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सामली दादी

3 अगस्त 2016

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झुर्रियों वाला वो कांतिहीन चेहरा मुझे आज तक याद है। झुकी हुई कमर, हाथ में बल खायी लकड़ी और सर पर सरकंडे से बना खरिया लिए, बकरियों को हाँकते हुए जब ज्याना खेत जाती तो लगता मानो खुद गरीबी साकार हो धरती पर आ गयी है। एक काला मरियल सा बैल और टूटी हुई सी गाड़ी भी थी ज्याना के पास जिसे हांक कर पदमाराम खेत जया करता था। ज्याना का पति था पदमाराम। लम्बी मटमैली दाढ़ी, लम्बे बाल, देखने पर लगता मानो कोई सन्यासी गेरुआ त्यागकर गृहस्थ बन गया हो। इकतारा लेकर जब वो कबीरजी के भजन गया करता तो एक हल्की सी खरखराहट उन भजनों में एक अजीब सी खनक पैदा कर देती। वह अक्सर एक भजन गाया करता था –

             ‘उड़ जाणा हंस अकेला,                       

             प्रभु दो दिना का मेला रे,

             उड़ जाणा हंस अकेला।

    हम रोजाना उनसे भजन सुना करते थे, पर पता नहीं क्यों इस भजन के सिवा किसी दूसरे भजन में वो मिठास नहीं आ पाती जो इसमें आती थी। लगता था शायद पदमाराम को कोई अंतस की वेदना थी जो इस भजन के माध्यम से बाहर आ जाती थी या फिर शायद कबीरजी की जीवन को समझाने वाली मार्मिकता का प्रभाव था, जो भी था पर था अनोखा असर जो इस भजन को जादुई बना देता था। हमारे घर के ठीक सामने था उनका घर, इसलिए मैंने ज्याना को एक नया नाम दिया, सामली दादी !

माँ जब भी पूछती कहाँ था, तो जबाब होता –

-   दादी के पास।

-   दादी कौन ?

-   सामली दादी !

    मेरी और माँ की आपस की इस बात से ज्याना का नाम बदल गया और पूरे मौहल्ले के लोग उसे सामली दादी के नाम से जानने लगे।

    देहात से दिखने वाले एक छोटे से कस्बे से शहर में आए थे हम, हालांकि शहर ये भी कोई बहुत बड़ा नहीं था पर उस कस्बे से दोगुना जरूर था। खुद का मकान तो नहीं था पर किराए के मकान में भी हमे कभी परायापन महसूस नहीं हुआ। मकान मालिक से हमारा एकदम घरेलू रिश्ता बन गया था। इसी किराए के मकान के सामने ही था सामली दादी का मकान। बैल-बकरियों के लिए बनायी गई एक टूटी सी टपरी, एक फूस की छत वाली रसोई और टीन डाली हुई दो छोटी-छोटी कोटड़ीयां। शहर में भी देहात का समां बांधता था सामली दादी का घर।

    सामली दादी जब बाजरी के आटे की रोटियाँ सेंकती तो एक खुशबू उठा करती थी। चूल्हे में अंगारों पर सिकती बाजरी की मोटी-मोटी रोटी और गँवार की फलियों को उबालकर बनायी गयी बूजी जिसमें ऊपर से डाले जाते थे कच्चे नमक-मिर्च। दही, बूजी और बाजरी की रोटी पीतल की थाली में सजाकर दादी जब दादा के पास ले जाती तो मैं मन मसोस कर रह जाता था। दादी अक्सर खाने के लिए कहा करती थी पर घर में डांट पड़ने के दर से मैं कभी नहीं खा पता था। हाँ मतीरे-ककड़ी जरूर खा लिया करता था। कभी-कभी बाजरी के सिट्टे सेककर निकाला जाने वाला मोरण भी खा लिया करता था, पर रोटी कभी नहीं खायी।

    मौहल्ले में सब लोग दादी को हेय दृष्टि से देखा करते थे। इसके पीछे क्या कहानी छिपी थी मुझे बहुत बाद में मालूम हुआ था। दादी के पाँच लड़कियां व चार लड़के हुए जिसमे से दो लड़के मर गए थे सबसे बड़ी थी सरोज और मांगली सबसे छोटी। मौहल्ले के लोग कहा करते थे कि दादी ने अपनी कंवारी बेटी के पैदा हुए बच्चे को जिंदा दफन कर दिया था। बचपन में तो मुझे इस बात का पता भी नहीं था पर जब भी माँ मुझे उनके घर जाने से रोकती तो एक खटका जरूर मन में उठता था। जब बड़ा हुआ और समझ पकड़ी तो यह बात पता चली पर दिल इस पर यकीन नहीं कर सकता था। दादी का मन तो इतना कोमल था कि यशोदा माता का मन भी ईर्ष्या करने लगे। फिर इतनी उदार हृदया दादी पर ये इल्जाम लगाना कुछ अटपटा सा लगता था। एक दिन मैं उनसे ही पूछ बैठा

-   दादी एक बात पूछूं ?

-   पूछ तो।

-   दादी बुरा मत मान जाना।

मैंने कहा तो दादी हंसने लगी

-   तू पूछ तो, मैं बुरा नहीं मानूँगी।

-   पर दादी ये बात तुम्हारे घर से, तुमसे जुड़ी है।

-   पूछ तो सही, जब से बात को गोल कर रहा है।

-   दादी मैंने सुना है तुमने अपनी बड़ी बेटी के लड़के को जिंदा ही दफना दिया था, ये मौहल्ले के लोग यह बात क्यों कहते हैं ?

