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भाग 22

5 अगस्त 2022

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>कामिनीमोहन की भी आज ठीक यही दशा है-वह खाते पीते, सोते जागते, भोले-भाले मुखड़े का ध्यान करता, जहाँ रसीली बड़ी-बड़ी आँखें देखता वहीं लट्टू होता, गोरे-गोरे हाथों में पतली-पतली चूरियाँ उसको बावला बनातीं, सुरीले कण्ठ का बोल सुनकर वह अपनी देह तक भूल जाता, गरदाया हुआ जोबन उसके कलेजे में पीर उठाता-उसकी इन्हीं बातों ने उसको नई-नई जवान स्त्रियों का रसिया बनाया। कितनी स्त्रियों का सत उसके हाथों खोया गया, कितनी स्त्रियों उसके हाथों मिट्टी में मिलीं, पर उसकी चाह न घटी, आजकल वह देवहूती पर मर रहा था, बिना देवहूती चारों ओर उसकी आँखों के सामने अंधेरा था। पर काल ने उसकी इन बातों को न सोचा, आजकल वह काल के हाथों पड़ा है, काल को उसकी तनिक पीर नहीं है, आज वह उसको धरती से उठा लेना चाहता है।

कामिनीमोहन अपने घर की एक कोठरी में एक पलँग पर पड़ा हुआ आँखों से आँसू बहा रहा है। वहीं दस-पाँच जन और बैठे हुए हैं। दो-चार जन उसकी सम्हाल कर रहे हैं-गाँव के पुराने बैद पास बैठे हुए देखभाल कर रहे हैं। पर उ]=नके मुखड़े पर उदासी छायी हुई है-वे कामिनीमोहन की दशा घड़ी-घड़ी बिगड़ते देखकर हाथ मल रहे हैं, पर उनसे कुछ करते नहीं बनता। कामिनीमोहन पहले अचेत था, पर बैद ने दो-एक बलवाली ऐसी औषधों खिलायी हैं, जिससे अब वह चेत में है। पर चेत में होने ही से क्या होता है-लहू सर से इतना निकल गया है और चोट इतनी गहरी आयी है-जिससे अब लोग उसकी घड़ी गिन रहे हैं-कामिनीमोहन के पास जो दस-पाँच जन बैठे हैं उनमें कुछ साधु और कुछ घरबारियों के भेस में। एक जन और बैठा है। इसका मुखड़ा भी उदास है, जी पर कुछ चोट सी लगी जान पड़ती है, आँखें भी थिर हैं, पर कभी-कभी बिजली की कौंध की भाँत मुखड़े पर तेज भी झलक जाता है। साथ ही मुँह की एक ठण्डी साँस निकल कर बाहर की पवन में मिल जाती है। इसने कामिनीमोहन को अपनी ओर निराशभरी दीठ से बार-बार ताकते देखकर कहा, क्या आप मुझको पहचानते हैं?

कामिनीमोहन-हाँ! पहचानता हूँ! देवस्वरूप आपका नाम है। उस दिन आप देवहूती की बिपत में सहाय हुए थे, क्या आज मुझको बिपत से उबारने के लिए आप यहाँ आये हैं?

देवस्वरूप की आँखों में पानी आया, उन्होंने कहा, मेरे हाथों जो आपका कुछ भला हो सके तो मैं जी से उसको करना चाहता हँ, आपकी दशा देखकर मुझको बड़ा दुख है पर क्या करूँ, मेरा कोई बस नहीं चलता। उस दिन देवहूती को बचाने के लिए जी पर खेल गया था, आज आपके लिए भी अपने को जोखों में डाल सकता हूँ, पर कैसे आपका भला होगा-यह मुझको बतलाया जाना चाहिए। मैं, जितने जीव हैं सबका भला करना, सबको बिपत से उबारना, अपना धर्म समझता हूँ-आपका भला करने में क्यों हिचकूँगा।

कामिनीमोहन-आप बड़े लोग हैं जो ऐसा कहते हैं-सच तो यों है, अब मैं किसी भाँति नहीं बच सकता-मेरे दिन पूरे हो गये। पर आप किसी भाँति यहाँ आ गये हैं, तो मैं आपसे दो-चार बातें पूछना चाहता हूँ, क्या आप उनको बतला सकतेहैं?

