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भाग 13

5 अगस्त 2022

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पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख पड़ता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली धार कुछ और आगे बढ़कर और कई एक दूसरे पहाड़ी सोतों से मिलकर एक छोटी नदी बन जाती है। कलकल कलकल बहती है। लहरें उठती हैं। कहीं पत्थर की चट्टानों से टकरा कर छींटे उड़ाती है। फिर बड़ी नदी बनती है और बड़े वेग से समुद्र की ओर बहती है। हमारी चाहों का भी यही ढंग है, पहले जी में इसका कुछ चिह्न नहीं होता। पीछे धीरे-धीरे उसकी एक झलक सी इसमें दिखलाई देती है। कुछ दिन और बीतने पर उसकी एक धार सी भीतर ही भीतर फूटने लगती है। पीछे यही धार फैलकर जी में घड़ी-घड़ी लहरें उठाती है। अठखेलियाँ करती है। अड़चनों से टक्कर लगाती है। और अपने चाहतें की ओर बड़े वेग से चल निकलती है।

देवहूती के लिए कामिनीमोहन की चाह भी अब यही पिछले ढंग की चाह है। वह उस में डूब रहा है। उसी की भँवरों में पड़ कर चक्कर खा रहा है। लाख हाथ-पाँव मारता है, पर कहीं थल बेड़ा नहीं मिलता। वह अपनी बैठक में पलँग पर लेटा है, उस की आँखें कड़ियों से लगी हैं, भौंहें कुछ ऊपर को खिंच गयी हैं और वह चुपचाप देवहूती की छवि मन-ही-मन खींच रहा है। उसने चम्पे के फूलों से बनाकर एक मूर्ति खड़ी की। कमल की पंखड़ियों से आँखें बनायीं-तिल के फूल से नाक सँवारी-दुपहरिया के फूल से होठ बनाया-हाथ और पाँव में भी कमल की पंखड़ियों को लगाना चाहा, पर चम्पे के फूल से यहाँ भी काम लिया। हाँ! उँगलियाँ बनाने में फूल से काम न चला, इसलिए वहाँ कलियाँ लगायीं। और सब जैसा-का-तैसा रहने दिया। भौंरों की पाँतियों को पकड़ कर बाल बनाना चाहा, पर ये सब ठहरते न थे, इसलिए चुनी हुई पतली-पतली सुथरी सेवारों से काम लिया-तब भी यह बनावट बहुत ही बाँकी रही। बेले का फूल बहुत ही उजला होता है, नेवारी और जूही का फूल भी वैसा ही होता है, चमेली का फूल इन सबों के इतना उजला नहीं होता, पर उसमें कुछ लाली होती है, कामिनीमोहन ने जो साड़ी इस मूर्ति को पहनायी वह इन फूलों के रंग की न थी। हाँ, चमेली के फूल में से लाली निकाल ली जावे, तो इस साड़ी का रंग ठीक उसके फूल का-सा होगा। पर साड़ी के आँचल का एक कोना ऐसा न था, इसका रंग ठीक सरसों के फूल का सा था, जिससे जान पड़ता है, उतनी साड़ी हलदी में रंगी हुई थी, साड़ी के नीचे कामिनीमोहन ने झूले की भाँति का एक और कपड़ा पहनाया, यह भी उजला ही था, जैसा हरसिंगार के फूल की पंखड़ी होती है। गहनों में, कानों में दो चार बालियाँ, हाथों में पाँच चार चूड़ियों के साथ सोने का कड़ा, उँगलियों में दो एक ऐसे वैसे छल्ले, और पाँव में चाँदी के कडे थे। पर झनकार किसी में न थी।

यह सब करके कामिनीमोहन ने उसमें जी डाला, जी डालते ही इस मूर्ति के मुखड़े पर न जाने कैसी एक जोत दिखने लगी, न जाने कैसी एक छटा उसके ऊपर छकलने लगी। सहज लजीला मुखड़ा होने से उसकी ललाई जो कुछ गहरी हो गयी थी, बहुत ही अनूठी थी, भोलापन इन सबों से निराला था। भोर के तड़के चम्पे की पंखड़ी को सूरज की सुनहली किरणों से चमकते देखा है-चाँद की प्यारी किरणों से धीरे-धीरे कोईं के फूल को खिलते देखा है-लजालु का हरी-हरी पत्तियों का कुछ छू जाने पर लाज के बस में पड़ते देखा है-पर वह बात कहाँ! वह अनूठापन कहाँ!!!

