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भाग 8

5 अगस्त 2022

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चमकता हुआ सूरज पश्चिम ओर आकाश में धीरे-धीरे डूब रहा है। धीरे-ही-धीरे उसका चमकीला उजला रंग लाल हो रहा है। नीले आकाश में हलके लाल बादल चारों ओर छूट रहे हैं। और पहाड़ की ऊँची उजली चोटियों पर एक फीकी लाल जोत सी फैल गयी है। जो घर की मुड़ेरों के ऊपर उठती हुई धूप को पकड़ कर किसी ने लाल रंग में रंग दिया है, तो पेड़ों की हरी-हरी पत्तियों पर भी लाली की वह झलक है, जो देखने से काम रखती है। लाल फूलों का लाल रंग ही अवसर पाकर चटकीला नहीं हो गया। पीले, उजले और नीले फूलों में भी ललाई की छींट सी पड़ गयी है। धरती की हरी-हरी दूबों, नदी, तालाब, पोखरों की उठती हुई छोटी-छोटी लहरों, बेल बूटों और झाड़ियों की गोद में छिपी हुई एक-एक पत्तियों तक में ललाई अपना रंग दिखला रही है। जान पड़ता है सारे जग पर एक हलकी लाल चाँदनी सी तन गयी है।

 एक बहुत ही बड़ी और सुहावनी फुलवारी है। उसके एक ओर बहुत से अड़हुल के पौधे लगे हुए हैं। ये सब पौधे जी खोल कर फूले हैं-हरी-हरी पत्तियों में इन फूले हुए अनगिनत फूलों की बड़ी छटा है-जान पड़ता है चारों ओर ललाई का ऐसा समाँ देखकर ही इन फूलों पर इतनी फबन है। इन्हीं बहुत से फूले हुए फूलों में कुछ फूल अधाखिले से हैं, इन पौधों के पास खड़ी एक अधेड़ स्त्री इन अधाखिले फूलों को उँगली बताती जाती है, और एक बहुत ही सुघर और लजीली लड़की अपने लाल-लाल हाथों से धीरे-धीरे उन फूलों को तोड़ रही है। उसका मुँह डूबते हुए सूरज की ओर है, जिस लाली ने सारी धरती को अपने रंग में डुबाकर चारों ओर एक अनूठी छटा फैला रखी है, वह लाली इस खिली चमेली सी लड़की की देह की छबि को भी दूना करके दिखला रही है। इस भोली-भाली लड़की के गोरे-गोरे गालों पर इस घड़ी जो अनूठी और निराली फबन है, कहते नहीं बनती, उसकी सहज लाली दूनी तिगुनी हो गयी है, जिसको देखकर जी का भी जी नहीं भरता। पर उसको बिना झंझट देखना आँखों के भाग में बदा नहीं है, लड़की ने सर के कपड़े को कुछ आगे को खींच रखा है, यही कपड़ा जी भरकर उस छबि को देखने नहीं देता। जब पवन धीरे-धीरे आकर उस कपड़े को हटाती है, उस घड़ी उसके काँच से सुथरे गालों की अनोखी लाली आँखों में रस की सोत सी बहा देती है।

 इन अड़हुल के पौधों के ठीक सामने पश्चिम ओर थोड़ी ही दूर पर एक बहुत ही ऊँची अटारी है। अटारी में पूर्व ओर तीन बड़ी-बड़ी खिड़कियों में से बीचवाली खिड़की पर कोई छिपा हुआ बैठा है-और छिपे ही छिपे, डूबते हुए सूरज की, फूली हुई फुलवारी की, चारों ओर फैली हुई लाली की, और उस सुन्दर सजीली लड़की की अनूठी छटा देख रहा है। डूबते हुए सूरज, चारों ओर फैली लाली, और भाँति-भाँति के फूलोंवाली फुलवारी के देखने से उसके जी में जो रस की एक छोटी सी लहर उठती है, और उससे जो सुख उसको होता है, किसी भाँति बतलाया जा सकता है। पर उस सुन्दर और छबीली लड़की के देखने से उसके गोरे-गोरे गालों की बढ़ी हुई अनूठी लाली पर, किसी भाँति दीठ डालने से, जो एक रस की धारा सी उसके कलेजे में बह जाती है, उसका सुख न किसी भाँति बतलाया जा सकता, न लिखा जा सकता है। वह इस धारा में अपने आपको खोकर धीरे-धीरे आप भी बह रहा है-और साथ ही अपने सुधा-बुध को भी चुपचाप बहा रहा है।