देवस्वरूप-मैंने जो कुछ किया है-धर्म के नाते किया है, धर्म में खोट नहीं होती-आप पूछें, मैं सब बातें सच-सच कहूँगा।

कामिनीमोहन ने इतना सुनकर, जो लोग कोठरी में बैठे थे बैद छोड़ उन सब लोगों से कहा, आप लोग थोड़ी बेर के लिए बाहर जाइये। उन लोगों के बाहर चले जाने पर उसने देवस्वरूप से कहा-पहले यह बतलाइये उस दिन आप देवहूती के कोठे पर कैसे पहुँचे, क्या आप देवहूती के कोई हैं? जो आप देवहूती के कोई नहीं हैं-तो आपने मेरी भेद की बातों को कैसे जान लिया।

देवस्वरूप-बड़ों ने कहा है पाप कभी नहीं छिपता, क्यों उन्हांने ऐसा कहा है, यह बात थोड़ा सा विचार करने पर अपने आप समझ में आती है। सच बात यह है-जिन पापों को हम बहुत छिपकर करते हैं, उनके भी देखने-सुननेवाले मिल जाते हैं। एक ही समय सब ओर न देखनेवाली हमारी आँखें चूकती हैं-दूसरी ओर लगा हुआ हमारा कान पास की बात भी नहीं सुनता। पर हमारे कामों की ओर लगी हुई देखनेवालों की आँखें-हमारी बहुत ही धीरे कही गयी बातों की ओर लगे हुए सुननेवालों के कान अपने-अपने अवसर पर नहीं चूकते। बहुत ही चुपचाप ये सब अपना काम करते हैं-और हमारी बहुत सी बातों को जानकर हमारी बहुत सी होनेवाली बुराइयों का हाथ बाँटते हैं। पीछे इन्हीं देखने सुननेवालों से हमारे पापों का भण्डा फूटता है। जिस दिन आपने रात में मुझको देवहूती के कोठे पर पाया, उसी दिन दोपहर को मैं देवहूती के घर के पासवाले पीपल के पेड़ के नीचे बैठा था। इस पीपल के पेड़ के पास एक पक्का कुआँ है-इसी कुएँ पर मुझको दो स्त्रियों बात करती दिखलाई पड़ीं। उनमें एक बासमती थी, और दूसरी भगमानी। उन दोनों में बातचीत धीरे-धीरे हो रही थी, पर मैं सब सुनता था। एक दो बार बासमती की दीठ मेरी ओर फिरी थी, पर उसने मुझको देखकर भी नहीं देखा। एक बार जब उसकी दीठ मुझपर पूरी पड़ी, तो वह कुछ चौंकी, पर उसी क्षण वह समझ गयी, मैं बटोही हूँ। जो मैं गाँव का होता तो उसको कुछ उलझन होती भी, पर बटोही समझकर वह मेरी ओर से निचिन्त हो गयी। और जो बातें भगमानी से कहने को रह गयी थीं, उनको भी उस भाँति धीरे-धीरे उसने उससे कहा, पीछे दोनों वहाँ से चली गयीं। जितनी बातें बासमती और भगमानी में हुईं-उनको सुनकर मैं उस दिन होनेवाली सब बातों को भली-भाँति जान गया, और उसी समय अपने मन में ठाना, जैसे हो एक भले घर की स्त्री का सत बचाना चाहिए। यह सब सोचकर मैं छ: घड़ी रात गये, देवहूती के घर के पिछवाडे एक ठौर ओलती के नीचे आकर खड़ा हुआ। आप अपने दोनों साथियों के साथ ठीक मेरे पास से होकर निकले थे-पर आपने मुझको नहीं देखा। जिस खिड़की से होकर हम और आप ऊपर गये थे-वह खिड़की उस ठौर के बहुत पास थी। आपको दो और साथियों के साथ देखकर मैं घबराया, पर कुछ ही बेर में मेरी विपत टल गयी, जब आपके दोनों साथी आपके गहनों का डब्बा लेकर वहाँ से नौ दो ग्यारह हुए। उन दोनों के चले जाने पर मैं कोठे पर चढ़ा। कोठे पर जो कुछ हुआ, वह सब आप जानते हैं। मैंने बातचीत के समय आपसे कहा था, जहाँ वह दोनों गये वहाँ तू भी जा, पर उस समय उनको भगा हुआ जानकर मैंने आपको घबड़ा देने के लिए ऐसा कहा था, मेरा उस समय ऐसा कहने का कोई दूसरा अर्थ न था।

कामिनीमोहन-एक बात तो हुई-दूसरी बात मुझको यह पूछनी है-क्या इस गाँव के बन में भी आप आ जा सकते हैं? क्योंकि कल्ह जब मैं बन में गया था, तो उसमें कई बार मैंने गाना होते सुना। यह गाना आप ही के गले से होता जान पड़ता था; क्योंकि आपके गले को मैं भली-भाँति पहचानता हूँ।

देवस्वरूप-उस दिन मैंने जो कुछ देखा सुना, उससे मेरे जी में बहुत बड़ी उलझन पड़ गयी। सब बातें जानने के लिए मेरा जी उकताने लगा। पर मुझको कोई बात ऐसी न सूझी, जिस से मेरा काम निकल सके। इसलिए मैं गाँव के बाहर धुनी रमाकर साधुओं के भेस में बैठा, यहाँ मुझको तुम्हारी बहुत सी बातें जान पड़ीं। पर देवहूती पर तुम्हारा जी आया हुआ है-और तुम उसको फाँसना चाहते हो, ये बातें मैंने किसी से नहीं सुनीं। हाँ, तुम्हारी चालचलन की जितनी बुराई सुनी गयी, उतना ही पारबती और देवहूती के चालचलन को लोगों को सराहते सुना। लोगों ने तुम्हारी और बातों के साथ तुम्हारे बन के अड्डॆ की चर्चा भी मुझसे की। सभों ने मुझसे यही कहा, न तो उसमें कोई जा सकता है औन न वहाँ का भेद कोई जानता है, पर इतना सभी कहते, बन के सहारे कामिनीमोहन बड़ा अनर्थ करता है। यह सब सुनकर मैंने अपने जी में यह दो बातें ठानी। एक तो जैसे हो आपका चालचलन ठीक किया जावे-दूसरे बन का सारा भेद जान लिया जावे। पहले मैंने बन का भेद जानना चाहा-और दो दिन पीछे गाँव से बन की ओर चला। बन का भेद जानने में मुझको पूरा एक महीना लगा। मैंने बन के सब भीलों को अपना चेला बनाया, और उन सबों ने बन का सारा भेद मुझको बतला दिया। बन में मिट्टी के नीचे खंडहरों में से होकर बहुत ही सुरंगें निकली हुई हैं-मैंने उन भीलों के सहारे एक-एक करके उन सबको छान डाला। जिस दिन मैं सब कुछ देखभालकर गाँव की ओर लौट रहा था, मैंने दूर से आपको बन में आते देखा, और समझ गया-आप किसी बुरे काम के लिए ही बन में आ रहे हैं। मेरा दूसरा काम आपको पाप से बचाना था, इसलिए गाने के बहाने मैंने उस बेले ऐसी सीख आपको दी, जिसको सुनकर आप पाप करने से हिचकें। पर दुख की बात है-उस दिन के मेरे किसी गीत ने काम नहीं किया, और आप अपनी बातों पर वैसे ही जमे रहे। जब आप मुझको बड़ के नीचे खोज रहे थे, तो मैं वहीं मिट्टी के नीचे एक सुरंग में था। जब आपसे और देवहूती से बातचीत उस खंडहरवाले घर में हुई, तब भी मैं उसी कोठरी के नीचे की एक सुरंग में खड़ा सब सुनता रहा, और यहीं से बाहर निकलकर आपकी बात पूरी होने पर मैंने अपना सबसे पिछला गीत देवहूती को ढाढ़स बँधाने के लिए गाया। आप कह सकते हैं तुम एक बटोही थे, तुमको इन बातों से क्या काम था, पर सच बात यह है, मैंने जनम भर अपने लिए ऐसे ही कामों का करना ठीक किया है, मुझको ऐसे कामों को छोड़ दूसरा काम नहीं है, और इसीलिए मैंने जिस दिन आपके गाँव में पाँव रखा, उसी दिन अपने को जोखों में डाल दिया था।

