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भाग 21

5 अगस्त 2022

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बासमती के चले जाने पर देवहूती अपनी कोठरी में से निकली, कुछ घड़ी आँगन में टहलती रही, फिर डयोढ़ी में आयी। वहाँ पहुँच कर उसने देखा, बासमती पहरे के भीलों से बातचीत कर रही है। यह देखकर वह किवाड़ों तक आयी-और बहुत फुर्ती के साथ किवाड़ों को लगाकर-फिर भीतर लौट गयी। जब देवहूती अपनी कोठरी के पास पहुँची-देखा उस कोठरी में से एक जन आँगन की ओर निकला आ रहा है। यह देखकर वह भौचक बन गयी-सोचा राम-राम करके अभी बासमती से पीछा छूटा है-फिर यही बिपत कहाँ से आयी। बड़ा अचरज उसको इस बात का था-यह कोठरी में आया तो कैसे आया ? उसमें तो कहीं से कोई पथ नहीं जान पड़ता!!! देवहूती घबराने को तो बहुत घबरायी-पर उसके जी को कुछ ढाढ़स भी हुआ। उसने पहचाना यह वही जन है-जिसने उस अंधियाली रात में उसके कोठे पर कामिनीमोहन से उसका सत बचाया था। देवहूती यह सब जान-बूझकर कुछ सोच रही थी, इसी बीच उसने पास आकर कुछ दूर से पूछा, देवहूती! मुझको पहचानती हो?

देवहूती ने सर नीचे करके कहा-क्यों नहीं पहचानती हूँ! जिसने प्राण से भी प्यारे मेरे धर्म की रक्षा की, क्या मैं उस को भूल सकती हूँ!

आये हुए जन का नाम देवस्वरूप है, यह आप लोग अब समझ गये होंगे। देवहूती की बातों को सुनकर उसने कहा-मैं तुमसे कुछ बातचीत करने के लिए यहाँ आया हूँ-मुझ से बातचीत करने में तुमको कुछ आनाकानी तो नहीं है? मैं नहीं चाहता बिना पूछे तुमसे सारी बातें कहने लगूँ।

देवहूती-मुझको चेत है-आपने उस दिन कहा था, जो लोग धर्म की रक्षा के लिए कभी-कभी इस धरती पर दिखलाई देते हैं-मैं वहीं हूँ। जो सचमुच आप वही हैं तो आपसे बातचीत करने में मुझको कुछ आनाकानी नहीं है। पर बात इतनी है, इस भाँति आपसे बातचीत करके मुझको इस सुनसान घर में जो कोई देख लेगा-तो न जाने क्या समझेगा। जो कोई न देखे तो धर्म के विचार से भी किसी सुनसान घर में किसी पराई स्त्री का पराये पुरुष के साथ रहना और बातचीत करना अच्छा नहीं है। आप बड़े लोग हैं, इन बातों को सोचकर जो अच्छा जान पड़े कीजिए, मैं आपसे बहुत कुछ नहीं कह सकती।

देवस्वरूप-मैं यह जानता हँ, बासमती यहाँ आयी हुई है-दूसरी बातें जो तुम कहती हो मुझको भी उनका वैसा ही विचार है। मैं कभी यहाँ न आता, पर एक तो मैंने देखा, बिना अन्न-पानी तुम मर जाना चाहती हो। दूसरे आज अभी एक ऐसी बात हुई है, जिससे तुम्हारी सारी बिपत कट गयी। मुझको यह बात तुमको सुनानी थी, इसीलिए मुझको यहाँ आना पड़ा।

देवहूती-वह कौन सी बात है जिससे मेरी सारी बिपत कट गयी? आप दया करके उसको बतला सकते हैं?

देवस्वरूप-कामिनीमोहन कल्ह रात में ही बासमती को यहाँ छोड़कर घर चला गया था। आज दिन निकले वह गाँव से इस बन की ओर घोड़े को सरपट फेंकता हुआ आ रहा था। इसी बीच एक गीदड़ एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में ठीक घोड़े के सामने से होकर दौड़ता हुआ निकल गया। घोड़ा अचानक चौंक पड़ा-और उस पर से धड़ाम से कामिनीमोहन नीचे गिर पड़ा। गिरते ही उसका सर फट गया-और वह अचेत हो गया। उसके लोग जो पीछे आ रहे थे-घड़ी भर हुआ उसको उठाकर घर ले गये। जैसी चोट उसको आयी है-उससे अब उसके बचने का कुछ भरोसा नहीं है-मैं इसी से कहता था, तुम्हारी सारी बिपत कट गयी।

देवहूती-कामिनीमोहन ने अपनी करनी का फल पाया है, और मैं क्या कहूँ!!! पर सचमुच क्या आप कोई देवता हैं, जो इस भाँति बिना किसी स्वार्थ के दूसरों का दुख दूर करते फिरते हैं!

देवस्वरूप-मैं देवता नहीं हूँ-एक बहुत ही छोटा जीव हूँ। उस दिन मैंने यह बात इसलिए कही थी-जिससे कामिनीमोहन डरकर पाप करना छोड़ देवे।

देवहूती-अभी आपको मुझसे कुछ और कहना है?

देवस्वरूप-दो बातें कहनी हैं। एक तो तुम कुछ खाओ पीओ-दूसरे यहाँ का रहना छोड़कर घर चलो। तुम्हारी माँ की तुम्हारे बिना बुरी गत है-उनकी दशा देखकर पत्थर का कलेजा भी फटता है।

देवहूती-आपका कहना सर आँखों पर-आप में बड़ी दया है। पर आप जानते हैं स्त्रियों का धर्म बड़ा कठिन है! आपने मेरी बहुत बड़ी भलाई की है-मेरा रोआँ-रोआँ आपका ऋणी है। पर इतना सब होने पर भी आप निरे अनजान हैं-आप जैसे अनजान और बिना जान-पहचान के पुरुष के साथ मैं कहीं आ-जा नहीं सकती। दूसरे जो दो दिन पीछे मैं इस भाँत अचानक घर चली चलूँ तो माँ न जाने क्या समझेंगी। अभी तो उन्हांने यही सुना है-मैं डूबकर मर गयी-रो कलप कर उनका मन मान ही जावेगा। पर जो कहीं उनके मन में मेरी ओर से कोई बुरी बात समायी-तो अनर्थ होगा-मेरा उन का दोनों का जीना भारी होगा। रहा कुछ खाना-पीना, इसके लिए अब आप कुछ न कहें। मैं समझ-बूझ कर जो करना होगा, करूँगी।

देवस्वरूप-बात तुम बहुत ठीक कहती हो-मैंने तुम्हारी इन बातों को सुनकर बहुत सुख माना। पर इतना मुझको और कहना है-इस बन से तुम्हारा छुटकारा बिना मेरी परतीत किए नहीं हो सकता।

देवहूती-क्या मैं आपकी परतीत नहीं करती हूँ-यह आप न कहें। मेरा धर्म क्या है, इस बात को आप सोचिए। और बतलाइए मुझको क्या करना चाहिए। इस जग में सैकड़ों बातें लोग ऐसी करते हैं-जिनमें ऊपर से देखने में उनका कोई अर्थ नहीं होता-पर समय पाकर उन्हीं बातों में उनकी बड़ी दूर की चाल पायी जाती है। आज जिसको किसी की भलाई के लिए अपना तन मन धन सब निछावर करते देखते हैं-कल्ह उसी को उसके साथ अपने जी की किसी बहुत ही छिपी चाल के लिए ऐसा बुरा बरताव करते पाते हैं-जिसको देखकर बड़े पापी के भी रोंगटे खड़े होते हैं। ये बातें ऐसी हैं जिनका मरम आप जैसे बड़े लोग भी ठीक-ठीक नहीं पाते। स्त्रियों क्या हैं जो इन भेद की बातों का ओर-छोर पा सकें। इसीलिए उनको यह एक मोटी बात बतलायी हुई है-अपने इने-गिने जान-पहचान के लोगों को छोड़कर दूसरे को पतिआना उनका धर्म नहीं है। मैं आपसे इन्हीं बातों को सोचने के लिए कहती हँ। रहा इस बन से छुटकारा पाना। यह एक ऐसी बात है जिसके लिए मुझको तनिक घबराहट नहीं है-अपजस के साथ घर लौटने से जान के साथ बन में मरना अच्छा है।