जी डालकर कामिनीमोहन ने अपने आपको खो दिया, बड़ी उलझन में पड़ा, उसके सर की साड़ी को खसका कर कुछ नीचा करना पड़ा, ज्यों ज्यों वह सर की साड़ी नीचा करने लगा, उसकी उलझन बढ़ने लगी। वह सोचने लगा, जो देवहूती में लाज न होती तो क्या अच्छा होता, फिर सोचा, नहीं-नहीं, लाज ही तो उसकी चाह जी में और बढ़ा देती है! लाज ही से तो वह और प्यारी लगती है!!! खुले मुँह की स्त्रियों कितनी देखी हैं-पर क्या घूँघटवाली के ऐसा उनका भी आदर है? कपड़ों में लिपटी किवाड़ों की ओट में खड़ी स्त्री जितना जी को चंचल करती है-क्या द्वार पर आकर अकड़ी खड़ी हुई स्त्री के लिए भी जी उतना ही चंचल होता है! सीधी चितवन कितनी ही देखी है-पर क्या वह तिरछी चितवन के इतनी ही काट करती है? खिलखिला कर हँसना जी की कली खिलाता है-पर क्या होठों तक आ कर लौट गयी हुई हँसी के इतना ही? और क्या यह सब लाज के ही हथकण्डे नहीं हैं? जो कुछ हो, पर क्या अच्छा होता देवहूती, जो तुम्हारा मुखचन्द एक बार मैं बिना बादलों के देखने पाता! इस घड़ी कामिनीमोहन की सब सुध खो गयी थी, वह बावलों की भाँति कहने लगा, क्या न देखने दोगी, देवहूती? मान जाओ, एक बार तो देखने दो। पर फिर अचानक वह चौंक उठा, उसने सुना, जैसे कोई कहता है-आप क्यों अपने पाँवों में अपने आप कुल्हाड़ी मार रहे हैं? कामिनीमोहन ने सुधि में आ कर देखा-साम्हने बासमती खड़ी है। उसको देखकर वह कुछ लजाया, पर छूटते ही पूछा, क्यों बासमती? क्या मैं अपने आप पाँव में कुल्हाड़ी मार रहा हूँ?

बासमती-और नहीं तो क्या? एक ऐसी वैसी छोकरी के लिए इतना आपे से बाहर होना, क्या अपने आप अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना नहीं है?

कामिनीमोहन-क्या करूँ, बासमती! जी नहीं मानता, जो देवहूती दो चार दिन के भीतर मुझसे न मिली, तो मुझको बावला हुआ ही समझो।

बासमती-क्यों? देवहूती में कौन सी ऐसी बात है? देवहूती से बढ़कर कितना ही आपके लिए मर रही हैं, कितनी ही आप पर निछावर हो चुकी हैं, फिर देवहूती में क्या रखा है, जो आप उसके लिए बावले होंगे?

कामिनीमोहन-इसको मेरे जी से पूछो। बासमती! मैं बातों से नहीं बतला सकता।

बासमती-यह आपकी बहुत बड़ी कचाई है, घबड़ाने से कुछ नहीं होता, धीरे-धीरे सभी बातें ठीक हो जाती हैं। आप की कचाई और घबराहट ही सब बातें बिगाड़ती हैं। आप जितना ही उसके लिए चंचल होते हैं वह उतना ही ऐंठती है। मैं कहती थी आप उसके पास कोई चीठी न लिखिये, पर आप ने न माना, अब यह इतना तन गयी है, जो पुट्ठे पर हाथ तक नहीं रखने देती!

कामिनीमोहन-तुम सदा ऐसी ही बातें कहा करती हो, कुछ होता जाता तो है नहीं, उलटे सब बातों को मेरे ही सर मढ़ती हो। क्या मेरी चीठी भेजने से पहले उसके ये ढंग न थे?

बासमती-जी नहीं, ये ढंग नहीं थे। क्या देवकिशोर भी कभी फूल तोड़ते समय वहाँ आता था, पर जिस दिन से आप की चीठी गयी है, उसी दिन से ज्यों फूल तोड़ने के लिए देवहूती फुलवारी में आती है, त्यों किसी ओर से देवकिशोर भी किसी बहाने आ धमकता है। और जब तक देवहूती फुलवारी से नहीं जाती-वह वहाँ से टलता तक नहीं।

कामिनीमोहन-इसमें भी तुम्हीं से कोई भूल हुई है, नहीं तो देवकिशोर इन बातों को क्या जानता?

