"छंदमुक्त काव्य"
गुबार मन का ढ़हने लगा है
नदी में द्वंद मल बहने लगा है
माँझी की पतवार
या पतवार का माँझी
घर-घर जलने लगा चूल्हा साँझी
दिखने लगी सड़कें बल्ब की रोशनी में
पारा चढ़ने लगा है लू की धौकनी में
नहीं रहा जाति-पाति का कोई बंधन
जबसे अस्तित्व के लिए बना महा गठबंधन
चोर ने लूट लिया मधुरी वाहवाही
चौकीदार की गेट पर बढ़ी आवाजाही।।
खेत हुए ऊसर बंजर जमीन
आ गया जबसे धनकुट्टी मशीन
जनता की पुकार है सदाबहार
मन के मरीज बहुत, एकही अनार
धीरे-धीरे होगा भाई कुशलम आराम
दिल खोल बोल वंदे जय श्रीराम
पड़ोसी की नींद उड़ी सुन शहनाई
सत्य की राह में अपनत्व की मलाई
खिल गया कमल मुराद मनचाही
चौकीदार की गेट पर बढ़ी आवाजाही।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी