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भाग 16

5 अगस्त 2022

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अपनी फुलवारी में टहलते हुए कामिनीमोहन ने पास खड़ी हुई बासमती से कहा-

बासमती-क्या मैंने कोई आपके साथ चाल की बात की है? आपके होठों पर आज वह हँसी नहीं है, आँखें डबडबायी हुई हैं, मुँह बहुत ही उतरा हुआ है-यही सब देखकर मैंने जो पूछा-आपका जी कैसा है?-तो यह मेरी चाल की बात है? कामिनीमोहन-चाल की बात न है, और क्या है? तुम क्या नहीं जानती हो?-फिर सब बातें जान बूझकर पूछने का ढचर निकालना चाल की बात नहीं है, तो क्या?

बासमती-मैं क्या जानती हूँ? जितनी बातें मैं जानती हूँ उनमें एक बात भी ऐसी नहीं है, जिससे आप इतने उदास हों, मैं आपको हँसता खेलता देखने आयी थी, पर उलटे मुरझाया हुआ पाती हूँ-अब मैं क्या जानती हूँ बीच में क्या गड़बड़ हुई।

कामिनीमोहन-चुप रहो, बासमती! क्यों बहुत बात बनाती हो? तुम सब जानती हो और सब तुम्हारा ही बिगाड़ा बिगड़ता है। मुझसे काम बनाने के बहाने अलग ऐंठती हो, और वहाँ देवहूती की माँ को सब भेद बतला कर अलग कमाती हो, अब मैंने तुम्हारा मरम समझा है। पहले मैं तुमको ऐसा नहीं समझता था।

बासमती-राम! राम!! यह आप क्या कहते हैं, जो मैं आपसे छल कपट करती होऊँ, तो मेरी आँख फूट जावे, मेरे तन में ढोले पड़ें, मेरा एक पूत मेरे काम न आवे। मेरा कोई गला काट डाले, तो भी मैं आपकी बात दूसरे को नहीं बतला सकती, रुपया पैसा क्या है जो उसके लालच से मैं ऐसा करूँगी।

कामिनीमोहन-जो ऐसा नहीं है, तो फिर ऐसी घोर अंधियाली में, ऐसी कठोर वर्षा में, खड़ी आधी रात को एक अनजान पुरुष मेरा काम बिगाड़ने के लिए वहाँ कैसे पहुँचा गया।

बासमती-इसको राम जानें-मैं कुछ नहीं जानती, मैं जो झूठ कहूँ तो मेरी जीभ गल जावे। मैं आपकी लौंड़ी हूँ, काम लगने पर आपके लिए अपना कलेजा निकालकर सामने रख सकती हूँ-आप इस भाँत मुझको दोष न लगाया करें।

कामिनीमोहन-क्या कहूँ बासमती! रात की बात कुछ समझ में नहीं आती, सौ ठौर जी जाता है, तुम्हारा मन बूझने के लिए ही मैंने ये बातें कहीं, नहीं तो मैं जानता हूँ तुम ऐसी नहीं हो, मेरी इन बातों को तुम बुरा न मानना।

बासमती-आपने क्या कहा जो मैं बुरा मानूँगी, जिसपर चलना है, जो अपना होता है, उसी पर झाँझ निकाली जाती है। आप बिगड़ेंगे तो हम लोगों पर बिगड़ेंगे और किस पर बिगड़ेंगे?

बासमती की बातों से कामिनीमोहन का दुख कुछ हलका हुआ, उसने अपने जी का बोझ और हलका करने के लिए धीरे-धीरे रात की सब बातें बासमती से कहीं, पीछे एक लम्बी साँस भरकर कहा, बड़ा पछतावा यह है बासमती! मैं रात देवहूती से दो बातें भी न कर सका।

बासमती-मैं आपके जी की बात समझती हूँ। आप दो नहीं दस बातें करते तो क्या-अब उस बूँद से भेंट नहीं हो सकती।

कामिनीमोहन-मैं देखता तो वह क्या कहती है!

