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भाग 18

5 अगस्त 2022

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई भी होती, पर आज उसके नाम से भी नाक भौं चढ़ती है, घर-घर में चहल-पहल है, बच्चों तक में उमंग भरी है। धीरे-धीरे घड़ी भर दिन और रहा, बनी ठनी स्त्रियों घर-घर से निकलने लगीं; थोड़ी ही बेर में गाँव के बाहर और ठौर-ठौर चलती फिरती फुलवारियाँ दिखलाई पड़ीं। बिछिया और पैजनियों की छमाछम, कड़े छड़े और घुँघुरुओं की झनकार से, सोती हुई दिशाएँ भी जाग उठीं-पवन में बीन बजने लगी। झुण्ड की झुण्ड स्त्रियों दक्खिन से उत्तर को जा रही थीं, उनके कोयल से मतवाले करनेवाले कण्ठ से जो गाना हो रहा था, उसको सुनकर योगियों के भी छक्के छूटते थे। स्त्रियों के झुण्ड में कभी-कभी हटो बचो की धुन भी सुनाई देती थी, और देखते-ही-देखते कहार पालकियाँ लिये बहुत ही फुर्ती से इनके बीच से होकर निकल जाते थे। इन पालकियों में गाँव की थोड़े दिन की आयी हुई धनियों की पतोहें और किसी-किसी बड़े धनी के घर की स्त्रियों जाती थीं।

बंसनगर गाँव के उत्तर ओर सरजू नदी अठखेलियाँ करती हुई बह रही है, स्त्रियों का झुण्ड धीरे-धीरे आगे बढ़कर इसी नदी के तीर पर पहुँचा। बंसनगर गाँव के ठीक सामने उस पार चाँदपुर गाँव था। सरजू का ढंग है-सदा अपनी धारों को पलटती रहती है, पर इन दोनों गाँवों के पास की धरती कंकरीली थी, इसलिए इन दोनों गाँवों के बीच वह सदा एक रस बहती-ये दोनों गाँव व्यापार की मण्डी थे। इस पार और उस पार बड़े अच्छे-अच्छे घाट थे। आज दोनों ओर घाट पर स्त्रियों की बड़ी भीड़ है। सरजू नदी कल-कल बह रही है, सूरज की किरणें उसमें पड़कर जगमगा रही हैं, लहर-पर-लहर उठती है-सूरज की किरणों में चमकती है-और फिर सरजू की बहती हुई धार में मिल जाती है। पानी के तल पर मगर, घड़ियाल उतरा और डूब रहे हैं, पाल से उड़ती हुई नाव आ जा रही हैं, छोटी-मोटी डोंगियाँ लहरों में डगमगा रही हैं, और दूसरी बहुत सी नाव घाट के एक ओर पाँती बांधे चुपचाप खड़ी हैं, जब कभी लहरें उठकर घाट से टकराती हैं, एक-एक बार रहकर ये नावें धीरे-धीरे हिल उठती हैं। सरजू तीर पर दोनों पार बहुत से मन्दिर और शिवालय थे, उनमें से बहुतों पर ध्वजा लगी हुई थी, बहुतों पर कलस थे, तीर पर भाँत-भाँत के फूले फले पेड़ थे, और इन सबकी छाया जल में पड़ रही थी। धीरे-धीरे तीर की स्त्रियों की छाया भी जल में पड़ी। जब कभी जल थिर रहता, उस घड़ी दोनों पार पानी के भीतर एक बहुत ही अच्छी बसी हुई बस्ती दिखलायी पड़ती, और जब लहरें उठतीं, पानी के हिलने पर उसमें सिलवटें पड़तीं, उस घड़ी टुकड़े-टुकड़े होकर गाँव उजड़ता दिखलायी देता, और धीरे-धीरे जल में लोप हो जाता। जल में यही सब लीला हो रही है-स्त्रियों नहा धो रही हैं-और उनके गीतों पर सरजू का जल लहरों के बहाने हाथ उठा-उठा कर नाच रहा है-और सारा गाँव सरजू पर खड़ा होकर यह सब लीला देख रहा है।

