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भाग 10

5 अगस्त 2022

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हमारे हरमोहन पाण्डे इसी ढंग के लोग हैं-होनहार के भरोसे बाप का कमाया लाखों रुपया उड़ा चुके हैं। बीसों गाँव पास थे, पर एक-एक करके सब बिक चुके हैं। अब तक रहने का घर बचा था। आज उससे भी हाथ धोना चाहते हैं। बाहर बोली हो रही है, पर करम ठोककर आप भीतर पलँग पर पड़े हैं। उनकी यह गत देखकर उनकी सीधी सच्ची घरनी उनके पास आयी। प्यार के साथ पास बैठ गयी। दोनों में इस भाँत बातचीत होने लगी।

घरनी-घर बिक रहा है-बाहर बोली हो रही है, क्या आप उनको सुनते हैं?

हरमोहन-सुनता हूँ-जो भाग में लिखा है, होगा।

घरनी-मैं यह नहीं कहती, मैं यह कहती हूँ-थोड़ी ही बेर में यह घर छोड़ना होगा-उस घड़ी हम लोग क्या करेंगे, कहाँ रहेंगे?

हरमोहन-इस घर के पास जो हमारा खंडहर है, उसमें चलकर रहेंगे। भाग्य में तो खंडहर लिखा है, घर रहने को कहाँ मिलेगा?

घरनी-खंडहर में दिन कैसे बीतेगा? मेरा मुँह आज तक किसी पराये ने नहीं देखा, खंडहर में लाज क्योंकर रहेगी?

हरमोहन-भगवान जिसकी लाज नहीं रखना चाहते, उसकी लाज कौन रखे?

घरनी-अच्छा, मैं कुछ कहूँ? आप मानेंगे?

हरमोहन-कहो, क्या कहती हो?

घरनी-बंसनगर में मेरी बहिन रहती है, यह आप जानते हैं। जैसी भलमनसाहत उसमें है, वैसे ही देवता हमारे बहनोई भी हैं, यह बात भी आपसे छिपी नहीं है। इनके पास दो घर हैं-एक में वह आप रहते हैं, एक यों ही पड़ा है। मेरी बहन ने हम लोगों का दुख सुना है-कुछ दिन हुए उसने कहला भेजा था-जो घर भी बिक जाय तो ये यहाँ आकर रहें। हम लोगों का अब यहाँ क्या रखा है-जो आप चाहें तो वहाँ चल सकते हैं। यहाँ से वहाँ अच्छा ही बीतेगा।

हरमोहन-तुमने अच्छा कहा, चलो वहीं चलें। हमारा सोलह सौ रुपया भी तो उनके यहाँ है।

घरनी-रुपये की बात जाने दीजिए। दुख में उन लोगों ने हम लोगों को बहुत सम्हाला है। सोलह सौ का चौबीस सौ दे चुके हैं।

हरमोहन-अच्छा जाने दो-हम रुपये की बात नहीं चलाते हैं।

इस बातचीत के दूसरे दिन अपनी घरनी, एक लड़के और एक लड़की के साथ हरमोहन ने अपने जनम के गाँव देवनगर को छोड़ा। चौबीस घण्टे चलकर बंसनगर पहुँचे, और वहीं रहने लगे। यहाँ कहने सुनने को वह कुछ काम भी करने लगे और इसी से उनका दिन बीतने लगा, पर इन लोगों का सब भार उन्हीं लोगों पर था, जिनके बुलाने से ये लोग वहाँ गये थे। उन लोगों ने इनके लड़के के पढ़ने-लिखने की ओर भी पूरा ध्यान रखा।

धीरे-धीरे तीन बरस बीत गये, चौथे बरस इन लोगों ने एक ऐसी बात सुनी, जिससे इन लोगों का रहा सहा कलेजा और टूट गया। इन लोगों ने सुना इनका एक ही जमाई घरबार छोड़कर किसी साधु के साथ कहीं चला गया, बहुत कुछ ढूँढ़ा गया, पर कहीं कुछ खोज न मिली।


हरमोहन पाण्डे सीधे और सच्चे थे, अपने कामकाजियों और टहलुओं पर भरोसा बहुत रखते थे। आँख में शील इतनी थी, जो आजकल नहीं देखा जाता। जिसने आकर आँसू बहाकर कुछ माँगा, उसी ने कुछ पाया। बिना कुछ लिखाये-पढ़ाये सैकड़ों दे देते। जो कोई कुछ कहता, कहते जब उसको होगा दे ही जावेगा, ब्राह्मण का रुपया थोड़े ही मार लेगा। जो यहीं तक होता, बहुत बिगाड़ न होता! हरमोहन में बड़ा भारी औगुन आलस था। आलस होने के कारण वह सब कामों में टाल टूल बहुत करते, कामकाजियों ने लाकर जो लेखा साम्हने रखा, उसी को सच माना, कभी यह न कहा, इतने छोटे काम में इतना रुपया कैसे लगाया, किसी ने कभी कुछ कहा तो होनहार की दुहाई दे कर, भाग्य पर सब बातों का होना बतला कर उस से पीछा छुड़ाया। ऐसे लोगों का बेड़ा पार कब तक हो सकता है-इन सब बातों का बुरा फल हुआ, वह थोड़े ही दिनों में लुट गये। लोगों ने उनको सीधा पाकर अपना घर भर लिया, और इधर कान पर जूँ तक न रेंगी। धीरे-धीरे गाँव घर सब छोड़ना पड़ा। इन बातों को छोड़ हरमोहन में जितनी बातें थीं, बड़े काम की थीं, वह झूठ कभी नहीं कहते, छोटे-बड़े सबसे प्यार से मिलते। पखंडियों से दूर भागते, और दीन दुखियों के तो माँ बाप थे।

ऐसे लोगों के लिए भी बिपत है-बिपत किसी को नहीं छोड़ती-जब आती है भले ही आती है। बापुरे हरमोहन का सब तो गया ही था, आज उसको अपने जमाई के लिए भी रोना पड़ा। जीना तो भारी हो ही रहा था, उस पर और रंग चढ़ गया। हरमोहन की स्त्री रुपया-पैसा, गहने-कपड़े को कुछ नहीं समझती थी, वह हरमोहन का मुँह देखकर सब भूल जाती। इसी से हरमोहन को बिपत में भी बहुत कुछ सहारा रहता था। पर आज जो चोट हरमोहन को लगी है वही चोट दूनी होकर उसकी स्त्री को लगी। इससे वह जहाँ पड़ी है वहीं बिलख रही है, हरमोहन की सुधा कौन ले। हरमोहन बहुत घबराये। कब किसके जी में कैसा उलट फेर होता है, इसको कोई क्या जान सकता है। आज भी हरमोहन को भाग्य और होनहार से काम लेना चाहिए था, पर बन नहीं पड़ा। वह घबराये हुए घर के बाहर निकले, और सीधे एक ओर चल खड़े हुए। गाँव के बाहर एक ने पूछा-कहाँ जाते हो? कहा, कहीं जाता नहीं। गाँव के पूरब ओर एक बन था, उसी को दिखलाकर कहा, इसी बन तक जाता हूँ। धीरे-धीरे बात उनकी स्त्री के कानों तक पहँची, वह और घबरायी, लोग दौड़ाये, पर हरमोहन किसी को न मिले। एक-एक करके दिन बीतने लगे, महीने हुए, दो बरस बीत गये, पर हरमोहन फिर न लौटे। लोगों ने उनको मरा ही समझा, क्योंकि न वह कहीं जा सकते थे, और न कुछ कर सकते थे। स्त्री का दिन अपने एक लड़के और एक लड़की के साथ बड़े दुख से बीतने लगा।

यह स्त्री और हरमोहन कौन हैं? यह तो आप लोग समझ ही गये होंगे। पर जो न समझे हों तो, मैं बतलाता हँ। स्त्री पारबती है-लड़की देवहूती है-लड़का देवकिशोर है-और इन दोनों का बाप हरमोहन है।

हरमोहन को लोगों ने मरा समझा, हम क्या समझें? जब पता नहीं लगा; तो हम और क्या समझेंगे, गाँववालों का साथ हम भी देते हैं।     