देवस्वरूप-मैं तुम्हारे इन विचारों को सराहता हूँ। तुम्हारे धीरज करने से ही तुम्हारी सारी बिपत कटती है।

देवस्वरूप के इतना कहते ही उसी कोठरी में से एक जन और देवहूती की ओर आता दिखलायी पड़ा। इसके सिर पर बड़ी-बड़ी जटाएँ थीं, उसकी बहुत ही घनी उजली और लम्बी दाढ़ी थीं, जो छाती पर भोंड़ेपन के साथ फैली थी, मुखड़े पर तेज था, पर यह तेज निखरा हुआ तेज न था, इसमें उदासी की छींट थी। माथे में तिलक, गले में तुलसी की माला, बाएँ कंधो पर जनेऊ और हाथ में तूमा था। ऍंचले की भाँति एक धोती कमर से बँधी थी-जो कठिनाई से ठेहुने के नीचे तक पहुँचती थी। स्वभाव बहुत ही सीधा और भला जान पड़ता था, भलमनसाहत रोएँ-रोएँ से टपकती थी। जब यह देवहूती के पास पहुँचा, देवस्वरूप ने कहा, देवहूती इनकी ओर देखो, इनको मत्था नवाओ, और अब तुम इनके साथ जाकर कुछ खाओ-पीओ, मैं देखता हँ तुम्हारा जी गिरता जाता है-इनके साथ जाने में भी क्या तुमको कोई अटक रहेगी?

देवहूती ने बड़ी कठिनाई से सर उठाकर इस दूसरे जन की ओर देखा, देखते ही चौंक उठी मानो सोते से जाग पड़ी। उस के जी में बड़ा भारी उलट फेर हुआ-कुछ घड़ी वह ठीक पत्थर की मूर्ति बन गयी। पीछे उसकी आँखों से आँसू बह निकले। देवस्वरूप ने उस दूसरे जन का भी रंग कुछ पलटता देखकर कहा-देखो इन सब बातों का अभी समय नहीं है-इस घड़ी चुपचाप यहाँ से निकल चलना चाहिए, फिर जैसा होगा, देखा जावेगा। यहाँ रहने में भी अब कोई खटका नहीं है-बासमती कुछ कर नहीं सकती। पर जब तक कामिनीमोहन का क्या हुआ, यह ठीक न जान लिया जावे, तब तक किसी हाथ आयी बात में चूकना अच्छा नहीं!। देवस्वरूप की बातों को सुनकर दूसरा जन कोठरी की ओर चला-देवहूती बिना कुछ कहे उसके पीछे चली। इन दोनों के पीछे देवस्वरूप चला-तीनों कोठरी में आये।

कोठरी में पहुँचकर देवहूती ने देखा वहाँ की धरती में एक सुरंग है-और उसी सुरंग में से होकर नीचे उतरने को सीढ़ियाँ हैं। इसी पथ से होकर ये तीनों जन नीचे उतरे, नीचे उतरकर देवस्वरूप ने वहीं लटकती हुई एक लम्बी रस्सी को पकड़कर खींचा, उसके खींचते ही सुरंग का मुँह मुँद गया-और नीचे ऊपर पहले जैसा था-ठीक वैसा ही हुआ। पीछे वह तीनों जन नीचे ही नीचे बन में एक ओर निकल गये।    

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रचनाएँ
अधखिला फूल
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अधखिला फूल "अधखिला फूला उपाध्याय जी का दूसरा सामाजिक उपन्यास है है देवहूती एक विवाहित स्वी है । उसका पति देवस्वरूप संसार से विरक्त रहते के कारण कहीं बाहर चला जाता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि आज के पाठक को यह भाषा कुछ कृत्रिम-सी लगेगी । सिर भी ऐसा नहीं है कि वह इस रचना में रस न ले सके ।
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अधलिखा फूल भाग 1