बासमती-मुझसे कोई भूल नहीं हुई है, मैं तुम्हारी चीठी को ऐसा चुपचाप देवहूती के पास रख आयी...जो वह भी इस बात को न जान सकी। मैं ऐसे काम के लिए उसके घर में आयी गयी-जैसे छलावा-किसी ने देखा तक नहीं।

कामिनीमोहन-ये तुम्हारी बातें हैं, पारबती की दीठ कौन बचा सकता है। फूल तोड़ने के समय देवकिशोर का फुलवारी में आना उसी की चाल है।

बासमती कुछ खिसियानी सी होकर अपने आप सोचने लगी बात तो ठीक है, मैंने भी कुछ ऐसा ही सुना है, पर जी की बात जी ही में रखकर बोली-आप कहेंगे क्या, मैं पहले से ही जानती हूँ। जितनी चूक है-सब मेरी चूक है। जहाँ कोई बात बिगड़ी, उसमें मेरा ही दोष है। मैं आपकी लौड़ी हूँ, जो आप ऐसी बातें कहते हैं तो मैं बुरा नहीं मानती, बात दिनों दिन बिगड़ रही है, दुख इसी का है। आपका काम हो जावे, मैं कनौड़ी बनकर ही रहूँगी।

कामिनीमोहन-अब मैंने समझा, जान पड़ता है कल्ह जब तू मेरे कहने से उसके यहाँ गयी, उस घड़ी वह तेरे हाथ न चढ़ी। इसी से आज इतना रंग पलटा हुआ है। नहीं, तू तो स्वर्ग की अप्सरा को धरती पर उतार लाने को कहती थी।

बासमती-अब भी मैं यही कहती हूँ-क्या अब जो अड़चनें बढ़ गयी हैं-इससे मैं हार मानूँगी? नहीं-नहीं, ऐसा आप मत सोचिये, बासमती ऐसी मिट्टी से नहीं बनी है, अपना काम करके ही दिखाऊँगी, पर इतना कहती हूँ-काम अब इधर नहीं निकल सकता।

कामिनीमोहन-आज तीसवां दिन है, फूल तोड़ते एक महीना हो गया, कल्ह से देवहूती मेरी फुलवारी में फूल तोड़ने न आवेगी। जो आज काम न निकला, तो फिर कब निकलेगा, जैसे हो बासमती आज काम पूरा करना चाहिए।

बासमती-आप फिर उतावली करते हैं, मेरी बात मानकर आप उतावले न हों, आजकल उसके रंग-ढंग ठीक नहीं हैं। आज उसको अपने रंग में ढालना टेढ़ी खीर है।

कामिनीमोहन-बासमती! तुम भूलती हो, जो आज कुछ न हुआ, फिर कुछ न होगा। मैं तुम्हारी भाँति जी का कच्चा नहीं हँ। जो कुछ मैंने सोच रखा है, आज उसको कर दिखाऊँगा। मैं तुमको इस घड़ी देख रहा था तुम कितनी हो, नहीं तो इन बातों से कुछ काम न था।

बासमती-राम करें आपने जो सोचा है, वह पूरा उतरे, मैं कच्ची हूँ कि पक्की, यह आप भली-भाँति जानते हैं-आज भी जानेंगे। मैं कितनी हूँ यह भी आपने बहुत दिनों से समझ रखा है-आज भी समझेंगे, पर आपका जी इस घड़ी कहाँ है, कुछ समझ में नहीं आता। आप उतावले होकर ऐसी बातें कह रहे हैं, इसी से मुझको डर है। उतावलापन अच्छा नहीं। पर जब आप नहीं मानते हैं, तो मैं अपना मुँह पीट डालूँ तो क्या? मैं जाती हूँ-आप जो कुछ कीजिएगा, बहुत चौकसी से कीजिएगा। आप चाहे इस घड़ी न मानें पर मैं कहे जाती हूँ, जहाँ तक हो सकेगा, मेरे योग्य जो काम होगा, मैं उसमें न चूकूँगी।