 जिस घड़ी हमने लड़की को फूल तोड़ते देखा था, वह पिछली बारी थी-जितना फूल उसको तोड़ना चाहिए था वह तोड़ चुकी-इसलिए अब यह घर की ओर चली, पीछे-पीछे वह अधेड़ मालिन भी चली। साँझ का समय, चिड़िया चारों ओर मीठे-मीठे सुरों में गा रही थीं, भाँति-भाँति के फूल, फूल रहे थे, ठण्डी-ठण्डी पवन धीरे-धीरे चल रही थी, भीनी-भीनी महँक सब ओर फैली थी, जी मतवाला हो रहा था। साथ की अधेड़ स्त्री समय पर चूकनेवाली न थी। अपनी गिट्टी जमाने का अवसर देखकर बोली-देवहूती! देखो कैसा सुहावना समय है! कैसी निराली शोभा है! पर साँझ क्यों इतनी सुहावनी है? उसमें क्यों इतनी छटा है? क्या तुम इसको बतला सकती हो? साँझ का समय बहुत थोड़ा है-पर इस थोड़े समय में भी जितना प्यार और आदर उसका हो जाता है-और समय को होते देखने में नहीं आया। पर क्या यह गुण उसमें यों ही है? नहीं, यों ही नहीं है? वह अपने समय को जैसा चाहिए उसी भाँति काम में लाती है-इसी से वह इतने ही समय में अपना बहुत कुछ नाम कर जाती है। देखो, वह आते ही चाँद से गले मिलती है-पवन का कलेजा ठण्डा करती है-फूलों को खिला देती है-चिड़ियों को मीठा सुर सिखलाती है-पेड़ों को हरा-भरा बनाती है-आकाश को तारों से सजाती है-लोगों की दिन भर की थकावट दूर करती-और चारों ओर चहल-पहल की धुम सी मचा देती है। सच है, समय रहते ही सब कुछ हो सकता है, समय निकल जाने पर कुछ नहीं होता। पर देखती हूँ, देवहूती! तुम्हारा समय यों ही निकला जाता है, तुम्हारा यह रूप! यह जोवन!! और कोई प्यार करनेवाला नहीं! जैसा चाहिए वैसा आदर नहीं!!! क्या इससे बढ़कर कोई और दुख की बात हो सकती है?

 देवहूती ने ठण्डी साँस भरी, उसकी आँखों में पानी आया, पर कुछ बोली नहीं, जी बहलाने के लिए इधर-उधर देखने लगी। इसी समय सामने फूले हुए कई पेड़ों की झुरमुट में एक बहुत ही सजीला जवान दिखलाई पड़ा। यह धीरे-धीरे उन पेड़ों में टहल रहा था, और साँझ की धीरे बहनेवाली पवन उसके सुनहले दुपट्टे को इधर-उधर उड़ा रही थी। इस जवान की दुहरी गठीली देह पर सुघराई फिसली पड़ती थी, गोरा रंग तपे सोने को लजाता था। बड़ी-बड़ी रसीली आँखें जी को बेचैन करती थीं और ऊँचे चौड़े माथे पर टेढ़े-टेढ़े बाल कुछ ऐसे अनूठेपन के साथ बिखरे थे, जिनके लिए आँखों को उलझन में डाल देना कोई बड़ी बात न थी। भौंहें घनी और आँखों के ऊपर ठीक धनुष की भाँति बनी थीं; पर रह-रह कर न जाने क्यों सिकुड़ती बहुत थीं। मुँह का डौल बहुत ही अच्छा, बहुत ही अनूठा और बहुत ही लुभावना था, पर उसकी निखरी गोराई में लाली के साथ पीलापन भी झलक रहा था। गला गोल, छाती चौड़ी और ऊँची बाँहें भरी और लाँबी, और उँगलियाँ बहुत ही सुडौल थीं। देह की गठन बनावट, लुनाई, सभी बाँकी और अनूठी थीं। देह के कपड़े हाथों की ऍंगूठियाँ, पाँव के जूते सभी अनमोल और सुहावने थे। इस पर जो पेड़ों से उसके ऊपर फूलों की वर्षा हो रही थी, समा दिखलाती थी। देवहूती की आँख जिस घड़ी उसके ऊपर पड़ी, वह सब भूल गयी, सुधा-बुध खो सी गयी। पर थोड़े ही बेर में काया पलट हो गया। जिस घड़ी उसकी आँख इसकी ओर फिरी और चार आँखें हुईं, देवहूती चेत में आ गयी और आँखों को नीचा कर लिया।