बासमती-यह आप अपनी खिसियाहट मिटाते हैं, जब वह अपनी चिकनी चुपड़ी बातों में आपको फाँस कर निकल गयी, तभी आपको समझना चाहिए था। वह नित फुलवारी के फाटक में होकर आती जाती थी, जब उस दिन फाटक छुड़ाकर मैं उसको खिड़की की ओर ले चली, तो वह एक डग आगे न रखती थी, पर मेरे ऐसा था जो मैं किसी भाँत उसको उस ओर लिवा गयी।

कामिनीमोहन-मैं उसको इतना नहीं समझता था, उसके भोले-भाले मुखड़े से इतना सयानापन नहीं झलकता।

बासमती-वह देखने ही को भोली-भाली है, उसकी माँ ने उसको पूरी पक्की बना दिया है। देखते नहीं उसका कलेजा! दो महीने आप नित उसके कोठे की ओर एक-एक नहीं चार-चार बार जाते रहे, पर क्या उसकी झलक तक दिखलाई पड़ी?

कामिनीमोहन-नहीं, कभी नहीं, झलक का देख पड़ना तो दूर, वह खिड़की भी मुझको कभी खुली नहीं मिली। इसी से तो बहुत समझ बूझकर रात की बात ठीक की गयी थी, पर क्या कहूँ हम लोगों की यह चाल भी पूरी न पड़ी।

बासमती-चाल तो सभी पूरी पड़ी थी, पर अनसोची बात के लिए क्या किया जावे। मैं यह नहीं समझती हूँ, यह दाल भात में मूसल कौन था?

कामिनीमोहन-जो यह बात मैं जानता ही, तो फिर क्या था, आज ही उसको ठिकाने लगाता! वह तो अपने को देवता बतलाता था, पर वह जैसा देवता है मैं जानता हँ! वह है कैंडे का! यह मैं कहँगा, पर अपने को देवता बतलाना उसकी निरी चाल थी।

बासमती-आपने आज उसको खोजवाया था?

कामिनीमोहन-खोजवा कर क्या करूँगा? ऐसी बातों पर धूल डालना ही अच्छा है, फिर मुझसे बैर करके कोई इस गाँव में ठहर सकता है? वह कभी सटक गया होगा, यहाँ बैठा थोड़े ही होगा।

बासमती-मुन्ना और बघेल तो आपके निज के लोग हैं, आप इनको क्यों नहीं उसके पीछे लगाते। इन दोनों के बीच की बात क्यों कर फूटेगी।

कामिनीमोहन-मुन्ना और बघेल का भी रात ही से पता नहीं मिलता, क्या कहूँ रात की जितनी बातें हैं, सभी निराली हैं।

बासमती-क्यों? यह लोग क्या हुए?

कामिनीमोहन-मैंने पैंतालीस सौ रुपये का गहना देवहूती के लिए बनवाया था, इन गहनों को मैं इसलिए साथ लेता गया था, जो देवहूती न मानेगी, तो इन्हीं का लालच देकर उस को मनाऊँगा। जब मैं कोठे पर चढ़ने लगा, गहनों का डब्बा बघेल को दे दिया, कोठे पर पहुँच कर मैं ऐसा उतावला हुआ जो यह बात भूल गयी। इसी बीच वे दोनों उस डब्बे को लेकर चंपत हुए। इतने रुपए का धन हाथ आया था, वह लोग क्यों कर छोड़ते!

बासमती-जो सौ रुपए भगमानी को और पचास साठ रुपए देवहूती के घर के दूसरे कामकाजियों को दिये गये थे, मैं उसी के लिए मर रही थी, यह बात तो आपने ऐसी सुनायी, जो मुझ पर बिजली टूट पड़ी।

कामिनीमोहन-भगमानी को जो सौ रुपए दिये गये उसका क्या पछतावा है, उसने अपना सब काम ठीक-ठीक किया था, घर के भीतर की ओर से किवाड़ियाँ लगा ली थी, कोठे की बड़ी खिड़की खोलकर उस पर रस्सी की सीढ़ी लगा दी थी, आप भी कोठा छोड़कर कहीं चली गयी थी। काम पड़ने पर उसके घर के दूसरे कामकाजी भी सर न उठाते-पर इन दोनों ने बड़ा धोखा दिया।

बासमती-धोखा नहीं दिया, सर काट लेने का काम किया, पर मैं क्या कहूँ, मुझसे तो आज कुछ कहते ही नहीं बनता।