सरजू के तीर पर पचास स्त्रियों के साथ बासमती खड़ी है, उसके साथ की बहुत सी स्त्रियों नहा-धो चुकी हैं, बहुत सी नहा-धो रही हैं, इसी बीच देवहूती अपनी मौसी और पड़ोस की दूसरी दो स्त्रियों के साथ वहाँ आयी। आते ही न जाने क्या बात हुई जो देवहूती की मौसी और बासमती में बातचीत होने लगी, बासमती के साथ की दो-चार स्त्रियों इनको घेर कर खड़ी हो गयीं। देवहूती के साथवाली पड़ोस की दो स्त्रियों को भी बासमती के साथ की दूसरी दो स्त्रियों ने बातों में फाँसा, और इनमें से भी एक एक को घेरकर बासमती के साथ की पाँच-पाँच, चार-चार स्त्रियों खड़ी हो गयीं। देवहूती आगे बढ़ गयी, ज्यों वह पानी के पास पहुँची, त्यों उसको भी घेरकर बासमती के साथ की बीस-पचीस स्त्रियों खड़ी हो गयीं। उनमें से एक जो देवहूती के जान-पहचान वाली थी, उससे बोली, देवहूती देखो यह कैसा अच्छा फूल है।

देवहूती-हाँ, बहुत अच्छा फूल है, क्या तुमने बनाया है सरला! इसकी पंखड़ियाँ बहुत ठीक उतरी हैं, मैंने पहले इसको बेले का फूल ही समझा था।

सरला-क्या मैं ऐसा फूल बना सकती हूँ-भाभी ने बनाया है। तभी आज इनको पालकी पर चढ़ाकर लिवा लायी हँ। सब से बड़ी बात इसकी महँक है-देखो न! यह फूल कैसा महँकता है!

देवहूती-क्या इसमें महँक भी है? फूल तो बहुतों को बनाते देखा है, पर उसमें महँक भी वैसी ही बना देना, निरी नई बात है।

सरला-देखो न! हाथ कँगन को आरसी क्या?

देवहूती ने हाथ में लेकर फूल सूँघा, सूँघते ही वह अचेत हो गयी, उसके हाथ के कपड़े सरजू में गिर पड़े जो आगे को वह निकले, और इसी बीच अचानक कहारों ने एक पालकी उठायी जिसको लेकर वे सब वहाँ से बड़े वेग से चलते बने। कहारों के पालकी उठाते ही उन्हीं स्त्रियों में से एक स्त्री दूसरी कई एक स्त्रियों के साथ उन्हीं बहते हुए कपड़ों को दिखला कर कहने लगी-हाय! हाय!! यह क्या हुआ, नहाते-नहाते देवहूती कहाँ चली गयी, अरे यह बिना बादलों बिजली कैसे टूट पड़ी! उन सबों का रोना-चिल्लाना सुनकर बासमती ने दूर ही से पूछा-क्या है! क्या है! तुम सब रोती क्यों हो? उन्हीं में से एक ने कहा, अभी नहाने के लिए देवहूती जल में पैठी थी, इसी बीच न जाने कौन जीव उसको पानी में खींच ले गया। यह सुनते ही देवहूती की मौसी और उसके पड़ोस की दोनों स्त्रियों हाय, हाय करते वहाँ दौड़ आयीं। उन्हीं स्त्रियों में से कई एक ने देवहूती के पानी में उतराते हुए कपड़ों को दिखला कर कहा, इन्हीं कपड़ों को फींचने के लिए देवहूती पानी में पैठी थी, अभी नहाने और कपड़ा फींचने भी नहीं पायी थी, इसी बीच घड़ियाल जान पड़ता है, उसको पकड़ ले गया। उस की बातों को सुनकर सब चिल्ला उठीं, देवहूती की मौसी की बुरी गत हुई। वह पछाड़ खाकर धरती पर गिरी, और कहने लगी, मैं बहन से जाकर क्या कहूँगी। बासमती उसकी यह गत देखकर भीतर-ही-भीतर बहुत सुखी हुई, पर ऊपर से दिखलाने के लिए, उसको समझाने-बुझाने लगी। उन सबको रोते चिल्लाते सुनकर दो चार नावें दौड़ीं, कुछ लोग भी पानी में कूदे, सबों ने समझा कोई डूब गया है-पर जब यह सुना कि किसी को घड़ियाल उठा ले गया, उस घड़ी सब हाथ मलकर पछताने लगे-किसी से कुछ न करते बना।