-   तू भी क्या बात लेकर बैठा है।

दादी मुझे टाल रही थी।

-   नहीं दादी टालो मत बात को, तुम्हे मेरी कसम।

मैंने कसम देकर पूछा तो दादी बताने लगी –

-   हाँ बेटा लोग तो यही मानते हैं, पर तू खुद समझदार है, दसवीं में पढ़ता है। तू ही बता कुंती ने कर्ण को मारा था क्या ? ठीक वही हुआ बेटा। सरोज के भाग ही फूटे थे कि पहले तो क्वारी माँ बन बैठी और जब बेटा जन्मा तो काना।

-   फिर दादी वो बच्चा कहाँ गया ? या सचमुच तुमने मार दिया था ?

मैंने पूछा तो आँसू आ गए दादी कि आँखों में –

-   मैं डाकण नहीं हूँ बेटा/ इज्जत तो धूल में बेटी ने मिला ही दी थी, पर फिर भी इस शहर में अभी वह वक्त नहीं आया था कि एक क्वारी माँ के बच्चे को स्वीकार कर ले। मैं क्या करती अब तो दो ही रास्ते थे या तो गर्भपात या उस बच्चे का जन्म। मैंने दूसरा रास्ता पकड़ा और सरोज को लेकर खेत में चली गई, वहीं पर बच्चा पैदा हुआ, पर सरोज के दूध नहीं उतरा तो उस बच्चे को बकरी का दूध पिलाने लगी थी। सरोज कि तबीयत दिनोदिन बिगड़ने लगी थी, उसे डॉक्टर के पास ले जाना जरूरी हो गया था। एक दिन मैं सरोज को लेकर डॉक्टर के पास आ गई। सरोज को अस्पताल में भर्ती कर लिया गया और मुझे भी वहीं रुकना पड़ा।

-   और दादी बच्चा ? उसका क्या हुआ ?

मैंने पूछा तो बोली –

-   बच्चा तो छोटी बेटी लाली के पास छोड़ा था। उसे समझा दिया था कि बच्चे को दिन में बस तीन बार ही दूध पिलाना है। धूप में मत ले जाना, लू न लग जाये सब समझाया था, पर थी तो वो भी ग्यारह साल की बच्ची ही ना। जब भी वो बच्चा रोने लगता तो वो भाग कर बकरी के पास ले जाती और दूध पिला देती। सारा-सारा दिन उसे लिए बकरियों के पीछे दौड़ती रही। मैं सरोज को लेकर पाँच दिन बाद जब खेत पहुंची तो देखा बच्चे का पेट फूल कर कुप्पा हो रहा था, सांस तेज चल रही थी, आँख बार-बार घुमा-घुमाकर भयभीत चिड़िया की भांति फिरा रहा था। मैंने जब लाली से पूछा तो पता चला वह सुबह से ही ऐसे कर रहा था। ज्यादा पूछने पर पता चला कि उसने जब भी वो रोया उसको दूध पिला देती थी और ऐसे उसने बच्चे को बहुत ज्यादा दूध पिला दिया था। बकरी का भरपेट दूध वह कमजोर बच्चा कैसे सहन कर सकता था। मैं उसे लेकर अस्पताल कि तरफ भागी। चार खेत बाद देखूँ तो बच्चा नीला पड़ चुका था, आँख कि पुतली ठहर चुकी थी, सांसो की लड़ियाँ टूट चुकी थी। थके कदमों से मैं खेत लौट आई और उसे दफनाने के लिए लाली से गड्ढा खुदवाने लगी। जब मैं उस फूल को जमीन के जिगर में सौंप रही थी तभी पिछली गली वाले सुंडाराम ने देख लिया।

-   दादी वो तो पक्का नारद है।

-   बस बेटा ! अब बता मैं कहाँ गलत थी ? मुझे तो बदनाम किया गया है पर राम देखता है कौन गलत है।

मैंने देखा दादी कि आँखों से बहते आँसू उनकी झुर्रियों में खोते जा रहे थे।

-   पर दादी उस वक्त दादा कहाँ थे ? वो लाली के पास क्यों नहीं रहे ?

-   बेटा जब धणी के भाग्य दुर्बल हो तो भैंस भी च्यानणे पाडे जणती है। तेरा दादा उस वक्त पता नहीं कहाँ था। मांगली जब तीन साल की थी तभी वो साधुओं के साथ निकल गए थे। इस घटना के दस साल बाद लौटे थे ये तो। अब बता मैं अकेली जान क्या करती ?

    दादी से सब बातें जान चुका था मैं। अब तो बार-बार यही सवाल उठ रहा था मन में कि आखिर इसमें गलती किसकी थी ? सरोज की, दादी की, लाली की या इस सभ्य समाज की ?

    दिन बीतते गए और हम अपने नए मकान में आ गए और  मेरी फौज में नौकरी लग गई थी। आज पूरी दस वर्ष बीत चुके उन बातों को। मैं छुट्टी आया हुआ था। मैं तो लगभग भूल ही चुका था ज्याना, पदमराम, लाली, सरोज, सुंडाराम सबको, कुछ भी तो याद नहीं था। आज सुबह माँ ने कहा कि कल रात ज्याना मर गई –

-   कौन ज्याना ?

-   अरे भूल गया ! वो अपने सामने रहती थी ना पुराने मौहल्ले में।

-   कौन, सामली दादी ?

 

मनोज चारण कुमार

रतनगढ़ (चुरू)

मो. 9414582964

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