वह साथ की स्त्री जो बासमती छोड़ दूसरी नहीं है, यह सब देखकर मन-ही-मन फूल उठी, सजीले जवान का जी भी अधखिली कली की भाँति खिल उठा, दोनों ने समझा रंग जैसा चाहिए वैसा जम गया। पर इस घड़ी देवहूती के जी की क्या दशा थी, इसकी छान-बीन ठीक ठाक न हो सकी। धीरे-धीरे सूरज डूबा, और धीरे-ही-धीरे देवहूती बासमती के साथ फुलवारी से बाहर होकर घर आयी। पर उसका जी न जाने कैसा कर रहा है।

यह सजीला जवान कामिनीमोहन है, यह तो आप लोग जान ही गये होंगे। अटारी पर खिड़की में बैठा हुआ यही देवहूती की छटा देख रहा था-और उसकी छटा देखकर जो उस पर बीती आप लोगों से छिपा नहीं है। पर वहाँ बैठे-बैठे देवहूती पर अपना बान न चला सका, इसीलिए जब देवहूती फूल तोड़ कर चली, तो वह भी चट कोठे से उतर कर पेड़ों की झुरमुट में आया, और टहलने लगा। यहाँ कुछ उसके मन की सी हो गयी, यह आप लोग जानते हैं।

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रचनाएँ
अधखिला फूल
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अधखिला फूल "अधखिला फूला उपाध्याय जी का दूसरा सामाजिक उपन्यास है है देवहूती एक विवाहित स्वी है । उसका पति देवस्वरूप संसार से विरक्त रहते के कारण कहीं बाहर चला जाता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि आज के पाठक को यह भाषा कुछ कृत्रिम-सी लगेगी । सिर भी ऐसा नहीं है कि वह इस रचना में रस न ले सके ।
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अधलिखा फूल भाग 1

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वैशाख का महीना, दो घड़ी रात बीत गयी है। चमकीले तारें चारों ओर आकाश में फैले हुए हैं, दूज का बाल सा पतला चाँद, पश्चिम ओर डूब रहा है, अंधियाला बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों अंधियाला बढ़ता है, तारों की चमक

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भाग 2

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जिस खेत में यह टूटा हुआ तारा गिरा, उसमें देखते-ही-देखते एक भीड़ सी लग गयी, लोग पर लोग चले आते थे, और सब यही चाहते थे, किसी भाँत भीड़ चीरकर उस तारे तक पहुँचें, पर इतने लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे, जिससे

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भाग 3

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एक बहुत ही सजा हुआ घर है, भीतों पर एक-से-एक अच्छे बेल-बूटे बने हुए हैं। ठौर-ठौर भाँति-भाँति के खिलौने रक्खे हैं, बैठकी और हांड़ियों में मोमबत्तियाँ जल रही हैं, बड़ा उँजाला है, बीच में एक पलँग बिछा हुआ

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भाग 4

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 5

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 6

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बासमती जाने से कुछ ही पीछे हरलाल को ले कर लौट आयी। हरलाल छड़ी से टटोल-टटोल कर पाँव रखते हुए घर में आया। उसके आते ही पारबती और देवहूती वहाँ से हटकर कुछ आड़ में बैठ गयीं, पर पड़ोस की दोनों स्त्रियों पहल

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भाग 7

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भोर के सूरज की सुनहली किरणें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही हैं, पेड़ों की पत्तियों को सुनहला बना रही हैं, और पास के पोखरे के जल में धीरे-धीरे आकर उतर रही हैं। चारों ओर किरणों का ही जमावट है, छतों पर, मुड

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भाग 8

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चमकता हुआ सूरज पश्चिम ओर आकाश में धीरे-धीरे डूब रहा है। धीरे-ही-धीरे उसका चमकीला उजला रंग लाल हो रहा है। नीले आकाश में हलके लाल बादल चारों ओर छूट रहे हैं। और पहाड़ की ऊँची उजली चोटियों पर एक फीकी लाल

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भाग 9

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फूल तोड़ते चौबीस दिन हो गये। इतने दिनों में काम कुछ न निकला, यह बात बासमती के जी में आठ पहर खटकने लगी। कामिनीमोहन भी बेचैन हो चला था, इसलिए वह भी कभी-कभी बसमाती को जली कटी सुनाता, इससे बासमती और घबराय

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भाग 10

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हमारे हरमोहन पाण्डे इसी ढंग के लोग हैं-होनहार के भरोसे बाप का कमाया लाखों रुपया उड़ा चुके हैं। बीसों गाँव पास थे, पर एक-एक करके सब बिक चुके हैं। अब तक रहने का घर बचा था। आज उससे भी हाथ धोना चाहते हैं।

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भाग 11

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चारों ओर आग बरस रही है-लू और लपट के मारे मुँह निकालना दूभर है-सूरज बीच आकाश में खड़ा जलते अंगारे उगिल रहा है और चिलचिलाती धूप की चपेटों से पेड़ तक का पत्ता पानी होता है। छर्रों की भाँत धूल के छोटे-छोट