कामिनीमोहन ने एक ऊँची साँस भरकर कहा, आप कह सकते हैं मरती बेले मुझको इन बातां से क्या काम था, पर सच बात यह है, मुझको देवहूती के चालचलन का खटका था, आपको इस भाँति उसका सहाय होते देखकर ही मेरे जी में यह खटका हुआ था। मैं अपने जी को बहुत समझाता था, नहीं, देवहूती का चालचलन कभी बुरा नहीं है-पर यह न मानता। अब आप की बातों को सुनकर मेरा सब भरम दूर हुआ-अब मैं अपना काम करके मरूँगा।

इतना कहकर कामिनीमोहन ने एक बात देवस्वरूप से कही-देवस्वरूप ने भी उसको अच्छा कहा। पीछे गाँव के बड़े-बड़े लोग बुलाये गये। सब लोगों के आ जाने पर एक काम कामिनीमोहन ने बहुत धीरज के साथ किया। पर ज्यों ही वह काम पूरा हुआ, कामिनीमोहन की साँस ऊपर को चलने लगी, उसकी आँखें बिगड़ गयीं, औेर रह-रह कर वह चौंक उठने लगा। उसकी यह गत देखकर देवस्वरूप ने कहा, कामिनीमोहन! तुम रह-रह कर इतना चौंकते क्यों हो? कामिनीमोहन की पलकें उठती न थीं-पर उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं और कहा, बड़ी डरावनी मूर्तियाँ सामने देख रहा हूँ-क्या यमदूत इन्हीं का नाम है! मैं इनके डर से काँप रहा हूँ। मुझको जान पड़ता है, मुझको मारने के लिए वह सब मेरी ओर लपक रहे हैं। ओहो! कैसे-कैसे डरावने हथियार उन लोगों के हाथों में हैं। आप इनके हाथों से मुझको बचाइए, क्या यह सब मुझको नरक में ले जावेंगे? मैं इन्हीं सबों से डरकर चौंक उठता हूँ। यह कहते-कहते कामिनीमोहन की आँखें फिर मुँद गयीं।

देवस्वरूप को कामिनीमोहन की बातें सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने जी में सोचा, अभी कल्ह तक ये कह रहे थे, नरक स्वर्ग कहीं कुछ नहीं है, परमेश्वर भी एक धोखे की टट्टी है, और आज इनकी यह गत है, सच है, मरने के समय बड़े पापी की भी आँखें खुलती हैं। जब तक बने दिन होते हैं, मनुष्य बेबस नहीं होता, तभी तक उसको सब सीटी पटाक रहती है। बिपत पड़ने पर उसका जी कभी ठिकाने नहीं रहता। पर यह माटी का पुतला इन बातों को पहले नहीं सोचता, दु:ख इतना ही है। इतना सोचकर देवस्वरूप ने कहा-कामिनीमोहन! राम-राम कहो, राम का नाम सब बिपतों को दूर करता है।