5 अगस्त 2022
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वैशाख का महीना, दो घड़ी रात बीत गयी है। चमकीले तारें चारों ओर आकाश में फैले हुए हैं, दूज का बाल सा पतला चाँद, पश्चिम ओर डूब रहा है, अंधियाला बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों अंधियाला बढ़ता है, तारों की चमक

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भाग 2

5 अगस्त 2022
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जिस खेत में यह टूटा हुआ तारा गिरा, उसमें देखते-ही-देखते एक भीड़ सी लग गयी, लोग पर लोग चले आते थे, और सब यही चाहते थे, किसी भाँत भीड़ चीरकर उस तारे तक पहुँचें, पर इतने लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे, जिससे

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भाग 3

5 अगस्त 2022
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एक बहुत ही सजा हुआ घर है, भीतों पर एक-से-एक अच्छे बेल-बूटे बने हुए हैं। ठौर-ठौर भाँति-भाँति के खिलौने रक्खे हैं, बैठकी और हांड़ियों में मोमबत्तियाँ जल रही हैं, बड़ा उँजाला है, बीच में एक पलँग बिछा हुआ

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भाग 4

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 5

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 6

5 अगस्त 2022
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बासमती जाने से कुछ ही पीछे हरलाल को ले कर लौट आयी। हरलाल छड़ी से टटोल-टटोल कर पाँव रखते हुए घर में आया। उसके आते ही पारबती और देवहूती वहाँ से हटकर कुछ आड़ में बैठ गयीं, पर पड़ोस की दोनों स्त्रियों पहल

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भाग 7

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भोर के सूरज की सुनहली किरणें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही हैं, पेड़ों की पत्तियों को सुनहला बना रही हैं, और पास के पोखरे के जल में धीरे-धीरे आकर उतर रही हैं। चारों ओर किरणों का ही जमावट है, छतों पर, मुड

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भाग 8

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चमकता हुआ सूरज पश्चिम ओर आकाश में धीरे-धीरे डूब रहा है। धीरे-ही-धीरे उसका चमकीला उजला रंग लाल हो रहा है। नीले आकाश में हलके लाल बादल चारों ओर छूट रहे हैं। और पहाड़ की ऊँची उजली चोटियों पर एक फीकी लाल

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भाग 9

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फूल तोड़ते चौबीस दिन हो गये। इतने दिनों में काम कुछ न निकला, यह बात बासमती के जी में आठ पहर खटकने लगी। कामिनीमोहन भी बेचैन हो चला था, इसलिए वह भी कभी-कभी बसमाती को जली कटी सुनाता, इससे बासमती और घबराय

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भाग 10

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हमारे हरमोहन पाण्डे इसी ढंग के लोग हैं-होनहार के भरोसे बाप का कमाया लाखों रुपया उड़ा चुके हैं। बीसों गाँव पास थे, पर एक-एक करके सब बिक चुके हैं। अब तक रहने का घर बचा था। आज उससे भी हाथ धोना चाहते हैं।

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भाग 11

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चारों ओर आग बरस रही है-लू और लपट के मारे मुँह निकालना दूभर है-सूरज बीच आकाश में खड़ा जलते अंगारे उगिल रहा है और चिलचिलाती धूप की चपेटों से पेड़ तक का पत्ता पानी होता है। छर्रों की भाँत धूल के छोटे-छोट

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भाग 12

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देवहूती और उसकी मौसी के घर के ठीक पीछे भीतों से घिरी हुई एक छोटी सी फुलवारी है। भाँत-भाँत के फूल के पौधे इसमें लगे हुए हैं, चारों ओर बड़ी-बड़ी क्यारियाँ हैं, एक-एक क्यारी में एक-एक फूल है-फुलवारी का स

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भाग 13

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पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख पड़ता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली