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रचनाएँ
अधखिला फूल
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अधखिला फूल "अधखिला फूला उपाध्याय जी का दूसरा सामाजिक उपन्यास है है देवहूती एक विवाहित स्वी है । उसका पति देवस्वरूप संसार से विरक्त रहते के कारण कहीं बाहर चला जाता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि आज के पाठक को यह भाषा कुछ कृत्रिम-सी लगेगी । सिर भी ऐसा नहीं है कि वह इस रचना में रस न ले सके ।
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अधलिखा फूल भाग 1

5 अगस्त 2022
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वैशाख का महीना, दो घड़ी रात बीत गयी है। चमकीले तारें चारों ओर आकाश में फैले हुए हैं, दूज का बाल सा पतला चाँद, पश्चिम ओर डूब रहा है, अंधियाला बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों अंधियाला बढ़ता है, तारों की चमक

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भाग 2

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जिस खेत में यह टूटा हुआ तारा गिरा, उसमें देखते-ही-देखते एक भीड़ सी लग गयी, लोग पर लोग चले आते थे, और सब यही चाहते थे, किसी भाँत भीड़ चीरकर उस तारे तक पहुँचें, पर इतने लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे, जिससे

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भाग 3

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एक बहुत ही सजा हुआ घर है, भीतों पर एक-से-एक अच्छे बेल-बूटे बने हुए हैं। ठौर-ठौर भाँति-भाँति के खिलौने रक्खे हैं, बैठकी और हांड़ियों में मोमबत्तियाँ जल रही हैं, बड़ा उँजाला है, बीच में एक पलँग बिछा हुआ

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भाग 4

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 5

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 6

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बासमती जाने से कुछ ही पीछे हरलाल को ले कर लौट आयी। हरलाल छड़ी से टटोल-टटोल कर पाँव रखते हुए घर में आया। उसके आते ही पारबती और देवहूती वहाँ से हटकर कुछ आड़ में बैठ गयीं, पर पड़ोस की दोनों स्त्रियों पहल

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भाग 7

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भोर के सूरज की सुनहली किरणें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही हैं, पेड़ों की पत्तियों को सुनहला बना रही हैं, और पास के पोखरे के जल में धीरे-धीरे आकर उतर रही हैं। चारों ओर किरणों का ही जमावट है, छतों पर, मुड

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भाग 8

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चमकता हुआ सूरज पश्चिम ओर आकाश में धीरे-धीरे डूब रहा है। धीरे-ही-धीरे उसका चमकीला उजला रंग लाल हो रहा है। नीले आकाश में हलके लाल बादल चारों ओर छूट रहे हैं। और पहाड़ की ऊँची उजली चोटियों पर एक फीकी लाल

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भाग 9

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फूल तोड़ते चौबीस दिन हो गये। इतने दिनों में काम कुछ न निकला, यह बात बासमती के जी में आठ पहर खटकने लगी। कामिनीमोहन भी बेचैन हो चला था, इसलिए वह भी कभी-कभी बसमाती को जली कटी सुनाता, इससे बासमती और घबराय

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भाग 10

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हमारे हरमोहन पाण्डे इसी ढंग के लोग हैं-होनहार के भरोसे बाप का कमाया लाखों रुपया उड़ा चुके हैं। बीसों गाँव पास थे, पर एक-एक करके सब बिक चुके हैं। अब तक रहने का घर बचा था। आज उससे भी हाथ धोना चाहते हैं।

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भाग 11

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चारों ओर आग बरस रही है-लू और लपट के मारे मुँह निकालना दूभर है-सूरज बीच आकाश में खड़ा जलते अंगारे उगिल रहा है और चिलचिलाती धूप की चपेटों से पेड़ तक का पत्ता पानी होता है। छर्रों की भाँत धूल के छोटे-छोट

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भाग 12

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देवहूती और उसकी मौसी के घर के ठीक पीछे भीतों से घिरी हुई एक छोटी सी फुलवारी है। भाँत-भाँत के फूल के पौधे इसमें लगे हुए हैं, चारों ओर बड़ी-बड़ी क्यारियाँ हैं, एक-एक क्यारी में एक-एक फूल है-फुलवारी का स

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भाग 13

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पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख पड़ता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली

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भाग 14

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कामिनीमोहन की फुलवारी के चारों ओर जो पक्की भीत है उसमें से उत्तरवाली भीत में एक छोटी सी खिड़की है। यह खिड़की बाहर की ओर ठीक धरती से मिली हुई है, पर भीतर की ओर फुलवारी की धरती से कुछ ऊँचाई पर है। खिड़क

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भाग 15

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>बड़ी गाढ़ी अंधियाली छायी है, ज्यों-ज्यों आकाश में बादलों का जमघट बढ़ता है, अंधियाली और गाढ़ी होती है। गाढ़ापन बढ़ते-बढ़ते ठीक काजल के रंग का हुआ, गाढ़ी अंधियाली और गहरी हुई, इस पर अमावस, आधी रात और स

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भाग 16

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अपनी फुलवारी में टहलते हुए कामिनीमोहन ने पास खड़ी हुई बासमती से कहा- बासमती-क्या मैंने कोई आपके साथ चाल की बात की है? आपके होठों पर आज वह हँसी नहीं है, आँखें डबडबायी हुई हैं, मुँह बहुत ही उतरा हुआ है

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भाग 17

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 18

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 19

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एक बहुत ही घना बन है, आकाश से बातें करनेवाले ऊँचे-ऊँचे पेड़ चारों ओर खड़े हैं-दूर तक डालियों से डालियाँ और पत्तियों से पत्तियाँ मिलती हुई चली गयी हैं। जब पवन चलती है, और पत्तियाँ हिलने लगती हैं, उस घड

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भाग 20

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बन में जहाँ जाकर खोर लोप होती थी, वहाँ के पेड़ बहुत घने नहीं थे। डालियों के बहुतायत से फैले रहने के कारण, देखने में पथ अपैठ जान पड़ता, पर थोड़ा सा हाथ-पाँव हिलाकर चलने से बन के भीतर सभी घुस सकता। पथ य

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भाग 21

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बासमती के चले जाने पर देवहूती अपनी कोठरी में से निकली, कुछ घड़ी आँगन में टहलती रही, फिर डयोढ़ी में आयी। वहाँ पहुँच कर उसने देखा, बासमती पहरे के भीलों से बातचीत कर रही है। यह देखकर वह किवाड़ों तक आयी-औ

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भाग 22

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>कामिनीमोहन की भी आज ठीक यही दशा है-वह खाते पीते, सोते जागते, भोले-भाले मुखड़े का ध्यान करता, जहाँ रसीली बड़ी-बड़ी आँखें देखता वहीं लट्टू होता, गोरे-गोरे हाथों में पतली-पतली चूरियाँ उसको बावला बनातीं,

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भाग 23

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एक चूकता है-एक की बन आती है। एक मरता है-एक के भाग्य जागते हैं। एक गिरता है-एक उठता है। एक बिगड़ता है-एक बनता है। एक ओर सूरज तेज को खोकर पश्चिम ओर डूबता है-दूसरी ओर चाँद हँसते हुए पूर्व ओर आकाश में निक

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भाग 24

5 अगस्त 2022
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आज तक मरकर कोई नहीं लौटा, पर जिसको हम मरा समझते हैं, उसका जीते जागते रहकर फिर मिल जाना कोई नई बात नहीं है। ऐसे अवसर पर जो आनन्द होता है-वह उस आनन्द से घटकर नहीं कहा जा सकता-जो एक मरे हुए जन के लौट आने

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भाग 25

5 अगस्त 2022
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बासमती के मारे जाने पर दो चार दिन गाँव में बड़ी हलचल रही, थाने के लोगों ने आकर कितनों को पकड़ा, मारनेवाले को ढूँढ़ निकालने के लिए कोई बात उठा न रखी, पर बासमती से गाँववालों का जी बहुत ही जला हुआ था, इस

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भाग 26

5 अगस्त 2022
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आज दस बरस पीछे हम फिर बंसनगर में चलते हैं। पौ फट रहा है, दिशाएँ उजली हो रही हैं, और आकाश के तारे एक-एक कर के डूब रहे हैं। सूरज अभी नहीं निकला है, पर लाली चारों ओर दिशाओं में फैल गयी है। कहीं-कहीं पेड़

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