कामिनीमोहन-बान लगाने से ही सब कुछ होता है-जैसी बान सदा की होती है-काम पड़ने पर वही बान काम में आती है। मैंने आज तक राम का नाम जपने की बान नहीं डाली, इसलिए इस बेले भी मुझसे राम-राम नहीं कहते बनता। मैंने जो पाप किये हैं-वे एक-एक करके मेरी आँखों के सामने नाच रहे हैं। मेरा जी बेचैन हो रहा है-अपने पापों का मुझको क्या फल मिलेगा, यह सोचकर मेरा रोआँ-रोआँ कलप रहा है, गले में काँटे पड़ रहे हैं, जीभ सूख रही है, तालू जल रहा है-मैं राम-राम कहूँ तो कैसे कहूँ।

इतना कहते-कहते कामिनीमोहन चिल्ला उठा, मुझको बचाओ, बचाओ, ये काले-काले, डरावने, टेढ़े-टेढ़े दाँतवाले यमदूत मुझको मारे डालते हैं। फिर कहा, अरे बाप! अरे बाप!! मरा! मरा!!! क्या ऐसा कोई माई का लाल नहीं है, जो मुझको इनके हाथों से बचावे!!! आह! आह!! जी गया! जी गया!! मेरे रोएँ रोएँ में भाले क्यों चुभाये जा रहे हैं! मेरी जीभ क्यों ऐंठी जाती है! मेरी बोटी-बोटी क्यों काटी जाती है! मेरा कलेजा क्यों निकाला जाता है! लोगो दौड़ो! लोगो दौड़ो!! अब तो नहीं सहा जाता!!!

देवस्वरूप ने कामिनीमोहन के सर पर हाथ रखकर कहा-कामिनीमोहन! राम-राम कहो, तुम्हारी सब पीड़ा दूर होगी। कामिनीमोहन ने कहा, रा-म रा-म-फिर कहा, उहँ! उहँ!! रहो! रहो!! अरे मेरे गले में जलते-जलते लोहे के छड़ क्यों डाले देते हो!!! अरे अरे! यह क्या! यह क्या!! हाय बाप! हाय बाप!! मार डाला! मार डाला!!!

देवस्वरूप की आँखों से कामिनीमोहन की दशा देखकर आँसू चलने लगे-वह कामिनीमोहन से कुछ न कहकर आप उसकी खाट पर बैठ गये-धीरे-धीरे उसके कान में राम-राम कहने लगे-पर कामिनीमोहन छटपटाता इतना था, जिससे वह भली-भाँति उसके कानों में राम-राम भी नहीं कह सकते थे। अब कामिनीमोहन की साँस बड़े बेग से ऊपर को खिंच रही थी-गले में कफ आ गया था-साँस के आने-जाने में बड़ी पीड़ा हो रही थी। आ:! आ:!! उहँ! उहँ!! करने छोड़ वह कुछ कह भी नहीं सकता था। गला घर्र घर्र कर रहा था। इतने में उसकी देह को एक झटका सा लगा-आँखों के कोये फट गये-और सड़ाके से साँस देह के बाहर हो गयी। सारे घर में हाहाकार मच गया।

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रचनाएँ
अधखिला फूल
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अधखिला फूल "अधखिला फूला उपाध्याय जी का दूसरा सामाजिक उपन्यास है है देवहूती एक विवाहित स्वी है । उसका पति देवस्वरूप संसार से विरक्त रहते के कारण कहीं बाहर चला जाता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि आज के पाठक को यह भाषा कुछ कृत्रिम-सी लगेगी । सिर भी ऐसा नहीं है कि वह इस रचना में रस न ले सके ।
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अधलिखा फूल भाग 1

5 अगस्त 2022
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वैशाख का महीना, दो घड़ी रात बीत गयी है। चमकीले तारें चारों ओर आकाश में फैले हुए हैं, दूज का बाल सा पतला चाँद, पश्चिम ओर डूब रहा है, अंधियाला बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों अंधियाला बढ़ता है, तारों की चमक