कामिनीमोहन-जाने दो बासमती! मुझको इन बातों की इतनी खोज नहीं है; पर देवहूती को हाथ से न जाने देना चाहिए।

बासमती-मैं कब देवहूती को छोड़नेवाली हूँ, पर दु:ख इतना ही है कि काम बिगड़ता जाता है। मैंने आपसे अभी नहीं कहा, आज पारबती ने अपने यहाँ के सब कामकाजियों को निकाल दिया। भगमानी बीसों बरस की पुरानी टहलुनी थी, आज उसको भी छुड़ा दिया। वे सब मेरे यहाँ रोते आये थे-इन सबसे मेरा बड़ा काम चलता था।

कामिनीमोहन-पारबती कैसी चाल की है, कुछ समझ में नहीं आता। पर वह कामकाजी लावेगी कहाँ से-रखेगी तो यहाँ ही के लोग! यहाँ कौन ऐसा है जो मेरा दबाव नहीं मानता, बासमती! पारबती को जो तुमने न पछाड़ा, तो कुछ न किया।

बासमती-अपने चलते तो मैं चूकती नहीं, पर होनी को क्या करूँ! मैं भी यही कहती हूँ-जो पारबती ने मुँह की न खायी तो कुछ न हुआ।

कामिनीमोहन-अब की कोई बड़ी गहरी चाल चलनी चाहिए।

बासमती-मैंने समझा, अच्छा, अब मैं इसी सोच में जाती हूँ।

यह कहकर वह चली गयी।

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रचनाएँ
अधखिला फूल
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अधखिला फूल "अधखिला फूला उपाध्याय जी का दूसरा सामाजिक उपन्यास है है देवहूती एक विवाहित स्वी है । उसका पति देवस्वरूप संसार से विरक्त रहते के कारण कहीं बाहर चला जाता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि आज के पाठक को यह भाषा कुछ कृत्रिम-सी लगेगी । सिर भी ऐसा नहीं है कि वह इस रचना में रस न ले सके ।
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अधलिखा फूल भाग 1

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वैशाख का महीना, दो घड़ी रात बीत गयी है। चमकीले तारें चारों ओर आकाश में फैले हुए हैं, दूज का बाल सा पतला चाँद, पश्चिम ओर डूब रहा है, अंधियाला बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों अंधियाला बढ़ता है, तारों की चमक

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भाग 2

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जिस खेत में यह टूटा हुआ तारा गिरा, उसमें देखते-ही-देखते एक भीड़ सी लग गयी, लोग पर लोग चले आते थे, और सब यही चाहते थे, किसी भाँत भीड़ चीरकर उस तारे तक पहुँचें, पर इतने लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे, जिससे

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भाग 3

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एक बहुत ही सजा हुआ घर है, भीतों पर एक-से-एक अच्छे बेल-बूटे बने हुए हैं। ठौर-ठौर भाँति-भाँति के खिलौने रक्खे हैं, बैठकी और हांड़ियों में मोमबत्तियाँ जल रही हैं, बड़ा उँजाला है, बीच में एक पलँग बिछा हुआ

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भाग 4

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भाग 5

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बासमती जाने से कुछ ही पीछे हरलाल को ले कर लौट आयी। हरलाल छड़ी से टटोल-टटोल कर पाँव रखते हुए घर में आया। उसके आते ही पारबती और देवहूती वहाँ से हटकर कुछ आड़ में बैठ गयीं, पर पड़ोस की दोनों स्त्रियों पहल

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भाग 7

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भोर के सूरज की सुनहली किरणें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही हैं, पेड़ों की पत्तियों को सुनहला बना रही हैं, और पास के पोखरे के जल में धीरे-धीरे आकर उतर रही हैं। चारों ओर किरणों का ही जमावट है, छतों पर, मुड

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भाग 8

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चमकता हुआ सूरज पश्चिम ओर आकाश में धीरे-धीरे डूब रहा है। धीरे-ही-धीरे उसका चमकीला उजला रंग लाल हो रहा है। नीले आकाश में हलके लाल बादल चारों ओर छूट रहे हैं। और पहाड़ की ऊँची उजली चोटियों पर एक फीकी लाल

