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भाग 5

5 अगस्त 2022

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं होता? आँखें प्यारी-प्यारी छवि देखते रहने पर भी प्यासी ही रहती हैं! जी को जान पड़ता है, उसके ऊपर कोई अमृत ढाल रहा है, दिशायें हँसने लगती हैं, पेड़ की पत्तियाँ खिल जाती हैं। सारा जग उमंग में मानो डूब सा जाता है। ऐसे चाँद, ऐसे सुहावने और प्यारे चाँद में काले-काले धाब्बे क्यों हैं? क्या कोई बतलावेगा!!! आहा! यह कमल सी बड़ी-बड़ी आँखें कैसी रसीली हैं! इनकी भोली-भोली चितवन कैसी प्यारी है!! इसमें मिसिरी किसने मिला दी है!!! देखो न कैसी हँसती हैं, कैसी अठखेलियाँ करती हैं! चाल इनकी कैसी मतवाली हैं? यह जी में क्यों पैठी जाती हैं? बरबस प्रान को क्यों अपनाये लेती हैं? क्या इनकी सुन्दरता ही यह सब नहीं करती? ओहो! क्या कहना है! कैसी सुन्दरता है!! मन क्यों हाथों से निकला जाता है? इसलिए कि उस की सुन्दरता में जादू है!!! पर घड़ी भर पीछे यह क्या गत है? इनको इतना उदास क्यों देखते हैं! यह आँसू क्यों बहा रही हैं? क्या कोई कह सकता है! जो आँखें ऐसी रसीली, ऐसी सुन्दर और ऐसी मतवाली हैं, उनको रोने धोने और आँसू बहाने का रोग क्यों लगा? अभी कुछ घड़ी पहले हमने जिस स्त्री को अपने लड़के लड़की के साथ मीठी-मीठी बातों से जी बहलाते देखा था, हँसती बोलती पाया था, वह इस घड़ी क्यों रो-कलप रही है, क्यों सर पर हाथों को मार रही है? क्या इसका भेद बतानेवाला कोई है? नहीं कहा जा सकता! जग में सभी ढंग के लोग हैं! कोई बतानेवाला भी होगा! पर मैं समझता हूँ जहाँ सुख है वहाँ दुख भी है, जहाँ अच्छा है वहाँ बुरा है, जहाँ फूल है, वहाँ काँटा है।

जाड़े का दिन है, शीत से कलेजा काँप रहा है, घने बादल आकाश में छाये हुए हैं। पवन चल रही है, जो फष्टा कपड़ा पास है, उससे देह तक नहीं ढँक सकती, सूरज की किरणों का ही सहारा है, पर बादल कैसे हटे? घबड़ाहट बड़ी है। इतने में आकाश में एक ओर बादल कुछ हटते दिखलाई पड़े, थोड़ा सा आकाश खुल गया, इसी पथ से सूरज की किरणें आकर कुछ-कुछ काँपते हुए कलेजे को ढाढ़स बँधाने लगीं! जी थोड़ा ठिकाने हुआ, धीरे-धीरे यह भरोसा भी हुआ-अब बादल हटते जायेंगे। जग के सब कामों की यही गत है-जहाँ उलझन-ही-उलझन देखने में आती है-वहाँ थोड़ा-सा सुलझाव ही बहुत गिना जाता है-जो बातें बहुत ही गूढ़ हैं, उनका थोड़ा सा ओर-छोर मिल जाना ही जी का बहुत कुछ बोध करता है। परमेश्वर की करतूत के गढ़ भेदों को समझना सहज नहीं-किस घड़ी कौन काम किसलिए होता है, और उसका छिपा हुआ भेद क्या है, उसको हम लोग क्या जान सकते हैं? पर ऐसे बेले उस ठौर जो बातें देखने-सुनने में आती हैं उन्हीं में से किसी एक को हम लोग उस काम का कारण समझ लेते हैं, और उस घड़ी इतने समझ लेने ही को बहुत जानते हैं। वह स्त्री जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है, इस घड़ी क्यों रो रही है? सर पर क्यों हाथों को मार रही है? हँसते-ही-हँसते उसकी यह क्या गत हो गयी? हम इसका गूढ़ भेद क्या बतला सकते हैं, पर जो बात देख सुन रहे हैं उसको बतलावेंगे।