बासमती के चलते-चलते कामिनीमोहन ने कहा-बासमती! कुछ कहना है।

बासमती पास आयी। फिर न जाने दोनों में क्या चुपचाप बातें हुई-इसके पीछे दोनों वहाँ से चले गये।

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रचनाएँ
अधखिला फूल
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अधखिला फूल "अधखिला फूला उपाध्याय जी का दूसरा सामाजिक उपन्यास है है देवहूती एक विवाहित स्वी है । उसका पति देवस्वरूप संसार से विरक्त रहते के कारण कहीं बाहर चला जाता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि आज के पाठक को यह भाषा कुछ कृत्रिम-सी लगेगी । सिर भी ऐसा नहीं है कि वह इस रचना में रस न ले सके ।
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अधलिखा फूल भाग 1

5 अगस्त 2022
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वैशाख का महीना, दो घड़ी रात बीत गयी है। चमकीले तारें चारों ओर आकाश में फैले हुए हैं, दूज का बाल सा पतला चाँद, पश्चिम ओर डूब रहा है, अंधियाला बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों अंधियाला बढ़ता है, तारों की चमक

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भाग 2

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जिस खेत में यह टूटा हुआ तारा गिरा, उसमें देखते-ही-देखते एक भीड़ सी लग गयी, लोग पर लोग चले आते थे, और सब यही चाहते थे, किसी भाँत भीड़ चीरकर उस तारे तक पहुँचें, पर इतने लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे, जिससे

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भाग 3

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एक बहुत ही सजा हुआ घर है, भीतों पर एक-से-एक अच्छे बेल-बूटे बने हुए हैं। ठौर-ठौर भाँति-भाँति के खिलौने रक्खे हैं, बैठकी और हांड़ियों में मोमबत्तियाँ जल रही हैं, बड़ा उँजाला है, बीच में एक पलँग बिछा हुआ

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भाग 4

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 5

5 अगस्त 2022
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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 6

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बासमती जाने से कुछ ही पीछे हरलाल को ले कर लौट आयी। हरलाल छड़ी से टटोल-टटोल कर पाँव रखते हुए घर में आया। उसके आते ही पारबती और देवहूती वहाँ से हटकर कुछ आड़ में बैठ गयीं, पर पड़ोस की दोनों स्त्रियों पहल

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भाग 7

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भोर के सूरज की सुनहली किरणें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही हैं, पेड़ों की पत्तियों को सुनहला बना रही हैं, और पास के पोखरे के जल में धीरे-धीरे आकर उतर रही हैं। चारों ओर किरणों का ही जमावट है, छतों पर, मुड

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भाग 8

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चमकता हुआ सूरज पश्चिम ओर आकाश में धीरे-धीरे डूब रहा है। धीरे-ही-धीरे उसका चमकीला उजला रंग लाल हो रहा है। नीले आकाश में हलके लाल बादल चारों ओर छूट रहे हैं। और पहाड़ की ऊँची उजली चोटियों पर एक फीकी लाल

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भाग 9

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फूल तोड़ते चौबीस दिन हो गये। इतने दिनों में काम कुछ न निकला, यह बात बासमती के जी में आठ पहर खटकने लगी। कामिनीमोहन भी बेचैन हो चला था, इसलिए वह भी कभी-कभी बसमाती को जली कटी सुनाता, इससे बासमती और घबराय

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भाग 10

5 अगस्त 2022
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हमारे हरमोहन पाण्डे इसी ढंग के लोग हैं-होनहार के भरोसे बाप का कमाया लाखों रुपया उड़ा चुके हैं। बीसों गाँव पास थे, पर एक-एक करके सब बिक चुके हैं। अब तक रहने का घर बचा था। आज उससे भी हाथ धोना चाहते हैं।

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भाग 11

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चारों ओर आग बरस रही है-लू और लपट के मारे मुँह निकालना दूभर है-सूरज बीच आकाश में खड़ा जलते अंगारे उगिल रहा है और चिलचिलाती धूप की चपेटों से पेड़ तक का पत्ता पानी होता है। छर्रों की भाँत धूल के छोटे-छोट

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भाग 12

5 अगस्त 2022
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देवहूती और उसकी मौसी के घर के ठीक पीछे भीतों से घिरी हुई एक छोटी सी फुलवारी है। भाँत-भाँत के फूल के पौधे इसमें लगे हुए हैं, चारों ओर बड़ी-बड़ी क्यारियाँ हैं, एक-एक क्यारी में एक-एक फूल है-फुलवारी का स