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भाग 2

5 अगस्त 2022
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जिस खेत में यह टूटा हुआ तारा गिरा, उसमें देखते-ही-देखते एक भीड़ सी लग गयी, लोग पर लोग चले आते थे, और सब यही चाहते थे, किसी भाँत भीड़ चीरकर उस तारे तक पहुँचें, पर इतने लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे, जिससे

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भाग 3

5 अगस्त 2022
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एक बहुत ही सजा हुआ घर है, भीतों पर एक-से-एक अच्छे बेल-बूटे बने हुए हैं। ठौर-ठौर भाँति-भाँति के खिलौने रक्खे हैं, बैठकी और हांड़ियों में मोमबत्तियाँ जल रही हैं, बड़ा उँजाला है, बीच में एक पलँग बिछा हुआ

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भाग 4

5 अगस्त 2022
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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 5

5 अगस्त 2022
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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 6

5 अगस्त 2022
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बासमती जाने से कुछ ही पीछे हरलाल को ले कर लौट आयी। हरलाल छड़ी से टटोल-टटोल कर पाँव रखते हुए घर में आया। उसके आते ही पारबती और देवहूती वहाँ से हटकर कुछ आड़ में बैठ गयीं, पर पड़ोस की दोनों स्त्रियों पहल

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भाग 7

5 अगस्त 2022
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भोर के सूरज की सुनहली किरणें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही हैं, पेड़ों की पत्तियों को सुनहला बना रही हैं, और पास के पोखरे के जल में धीरे-धीरे आकर उतर रही हैं। चारों ओर किरणों का ही जमावट है, छतों पर, मुड

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भाग 8

5 अगस्त 2022
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चमकता हुआ सूरज पश्चिम ओर आकाश में धीरे-धीरे डूब रहा है। धीरे-ही-धीरे उसका चमकीला उजला रंग लाल हो रहा है। नीले आकाश में हलके लाल बादल चारों ओर छूट रहे हैं। और पहाड़ की ऊँची उजली चोटियों पर एक फीकी लाल

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भाग 9

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फूल तोड़ते चौबीस दिन हो गये। इतने दिनों में काम कुछ न निकला, यह बात बासमती के जी में आठ पहर खटकने लगी। कामिनीमोहन भी बेचैन हो चला था, इसलिए वह भी कभी-कभी बसमाती को जली कटी सुनाता, इससे बासमती और घबराय

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भाग 10

5 अगस्त 2022
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हमारे हरमोहन पाण्डे इसी ढंग के लोग हैं-होनहार के भरोसे बाप का कमाया लाखों रुपया उड़ा चुके हैं। बीसों गाँव पास थे, पर एक-एक करके सब बिक चुके हैं। अब तक रहने का घर बचा था। आज उससे भी हाथ धोना चाहते हैं।

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भाग 11

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चारों ओर आग बरस रही है-लू और लपट के मारे मुँह निकालना दूभर है-सूरज बीच आकाश में खड़ा जलते अंगारे उगिल रहा है और चिलचिलाती धूप की चपेटों से पेड़ तक का पत्ता पानी होता है। छर्रों की भाँत धूल के छोटे-छोट

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भाग 12

5 अगस्त 2022
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देवहूती और उसकी मौसी के घर के ठीक पीछे भीतों से घिरी हुई एक छोटी सी फुलवारी है। भाँत-भाँत के फूल के पौधे इसमें लगे हुए हैं, चारों ओर बड़ी-बड़ी क्यारियाँ हैं, एक-एक क्यारी में एक-एक फूल है-फुलवारी का स

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भाग 13

5 अगस्त 2022
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पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख पड़ता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली

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भाग 14

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कामिनीमोहन की फुलवारी के चारों ओर जो पक्की भीत है उसमें से उत्तरवाली भीत में एक छोटी सी खिड़की है। यह खिड़की बाहर की ओर ठीक धरती से मिली हुई है, पर भीतर की ओर फुलवारी की धरती से कुछ ऊँचाई पर है। खिड़क