एक खाट बिछी हुई है, उस पर वही लड़का जिसको हमने आँगन में पलँग पर लेटे हुए पोथी पढ़ते देखा था, अचेत पड़ा हुआ है, सर से लहू बह रहा है, मुँह पीला पड़ गया है। पास ही पाँच चार स्त्रियों भी बैठी हैं। इनमें एक लड़के की माँ, दूसरी उसकी बहन और तीसरी गजरेवाली है। दो उसी पड़ोस की और हैं। लड़के की माँ उसको अचेत और उसके सर से लहू बहता देखकर ही रो पीट रही है। और उसकी बहन भी बहुत घबराई हुई है, पर इन दोनों को वही गजरेवाली समझा-बुझा रही है। पड़ोस की दोनों स्त्रियों में से एक पानी छोड़ती है, और दूसरी लड़के के घाव को धो रही है। लड़के की माँ का नाम पारवती, और बहिन का नाम देवहूती है। गजरेवाली का नाम बासमती है, यह आप लोग जानते हैं। यह जाति की मालिनहै।

पारवती और देवहूती को बहुत घबराई हुई देखकर बासमती ने कहा, लहू का जाना रुकता नहीं, लड़का अचेत पड़ा है, बैदजी आज घर नहीं हैं जो उनको बुला लाकर दिखलाऊँ, और जो बात मैं कहती हूँ उसको तुम मानती नहीं हो, फिर काम कैसे चलेगा? मेरी बात मानो, नहीं तो मैं देखती हूँ अनरथ हुआ चाहता है।

पारवती-मेरे घर आज तक कोई ओझा नहीं आया, देवहूती के बाप कहा करते। जिस घर में ओझा का पाँव पड़ा वह घर चौपट हुआ! फिर मैं तेरी बात कैसे मानूँ। पर हाँ! जो कोई दूसरा ऐसा मिले, जो मुझ दुखिया को इस दुख में सहारा दे सके तो तू जा उसको लिवा ला, मैं तेरा बहुत निहोरा मानूँगी।

बासमती-ओझा होने ही से क्या होता है, क्या सभी ओझे थोड़े ही बुरे होते हैं, फिर भले बुरे किसमें नहीं होते। मैंने कई एक ऐसे वैद और पण्डित भी देखे हैं, जिनका नाम लेते पाप लगता है, तो क्या इससे सभी वैद और पण्डित बुरे हो जावेंगे? यह मैं मानती हूँ, हरलाल जाति का कोहार है, और ओझा है। पर कोहार और ओझा होने ही से वह बुरा भी है, यह मैं कभी नहीं मान सकती। फिर हरलाल वैदई भी तो करता है, जब बड़े महाराज नहीं हैं, तो हरलाल को आप वैदई के लिए ही क्यों नहीं बुलातीं? ओझा होने से क्या वैदई करने के लिए भी वह नहीं बुलाया जा सकता?

पारवती-जिन लोगों में बहुत लोग बुरे होते हैं, जो उनमें दो-चार अच्छे भी हों तो उनके बुरे होने ही का डर रहता है। और जिन लोगों में बहुत लोग अच्छे होते हैं उनमें जो दो-चार बुरे भी हों तो इस बात की खटक जी में पहले नहीं होती। पण्डित और बैदों में बहुत लोग भले और अच्छे होते हैं, इससे उनमें जो कोई बुरा भी हो तो, पहले ही उससे जी नहीं खटकता। पर ओझा लोगों में जो लगभग सभी बुरे होते हैं, और उनमें जो बहुत करके नीच ही हुआ करते हैं, इससे पहले तो उनमें भलाई होती ही नहीं, और जो दो एक कोई भला हो भी तो, मन को उनकी परतीत नहीं होती। इसलिए उनसे सदा दूर ही रहना अच्छा है। पर इस घड़ी मैं बावली बनी हूँ, मेरा कलेजा फट रहा है, मेरा बच्चा अचेत खाट पर पड़ा है, भाग की खुटाई से वैदजी घर नहीं हैं। इसलिए जा! तू जा!! जो वह वैदई भी करता है, तो उसी को लिवा ला। वह साठ बरस का बूढ़ा भी है। पर मैं बड़ी दुबिधा में पड़ी हूँ, जो मेरे पति का वचन नहीं है, उसको कर रही हूँ, कहीं ऐसा न हो, जो मुझे कुछ धोखा हो!!!