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भाग 12

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देवहूती और उसकी मौसी के घर के ठीक पीछे भीतों से घिरी हुई एक छोटी सी फुलवारी है। भाँत-भाँत के फूल के पौधे इसमें लगे हुए हैं, चारों ओर बड़ी-बड़ी क्यारियाँ हैं, एक-एक क्यारी में एक-एक फूल है-फुलवारी का स

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भाग 13

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पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख पड़ता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली

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भाग 14

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कामिनीमोहन की फुलवारी के चारों ओर जो पक्की भीत है उसमें से उत्तरवाली भीत में एक छोटी सी खिड़की है। यह खिड़की बाहर की ओर ठीक धरती से मिली हुई है, पर भीतर की ओर फुलवारी की धरती से कुछ ऊँचाई पर है। खिड़क

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भाग 15

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>बड़ी गाढ़ी अंधियाली छायी है, ज्यों-ज्यों आकाश में बादलों का जमघट बढ़ता है, अंधियाली और गाढ़ी होती है। गाढ़ापन बढ़ते-बढ़ते ठीक काजल के रंग का हुआ, गाढ़ी अंधियाली और गहरी हुई, इस पर अमावस, आधी रात और स

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भाग 16

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अपनी फुलवारी में टहलते हुए कामिनीमोहन ने पास खड़ी हुई बासमती से कहा- बासमती-क्या मैंने कोई आपके साथ चाल की बात की है? आपके होठों पर आज वह हँसी नहीं है, आँखें डबडबायी हुई हैं, मुँह बहुत ही उतरा हुआ है

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भाग 17

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 18

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 19

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एक बहुत ही घना बन है, आकाश से बातें करनेवाले ऊँचे-ऊँचे पेड़ चारों ओर खड़े हैं-दूर तक डालियों से डालियाँ और पत्तियों से पत्तियाँ मिलती हुई चली गयी हैं। जब पवन चलती है, और पत्तियाँ हिलने लगती हैं, उस घड

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भाग 20

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बन में जहाँ जाकर खोर लोप होती थी, वहाँ के पेड़ बहुत घने नहीं थे। डालियों के बहुतायत से फैले रहने के कारण, देखने में पथ अपैठ जान पड़ता, पर थोड़ा सा हाथ-पाँव हिलाकर चलने से बन के भीतर सभी घुस सकता। पथ य

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भाग 21

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बासमती के चले जाने पर देवहूती अपनी कोठरी में से निकली, कुछ घड़ी आँगन में टहलती रही, फिर डयोढ़ी में आयी। वहाँ पहुँच कर उसने देखा, बासमती पहरे के भीलों से बातचीत कर रही है। यह देखकर वह किवाड़ों तक आयी-औ

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भाग 22

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>कामिनीमोहन की भी आज ठीक यही दशा है-वह खाते पीते, सोते जागते, भोले-भाले मुखड़े का ध्यान करता, जहाँ रसीली बड़ी-बड़ी आँखें देखता वहीं लट्टू होता, गोरे-गोरे हाथों में पतली-पतली चूरियाँ उसको बावला बनातीं,

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भाग 23

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एक चूकता है-एक की बन आती है। एक मरता है-एक के भाग्य जागते हैं। एक गिरता है-एक उठता है। एक बिगड़ता है-एक बनता है। एक ओर सूरज तेज को खोकर पश्चिम ओर डूबता है-दूसरी ओर चाँद हँसते हुए पूर्व ओर आकाश में निक

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भाग 24

5 अगस्त 2022
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आज तक मरकर कोई नहीं लौटा, पर जिसको हम मरा समझते हैं, उसका जीते जागते रहकर फिर मिल जाना कोई नई बात नहीं है। ऐसे अवसर पर जो आनन्द होता है-वह उस आनन्द से घटकर नहीं कहा जा सकता-जो एक मरे हुए जन के लौट आने

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भाग 25

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बासमती के मारे जाने पर दो चार दिन गाँव में बड़ी हलचल रही, थाने के लोगों ने आकर कितनों को पकड़ा, मारनेवाले को ढूँढ़ निकालने के लिए कोई बात उठा न रखी, पर बासमती से गाँववालों का जी बहुत ही जला हुआ था, इस

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भाग 26

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आज दस बरस पीछे हम फिर बंसनगर में चलते हैं। पौ फट रहा है, दिशाएँ उजली हो रही हैं, और आकाश के तारे एक-एक कर के डूब रहे हैं। सूरज अभी नहीं निकला है, पर लाली चारों ओर दिशाओं में फैल गयी है। कहीं-कहीं पेड़

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