थोड़ी ही बेर में घाट भर में यह बात फैल गयी-देवहूती को घड़ियाल उठा ले गया। बड़ी कठिनाई से डरते-डरते नहा-धोकर देवहूती की मौसी दूसरी स्त्रियों के साथ घर आयी। देवहूती का घड़ियाल के मुँह में पड़ना सुनकर पारबती की जो गत हुई, उसको हम लिखकर नहीं बतला सकते।

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रचनाएँ
अधखिला फूल
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अधखिला फूल "अधखिला फूला उपाध्याय जी का दूसरा सामाजिक उपन्यास है है देवहूती एक विवाहित स्वी है । उसका पति देवस्वरूप संसार से विरक्त रहते के कारण कहीं बाहर चला जाता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि आज के पाठक को यह भाषा कुछ कृत्रिम-सी लगेगी । सिर भी ऐसा नहीं है कि वह इस रचना में रस न ले सके ।
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अधलिखा फूल भाग 1

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वैशाख का महीना, दो घड़ी रात बीत गयी है। चमकीले तारें चारों ओर आकाश में फैले हुए हैं, दूज का बाल सा पतला चाँद, पश्चिम ओर डूब रहा है, अंधियाला बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों अंधियाला बढ़ता है, तारों की चमक

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भाग 2

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जिस खेत में यह टूटा हुआ तारा गिरा, उसमें देखते-ही-देखते एक भीड़ सी लग गयी, लोग पर लोग चले आते थे, और सब यही चाहते थे, किसी भाँत भीड़ चीरकर उस तारे तक पहुँचें, पर इतने लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे, जिससे

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भाग 3

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एक बहुत ही सजा हुआ घर है, भीतों पर एक-से-एक अच्छे बेल-बूटे बने हुए हैं। ठौर-ठौर भाँति-भाँति के खिलौने रक्खे हैं, बैठकी और हांड़ियों में मोमबत्तियाँ जल रही हैं, बड़ा उँजाला है, बीच में एक पलँग बिछा हुआ

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भाग 4

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 5

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 6

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बासमती जाने से कुछ ही पीछे हरलाल को ले कर लौट आयी। हरलाल छड़ी से टटोल-टटोल कर पाँव रखते हुए घर में आया। उसके आते ही पारबती और देवहूती वहाँ से हटकर कुछ आड़ में बैठ गयीं, पर पड़ोस की दोनों स्त्रियों पहल

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भाग 7

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भोर के सूरज की सुनहली किरणें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही हैं, पेड़ों की पत्तियों को सुनहला बना रही हैं, और पास के पोखरे के जल में धीरे-धीरे आकर उतर रही हैं। चारों ओर किरणों का ही जमावट है, छतों पर, मुड

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भाग 8

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चमकता हुआ सूरज पश्चिम ओर आकाश में धीरे-धीरे डूब रहा है। धीरे-ही-धीरे उसका चमकीला उजला रंग लाल हो रहा है। नीले आकाश में हलके लाल बादल चारों ओर छूट रहे हैं। और पहाड़ की ऊँची उजली चोटियों पर एक फीकी लाल

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भाग 9

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फूल तोड़ते चौबीस दिन हो गये। इतने दिनों में काम कुछ न निकला, यह बात बासमती के जी में आठ पहर खटकने लगी। कामिनीमोहन भी बेचैन हो चला था, इसलिए वह भी कभी-कभी बसमाती को जली कटी सुनाता, इससे बासमती और घबराय

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भाग 10

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हमारे हरमोहन पाण्डे इसी ढंग के लोग हैं-होनहार के भरोसे बाप का कमाया लाखों रुपया उड़ा चुके हैं। बीसों गाँव पास थे, पर एक-एक करके सब बिक चुके हैं। अब तक रहने का घर बचा था। आज उससे भी हाथ धोना चाहते हैं।

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भाग 11

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चारों ओर आग बरस रही है-लू और लपट के मारे मुँह निकालना दूभर है-सूरज बीच आकाश में खड़ा जलते अंगारे उगिल रहा है और चिलचिलाती धूप की चपेटों से पेड़ तक का पत्ता पानी होता है। छर्रों की भाँत धूल के छोटे-छोट

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भाग 12

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देवहूती और उसकी मौसी के घर के ठीक पीछे भीतों से घिरी हुई एक छोटी सी फुलवारी है। भाँत-भाँत के फूल के पौधे इसमें लगे हुए हैं, चारों ओर बड़ी-बड़ी क्यारियाँ हैं, एक-एक क्यारी में एक-एक फूल है-फुलवारी का स