बासमती-मैं जाती हूँ, आप सब बातों में खटकती बहुत हैं, पर ऐसा न चाहिए, कभी-कभी हम लोगों की भी परतीत करनी चाहिए। आप देखेंगी, हरलाल आते ही बाबू को अच्छा कर देगा।

यह कहकर वह वहाँ से चली गयी।

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रचनाएँ
अधखिला फूल
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अधखिला फूल "अधखिला फूला उपाध्याय जी का दूसरा सामाजिक उपन्यास है है देवहूती एक विवाहित स्वी है । उसका पति देवस्वरूप संसार से विरक्त रहते के कारण कहीं बाहर चला जाता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि आज के पाठक को यह भाषा कुछ कृत्रिम-सी लगेगी । सिर भी ऐसा नहीं है कि वह इस रचना में रस न ले सके ।
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अधलिखा फूल भाग 1

5 अगस्त 2022
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वैशाख का महीना, दो घड़ी रात बीत गयी है। चमकीले तारें चारों ओर आकाश में फैले हुए हैं, दूज का बाल सा पतला चाँद, पश्चिम ओर डूब रहा है, अंधियाला बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों अंधियाला बढ़ता है, तारों की चमक

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भाग 2

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जिस खेत में यह टूटा हुआ तारा गिरा, उसमें देखते-ही-देखते एक भीड़ सी लग गयी, लोग पर लोग चले आते थे, और सब यही चाहते थे, किसी भाँत भीड़ चीरकर उस तारे तक पहुँचें, पर इतने लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे, जिससे

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भाग 3

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एक बहुत ही सजा हुआ घर है, भीतों पर एक-से-एक अच्छे बेल-बूटे बने हुए हैं। ठौर-ठौर भाँति-भाँति के खिलौने रक्खे हैं, बैठकी और हांड़ियों में मोमबत्तियाँ जल रही हैं, बड़ा उँजाला है, बीच में एक पलँग बिछा हुआ

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भाग 4

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 5

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चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं

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भाग 6

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बासमती जाने से कुछ ही पीछे हरलाल को ले कर लौट आयी। हरलाल छड़ी से टटोल-टटोल कर पाँव रखते हुए घर में आया। उसके आते ही पारबती और देवहूती वहाँ से हटकर कुछ आड़ में बैठ गयीं, पर पड़ोस की दोनों स्त्रियों पहल

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भाग 7

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भोर के सूरज की सुनहली किरणें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही हैं, पेड़ों की पत्तियों को सुनहला बना रही हैं, और पास के पोखरे के जल में धीरे-धीरे आकर उतर रही हैं। चारों ओर किरणों का ही जमावट है, छतों पर, मुड

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भाग 8

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चमकता हुआ सूरज पश्चिम ओर आकाश में धीरे-धीरे डूब रहा है। धीरे-ही-धीरे उसका चमकीला उजला रंग लाल हो रहा है। नीले आकाश में हलके लाल बादल चारों ओर छूट रहे हैं। और पहाड़ की ऊँची उजली चोटियों पर एक फीकी लाल

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भाग 9

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फूल तोड़ते चौबीस दिन हो गये। इतने दिनों में काम कुछ न निकला, यह बात बासमती के जी में आठ पहर खटकने लगी। कामिनीमोहन भी बेचैन हो चला था, इसलिए वह भी कभी-कभी बसमाती को जली कटी सुनाता, इससे बासमती और घबराय

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भाग 10

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हमारे हरमोहन पाण्डे इसी ढंग के लोग हैं-होनहार के भरोसे बाप का कमाया लाखों रुपया उड़ा चुके हैं। बीसों गाँव पास थे, पर एक-एक करके सब बिक चुके हैं। अब तक रहने का घर बचा था। आज उससे भी हाथ धोना चाहते हैं।

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भाग 11

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चारों ओर आग बरस रही है-लू और लपट के मारे मुँह निकालना दूभर है-सूरज बीच आकाश में खड़ा जलते अंगारे उगिल रहा है और चिलचिलाती धूप की चपेटों से पेड़ तक का पत्ता पानी होता है। छर्रों की भाँत धूल के छोटे-छोट

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भाग 12

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देवहूती और उसकी मौसी के घर के ठीक पीछे भीतों से घिरी हुई एक छोटी सी फुलवारी है। भाँत-भाँत के फूल के पौधे इसमें लगे हुए हैं, चारों ओर बड़ी-बड़ी क्यारियाँ हैं, एक-एक क्यारी में एक-एक फूल है-फुलवारी का स

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भाग 13

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पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख पड़ता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली

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भाग 14

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कामिनीमोहन की फुलवारी के चारों ओर जो पक्की भीत है उसमें से उत्तरवाली भीत में एक छोटी सी खिड़की है। यह खिड़की बाहर की ओर ठीक धरती से मिली हुई है, पर भीतर की ओर फुलवारी की धरती से कुछ ऊँचाई पर है। खिड़क

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भाग 15

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>बड़ी गाढ़ी अंधियाली छायी है, ज्यों-ज्यों आकाश में बादलों का जमघट बढ़ता है, अंधियाली और गाढ़ी होती है। गाढ़ापन बढ़ते-बढ़ते ठीक काजल के रंग का हुआ, गाढ़ी अंधियाली और गहरी हुई, इस पर अमावस, आधी रात और स

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भाग 16

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अपनी फुलवारी में टहलते हुए कामिनीमोहन ने पास खड़ी हुई बासमती से कहा- बासमती-क्या मैंने कोई आपके साथ चाल की बात की है? आपके होठों पर आज वह हँसी नहीं है, आँखें डबडबायी हुई हैं, मुँह बहुत ही उतरा हुआ है

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भाग 17

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 18

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आज भादों सुदी तीज है, दिन का चौथा पहर बीत रहा है, स्त्रियों के मुँह में अब तक न एक दाना अन्न गया, न एक बूँद पानी पड़ा, पर वह वैसी ही फुरतीली हैं, काम काज करने में उनका वही चाव है, दूसरे दिन कुछ ढिलाई

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भाग 19

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एक बहुत ही घना बन है, आकाश से बातें करनेवाले ऊँचे-ऊँचे पेड़ चारों ओर खड़े हैं-दूर तक डालियों से डालियाँ और पत्तियों से पत्तियाँ मिलती हुई चली गयी हैं। जब पवन चलती है, और पत्तियाँ हिलने लगती हैं, उस घड

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भाग 20

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बन में जहाँ जाकर खोर लोप होती थी, वहाँ के पेड़ बहुत घने नहीं थे। डालियों के बहुतायत से फैले रहने के कारण, देखने में पथ अपैठ जान पड़ता, पर थोड़ा सा हाथ-पाँव हिलाकर चलने से बन के भीतर सभी घुस सकता। पथ य

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भाग 21

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बासमती के चले जाने पर देवहूती अपनी कोठरी में से निकली, कुछ घड़ी आँगन में टहलती रही, फिर डयोढ़ी में आयी। वहाँ पहुँच कर उसने देखा, बासमती पहरे के भीलों से बातचीत कर रही है। यह देखकर वह किवाड़ों तक आयी-औ

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भाग 22

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>कामिनीमोहन की भी आज ठीक यही दशा है-वह खाते पीते, सोते जागते, भोले-भाले मुखड़े का ध्यान करता, जहाँ रसीली बड़ी-बड़ी आँखें देखता वहीं लट्टू होता, गोरे-गोरे हाथों में पतली-पतली चूरियाँ उसको बावला बनातीं,

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भाग 23

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एक चूकता है-एक की बन आती है। एक मरता है-एक के भाग्य जागते हैं। एक गिरता है-एक उठता है। एक बिगड़ता है-एक बनता है। एक ओर सूरज तेज को खोकर पश्चिम ओर डूबता है-दूसरी ओर चाँद हँसते हुए पूर्व ओर आकाश में निक

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भाग 24

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आज तक मरकर कोई नहीं लौटा, पर जिसको हम मरा समझते हैं, उसका जीते जागते रहकर फिर मिल जाना कोई नई बात नहीं है। ऐसे अवसर पर जो आनन्द होता है-वह उस आनन्द से घटकर नहीं कहा जा सकता-जो एक मरे हुए जन के लौट आने

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भाग 25

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बासमती के मारे जाने पर दो चार दिन गाँव में बड़ी हलचल रही, थाने के लोगों ने आकर कितनों को पकड़ा, मारनेवाले को ढूँढ़ निकालने के लिए कोई बात उठा न रखी, पर बासमती से गाँववालों का जी बहुत ही जला हुआ था, इस

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भाग 26

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आज दस बरस पीछे हम फिर बंसनगर में चलते हैं। पौ फट रहा है, दिशाएँ उजली हो रही हैं, और आकाश के तारे एक-एक कर के डूब रहे हैं। सूरज अभी नहीं निकला है, पर लाली चारों ओर दिशाओं में फैल गयी है। कहीं-कहीं पेड़

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