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भाग 15

5 अगस्त 2022
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>बड़ी गाढ़ी अंधियाली छायी है, ज्यों-ज्यों आकाश में बादलों का जमघट बढ़ता है, अंधियाली और गाढ़ी होती है। गाढ़ापन बढ़ते-बढ़ते ठीक काजल के रंग का हुआ, गाढ़ी अंधियाली और गहरी हुई, इस पर अमावस, आधी रात और स

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भाग 16

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अपनी फुलवारी में टहलते हुए कामिनीमोहन ने पास खड़ी हुई बासमती से कहा- बासमती-क्या मैंने कोई आपके साथ चाल की बात की है? आपके होठों पर आज वह हँसी नहीं है, आँखें डबडबायी हुई हैं, मुँह बहुत ही उतरा हुआ है

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5 अगस्त 2022
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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 19

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एक बहुत ही घना बन है, आकाश से बातें करनेवाले ऊँचे-ऊँचे पेड़ चारों ओर खड़े हैं-दूर तक डालियों से डालियाँ और पत्तियों से पत्तियाँ मिलती हुई चली गयी हैं। जब पवन चलती है, और पत्तियाँ हिलने लगती हैं, उस घड

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भाग 20

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बन में जहाँ जाकर खोर लोप होती थी, वहाँ के पेड़ बहुत घने नहीं थे। डालियों के बहुतायत से फैले रहने के कारण, देखने में पथ अपैठ जान पड़ता, पर थोड़ा सा हाथ-पाँव हिलाकर चलने से बन के भीतर सभी घुस सकता। पथ य

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भाग 21

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बासमती के चले जाने पर देवहूती अपनी कोठरी में से निकली, कुछ घड़ी आँगन में टहलती रही, फिर डयोढ़ी में आयी। वहाँ पहुँच कर उसने देखा, बासमती पहरे के भीलों से बातचीत कर रही है। यह देखकर वह किवाड़ों तक आयी-औ

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भाग 22

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>कामिनीमोहन की भी आज ठीक यही दशा है-वह खाते पीते, सोते जागते, भोले-भाले मुखड़े का ध्यान करता, जहाँ रसीली बड़ी-बड़ी आँखें देखता वहीं लट्टू होता, गोरे-गोरे हाथों में पतली-पतली चूरियाँ उसको बावला बनातीं,

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भाग 23

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एक चूकता है-एक की बन आती है। एक मरता है-एक के भाग्य जागते हैं। एक गिरता है-एक उठता है। एक बिगड़ता है-एक बनता है। एक ओर सूरज तेज को खोकर पश्चिम ओर डूबता है-दूसरी ओर चाँद हँसते हुए पूर्व ओर आकाश में निक

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भाग 24

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आज तक मरकर कोई नहीं लौटा, पर जिसको हम मरा समझते हैं, उसका जीते जागते रहकर फिर मिल जाना कोई नई बात नहीं है। ऐसे अवसर पर जो आनन्द होता है-वह उस आनन्द से घटकर नहीं कहा जा सकता-जो एक मरे हुए जन के लौट आने

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भाग 25

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बासमती के मारे जाने पर दो चार दिन गाँव में बड़ी हलचल रही, थाने के लोगों ने आकर कितनों को पकड़ा, मारनेवाले को ढूँढ़ निकालने के लिए कोई बात उठा न रखी, पर बासमती से गाँववालों का जी बहुत ही जला हुआ था, इस

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भाग 26

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आज दस बरस पीछे हम फिर बंसनगर में चलते हैं। पौ फट रहा है, दिशाएँ उजली हो रही हैं, और आकाश के तारे एक-एक कर के डूब रहे हैं। सूरज अभी नहीं निकला है, पर लाली चारों ओर दिशाओं में फैल गयी है। कहीं-कहीं पेड़

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