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भाग 9

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फूल तोड़ते चौबीस दिन हो गये। इतने दिनों में काम कुछ न निकला, यह बात बासमती के जी में आठ पहर खटकने लगी। कामिनीमोहन भी बेचैन हो चला था, इसलिए वह भी कभी-कभी बसमाती को जली कटी सुनाता, इससे बासमती और घबराय

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भाग 10

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हमारे हरमोहन पाण्डे इसी ढंग के लोग हैं-होनहार के भरोसे बाप का कमाया लाखों रुपया उड़ा चुके हैं। बीसों गाँव पास थे, पर एक-एक करके सब बिक चुके हैं। अब तक रहने का घर बचा था। आज उससे भी हाथ धोना चाहते हैं।

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भाग 11

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चारों ओर आग बरस रही है-लू और लपट के मारे मुँह निकालना दूभर है-सूरज बीच आकाश में खड़ा जलते अंगारे उगिल रहा है और चिलचिलाती धूप की चपेटों से पेड़ तक का पत्ता पानी होता है। छर्रों की भाँत धूल के छोटे-छोट

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भाग 12

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देवहूती और उसकी मौसी के घर के ठीक पीछे भीतों से घिरी हुई एक छोटी सी फुलवारी है। भाँत-भाँत के फूल के पौधे इसमें लगे हुए हैं, चारों ओर बड़ी-बड़ी क्यारियाँ हैं, एक-एक क्यारी में एक-एक फूल है-फुलवारी का स

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भाग 13

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पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख पड़ता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली

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भाग 14

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कामिनीमोहन की फुलवारी के चारों ओर जो पक्की भीत है उसमें से उत्तरवाली भीत में एक छोटी सी खिड़की है। यह खिड़की बाहर की ओर ठीक धरती से मिली हुई है, पर भीतर की ओर फुलवारी की धरती से कुछ ऊँचाई पर है। खिड़क

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भाग 15

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>बड़ी गाढ़ी अंधियाली छायी है, ज्यों-ज्यों आकाश में बादलों का जमघट बढ़ता है, अंधियाली और गाढ़ी होती है। गाढ़ापन बढ़ते-बढ़ते ठीक काजल के रंग का हुआ, गाढ़ी अंधियाली और गहरी हुई, इस पर अमावस, आधी रात और स

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भाग 16

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भाग 17

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 18

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भाग 19

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एक बहुत ही घना बन है, आकाश से बातें करनेवाले ऊँचे-ऊँचे पेड़ चारों ओर खड़े हैं-दूर तक डालियों से डालियाँ और पत्तियों से पत्तियाँ मिलती हुई चली गयी हैं। जब पवन चलती है, और पत्तियाँ हिलने लगती हैं, उस घड

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भाग 20

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बन में जहाँ जाकर खोर लोप होती थी, वहाँ के पेड़ बहुत घने नहीं थे। डालियों के बहुतायत से फैले रहने के कारण, देखने में पथ अपैठ जान पड़ता, पर थोड़ा सा हाथ-पाँव हिलाकर चलने से बन के भीतर सभी घुस सकता। पथ य

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भाग 21

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बासमती के चले जाने पर देवहूती अपनी कोठरी में से निकली, कुछ घड़ी आँगन में टहलती रही, फिर डयोढ़ी में आयी। वहाँ पहुँच कर उसने देखा, बासमती पहरे के भीलों से बातचीत कर रही है। यह देखकर वह किवाड़ों तक आयी-औ

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भाग 22

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>कामिनीमोहन की भी आज ठीक यही दशा है-वह खाते पीते, सोते जागते, भोले-भाले मुखड़े का ध्यान करता, जहाँ रसीली बड़ी-बड़ी आँखें देखता वहीं लट्टू होता, गोरे-गोरे हाथों में पतली-पतली चूरियाँ उसको बावला बनातीं,

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भाग 23

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एक चूकता है-एक की बन आती है। एक मरता है-एक के भाग्य जागते हैं। एक गिरता है-एक उठता है। एक बिगड़ता है-एक बनता है। एक ओर सूरज तेज को खोकर पश्चिम ओर डूबता है-दूसरी ओर चाँद हँसते हुए पूर्व ओर आकाश में निक

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भाग 24

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भाग 25

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भाग 26

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