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भाग 13

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पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख पड़ता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली

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भाग 14

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कामिनीमोहन की फुलवारी के चारों ओर जो पक्की भीत है उसमें से उत्तरवाली भीत में एक छोटी सी खिड़की है। यह खिड़की बाहर की ओर ठीक धरती से मिली हुई है, पर भीतर की ओर फुलवारी की धरती से कुछ ऊँचाई पर है। खिड़क

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भाग 15

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>बड़ी गाढ़ी अंधियाली छायी है, ज्यों-ज्यों आकाश में बादलों का जमघट बढ़ता है, अंधियाली और गाढ़ी होती है। गाढ़ापन बढ़ते-बढ़ते ठीक काजल के रंग का हुआ, गाढ़ी अंधियाली और गहरी हुई, इस पर अमावस, आधी रात और स

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भाग 16

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अपनी फुलवारी में टहलते हुए कामिनीमोहन ने पास खड़ी हुई बासमती से कहा- बासमती-क्या मैंने कोई आपके साथ चाल की बात की है? आपके होठों पर आज वह हँसी नहीं है, आँखें डबडबायी हुई हैं, मुँह बहुत ही उतरा हुआ है

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भाग 17

5 अगस्त 2022
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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 18

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 19

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एक बहुत ही घना बन है, आकाश से बातें करनेवाले ऊँचे-ऊँचे पेड़ चारों ओर खड़े हैं-दूर तक डालियों से डालियाँ और पत्तियों से पत्तियाँ मिलती हुई चली गयी हैं। जब पवन चलती है, और पत्तियाँ हिलने लगती हैं, उस घड

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भाग 20

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बन में जहाँ जाकर खोर लोप होती थी, वहाँ के पेड़ बहुत घने नहीं थे। डालियों के बहुतायत से फैले रहने के कारण, देखने में पथ अपैठ जान पड़ता, पर थोड़ा सा हाथ-पाँव हिलाकर चलने से बन के भीतर सभी घुस सकता। पथ य

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भाग 21

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बासमती के चले जाने पर देवहूती अपनी कोठरी में से निकली, कुछ घड़ी आँगन में टहलती रही, फिर डयोढ़ी में आयी। वहाँ पहुँच कर उसने देखा, बासमती पहरे के भीलों से बातचीत कर रही है। यह देखकर वह किवाड़ों तक आयी-औ

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भाग 22

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>कामिनीमोहन की भी आज ठीक यही दशा है-वह खाते पीते, सोते जागते, भोले-भाले मुखड़े का ध्यान करता, जहाँ रसीली बड़ी-बड़ी आँखें देखता वहीं लट्टू होता, गोरे-गोरे हाथों में पतली-पतली चूरियाँ उसको बावला बनातीं,

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भाग 23

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एक चूकता है-एक की बन आती है। एक मरता है-एक के भाग्य जागते हैं। एक गिरता है-एक उठता है। एक बिगड़ता है-एक बनता है। एक ओर सूरज तेज को खोकर पश्चिम ओर डूबता है-दूसरी ओर चाँद हँसते हुए पूर्व ओर आकाश में निक

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भाग 24

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आज तक मरकर कोई नहीं लौटा, पर जिसको हम मरा समझते हैं, उसका जीते जागते रहकर फिर मिल जाना कोई नई बात नहीं है। ऐसे अवसर पर जो आनन्द होता है-वह उस आनन्द से घटकर नहीं कहा जा सकता-जो एक मरे हुए जन के लौट आने

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भाग 25

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बासमती के मारे जाने पर दो चार दिन गाँव में बड़ी हलचल रही, थाने के लोगों ने आकर कितनों को पकड़ा, मारनेवाले को ढूँढ़ निकालने के लिए कोई बात उठा न रखी, पर बासमती से गाँववालों का जी बहुत ही जला हुआ था, इस

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भाग 26

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आज दस बरस पीछे हम फिर बंसनगर में चलते हैं। पौ फट रहा है, दिशाएँ उजली हो रही हैं, और आकाश के तारे एक-एक कर के डूब रहे हैं। सूरज अभी नहीं निकला है, पर लाली चारों ओर दिशाओं में फैल गयी है। कहीं-कहीं पेड़

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