अमरनाथ यात्रियों की मौत और कश्मीरियों की चुप्पी!
जिस कश्मीर में एक आतंकी की मौत पर हज़ारों लोग समर्थन जताने सड़कों पर आ जाते हैं, उसी कश्मीर में 7 अमरनाथ यात्रियों की मौत पर कहीं कोई विरोध प्रदर्शन नहीं दिख रहा। फिर लोग कहते हैं कि आम कश्मीरी इस तरह के हमले का समर्थन नहीं कर सकता। अगर नहीं कर सकता और उसे वाकई अफसोस हुआ, तो वो अफसोस कहीं दिखाई क्यों नहीं दे रहा। अपनी कथित आज़ादी की लड़ाई में सेना और पुलिस के जवानों की मौत को आप जायज़ मान सकते हैं मगर तीर्थ यात्रियों की मौत को कैसे जायज़ ठहराया जा सकता है। और जिस तरह आम कश्मीरी ने इस पर चुप्पी साथी हुई है उससे यही ज़ाहिर होता है कि कश्मीर में जो कुछ हुआ उसे उसकी भी मौन सहमति है। भास्कर में छपी रिपोर्ट बता भी रही है कि जब लोग कराह रहे थे, तो आसपास खड़े लोग उन पर हंस रहे थे।
मगर इस चुप्पी पर कोई बात न कर हम अपनी सुविधा के विरोध तलाशने में लगे हैं। लोग कह रहे हैं कि सुरक्षा प्रदान करना तो राज्य की ज़िम्मेदारी थी। मतलब जब कोई हादसा आपको शर्मिंदा करे, तो फौरन उसे कानून व्यवस्था का मुद्दा बना दो। बेशक सुरक्षा प्रदान करना सरकार की ज़िम्मेदारी है और उसमें चूक हुई है। मगर आप कानून व्यवस्था के इस तर्क को हमेशा अपने हिसाब से कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं। अख़लाक की जब मौत हुई तब यूपी में सपा की सरकार थी। कानून-व्यवस्था राज्य की ज़िम्मेदारी है। तब उस हादसे के लिए राज्य सरकार और पुलिस को ज़िम्मेदार न ठहराकर उसे बढ़ती असहिष्णुता के साथ कैसे जोड़ दिया गया। तब तो छाती कूट ब्रिगेड ने कहीं कानून व्यवस्था की बात ही नहीं की। बेशक वो असहिष्णुता का मामला भी था मगर सवाल ये है कि अगर अख़लाक का मामला असहिष्णुता का था, तो अमरनाथ यात्रियों को सिर्फ हिंदू तीर्थ यात्री होने की वजह से मार देना क्या असहिष्णुता का मामला नहीं है? लेकिन नहीं, हम दस-बीस गौरक्षकों की मूर्खता के लिए तो हिंदू आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल कर सकते हैं मगर एक राज्य में सिर्फ धार्मिक आधार पर हो रही हिंसा को आतंकवाद नहीं मानेंगे।
नहीं हम इस पर भी बात नहीं करेंगे। हम इस चीज़ को मुद्दा बनाएँगे कि देखा मुस्लिम ड्राइवर ने जान बचा ली। मुझे लगता है कि ड्राइवर के धर्म को बार-बार रेखांकित करना मुसलमानो का सम्मान नहीं उनका अपमान ही है। क्या सिर्फ मुसलमान होने के कारण उस ड्राइवर को गोलीबारी की आवाज़ सुनकर बस साइड में लगा लेना चाहिए थी? क्या उसे चिल्लाकर आतंकियों से ये कहना चाहिए था कि भाई,मुझे बख्श दो...मैं मुसलमान हूं...इन्हें मार दो ये सब हिंदू हैं। सलीम की जगह कोई भी ड्राइवर होता, तो यही करता कि बस वहां से भगा लेता। हां, उसने भी ऐसा किया इसके लिए उसकी तारीफ होनी चाहिए। मगर ये कहना कि मुस्लिम ड्राइवर ने ऐसा किया, अपने आप में सवाल खड़ा करता है कि मुस्लिम ड्राइवर को शायद कुछ और करना चाहिए था या अमूमन मुस्लिम ड्राइवर ऐसा नहीं करते।
और अगर विश्लेषण धर्म के आधार ही करना है, तो ये भी कह सकते हैं कि हिंदू यात्रियों में एक मुसलमान ड्राइवर के प्रति इतना भरोसा था कि वो कश्मीर जैसी ख़तरनाक जगह पर यात्रा के लिए एक मुसलमान को ड्राइवर को साथ ले गए।
हकीकत ये है कि भारत का कथित बुद्धिजीवी वर्ग कट्टरता की आलोचना में इतना SELECTIVE है कि उसने आम आदमी को गुस्से से भर दिया है। और उसका ये SELECTIVE रवैया बंगाल से लेकर कश्मीर तक और अयूब पंडित की मौत से लेकर न जाने कितने मामलों तक EXPOSE हो चुका है और अमरनाथ यात्रियों की मौत के बाद एक बार फिर से हुआ है।
मूल लेखक : Neeraj Badhwar