग्र लक्ष्य के चारो ओर,
कैसा नूतन विस्मय तू
दे रहा दिखाई है अपूर्व नूतन रूप में।
समस्त विश्व की दया
सम्पूर्ण संहत उसमें है,
उसके कर-स्पर्श से, उसके विनिद्र व्याकुल पलकों में।