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भाग 14

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कामिनीमोहन की फुलवारी के चारों ओर जो पक्की भीत है उसमें से उत्तरवाली भीत में एक छोटी सी खिड़की है। यह खिड़की बाहर की ओर ठीक धरती से मिली हुई है, पर भीतर की ओर फुलवारी की धरती से कुछ ऊँचाई पर है। खिड़क

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भाग 15

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>बड़ी गाढ़ी अंधियाली छायी है, ज्यों-ज्यों आकाश में बादलों का जमघट बढ़ता है, अंधियाली और गाढ़ी होती है। गाढ़ापन बढ़ते-बढ़ते ठीक काजल के रंग का हुआ, गाढ़ी अंधियाली और गहरी हुई, इस पर अमावस, आधी रात और स

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भाग 16

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अपनी फुलवारी में टहलते हुए कामिनीमोहन ने पास खड़ी हुई बासमती से कहा- बासमती-क्या मैंने कोई आपके साथ चाल की बात की है? आपके होठों पर आज वह हँसी नहीं है, आँखें डबडबायी हुई हैं, मुँह बहुत ही उतरा हुआ है

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भाग 17

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 18

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 19

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एक बहुत ही घना बन है, आकाश से बातें करनेवाले ऊँचे-ऊँचे पेड़ चारों ओर खड़े हैं-दूर तक डालियों से डालियाँ और पत्तियों से पत्तियाँ मिलती हुई चली गयी हैं। जब पवन चलती है, और पत्तियाँ हिलने लगती हैं, उस घड

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भाग 20

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बन में जहाँ जाकर खोर लोप होती थी, वहाँ के पेड़ बहुत घने नहीं थे। डालियों के बहुतायत से फैले रहने के कारण, देखने में पथ अपैठ जान पड़ता, पर थोड़ा सा हाथ-पाँव हिलाकर चलने से बन के भीतर सभी घुस सकता। पथ य

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भाग 21

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बासमती के चले जाने पर देवहूती अपनी कोठरी में से निकली, कुछ घड़ी आँगन में टहलती रही, फिर डयोढ़ी में आयी। वहाँ पहुँच कर उसने देखा, बासमती पहरे के भीलों से बातचीत कर रही है। यह देखकर वह किवाड़ों तक आयी-औ

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भाग 22

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>कामिनीमोहन की भी आज ठीक यही दशा है-वह खाते पीते, सोते जागते, भोले-भाले मुखड़े का ध्यान करता, जहाँ रसीली बड़ी-बड़ी आँखें देखता वहीं लट्टू होता, गोरे-गोरे हाथों में पतली-पतली चूरियाँ उसको बावला बनातीं,

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भाग 23

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एक चूकता है-एक की बन आती है। एक मरता है-एक के भाग्य जागते हैं। एक गिरता है-एक उठता है। एक बिगड़ता है-एक बनता है। एक ओर सूरज तेज को खोकर पश्चिम ओर डूबता है-दूसरी ओर चाँद हँसते हुए पूर्व ओर आकाश में निक

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भाग 24

5 अगस्त 2022
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आज तक मरकर कोई नहीं लौटा, पर जिसको हम मरा समझते हैं, उसका जीते जागते रहकर फिर मिल जाना कोई नई बात नहीं है। ऐसे अवसर पर जो आनन्द होता है-वह उस आनन्द से घटकर नहीं कहा जा सकता-जो एक मरे हुए जन के लौट आने

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भाग 25

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बासमती के मारे जाने पर दो चार दिन गाँव में बड़ी हलचल रही, थाने के लोगों ने आकर कितनों को पकड़ा, मारनेवाले को ढूँढ़ निकालने के लिए कोई बात उठा न रखी, पर बासमती से गाँववालों का जी बहुत ही जला हुआ था, इस

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भाग 26

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आज दस बरस पीछे हम फिर बंसनगर में चलते हैं। पौ फट रहा है, दिशाएँ उजली हो रही हैं, और आकाश के तारे एक-एक कर के डूब रहे हैं। सूरज अभी नहीं निकला है, पर लाली चारों ओर दिशाओं में फैल गयी है। कहीं-कहीं पेड़

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