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भाग 13

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पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख पड़ता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली

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भाग 14

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कामिनीमोहन की फुलवारी के चारों ओर जो पक्की भीत है उसमें से उत्तरवाली भीत में एक छोटी सी खिड़की है। यह खिड़की बाहर की ओर ठीक धरती से मिली हुई है, पर भीतर की ओर फुलवारी की धरती से कुछ ऊँचाई पर है। खिड़क

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भाग 15

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>बड़ी गाढ़ी अंधियाली छायी है, ज्यों-ज्यों आकाश में बादलों का जमघट बढ़ता है, अंधियाली और गाढ़ी होती है। गाढ़ापन बढ़ते-बढ़ते ठीक काजल के रंग का हुआ, गाढ़ी अंधियाली और गहरी हुई, इस पर अमावस, आधी रात और स

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भाग 16

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अपनी फुलवारी में टहलते हुए कामिनीमोहन ने पास खड़ी हुई बासमती से कहा- बासमती-क्या मैंने कोई आपके साथ चाल की बात की है? आपके होठों पर आज वह हँसी नहीं है, आँखें डबडबायी हुई हैं, मुँह बहुत ही उतरा हुआ है

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भाग 17

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 18

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 19

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एक बहुत ही घना बन है, आकाश से बातें करनेवाले ऊँचे-ऊँचे पेड़ चारों ओर खड़े हैं-दूर तक डालियों से डालियाँ और पत्तियों से पत्तियाँ मिलती हुई चली गयी हैं। जब पवन चलती है, और पत्तियाँ हिलने लगती हैं, उस घड

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भाग 20

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बन में जहाँ जाकर खोर लोप होती थी, वहाँ के पेड़ बहुत घने नहीं थे। डालियों के बहुतायत से फैले रहने के कारण, देखने में पथ अपैठ जान पड़ता, पर थोड़ा सा हाथ-पाँव हिलाकर चलने से बन के भीतर सभी घुस सकता। पथ य

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भाग 21

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बासमती के चले जाने पर देवहूती अपनी कोठरी में से निकली, कुछ घड़ी आँगन में टहलती रही, फिर डयोढ़ी में आयी। वहाँ पहुँच कर उसने देखा, बासमती पहरे के भीलों से बातचीत कर रही है। यह देखकर वह किवाड़ों तक आयी-औ

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भाग 22

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>कामिनीमोहन की भी आज ठीक यही दशा है-वह खाते पीते, सोते जागते, भोले-भाले मुखड़े का ध्यान करता, जहाँ रसीली बड़ी-बड़ी आँखें देखता वहीं लट्टू होता, गोरे-गोरे हाथों में पतली-पतली चूरियाँ उसको बावला बनातीं,

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भाग 23

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एक चूकता है-एक की बन आती है। एक मरता है-एक के भाग्य जागते हैं। एक गिरता है-एक उठता है। एक बिगड़ता है-एक बनता है। एक ओर सूरज तेज को खोकर पश्चिम ओर डूबता है-दूसरी ओर चाँद हँसते हुए पूर्व ओर आकाश में निक

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भाग 24

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आज तक मरकर कोई नहीं लौटा, पर जिसको हम मरा समझते हैं, उसका जीते जागते रहकर फिर मिल जाना कोई नई बात नहीं है। ऐसे अवसर पर जो आनन्द होता है-वह उस आनन्द से घटकर नहीं कहा जा सकता-जो एक मरे हुए जन के लौट आने

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भाग 25

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बासमती के मारे जाने पर दो चार दिन गाँव में बड़ी हलचल रही, थाने के लोगों ने आकर कितनों को पकड़ा, मारनेवाले को ढूँढ़ निकालने के लिए कोई बात उठा न रखी, पर बासमती से गाँववालों का जी बहुत ही जला हुआ था, इस

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भाग 26

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आज दस बरस पीछे हम फिर बंसनगर में चलते हैं। पौ फट रहा है, दिशाएँ उजली हो रही हैं, और आकाश के तारे एक-एक कर के डूब रहे हैं। सूरज अभी नहीं निकला है, पर लाली चारों ओर दिशाओं में फैल गयी है। कहीं-कहीं पेड़

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