आज 29 अगस्त है, हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का जन्मदिवस। आज के दिन को ज़ोर-शोर से हमारे देश में खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। खेल, जो जीवन का एक अभिन्न अंग है। खेल, जो हमारे खून में समाया हुआ है। हमारे तीज-त्योंहार से खेल जुड़े हुए हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है कि मेरे ननिहाल में गणगोर के दिन ऊंटों की दौड़ होती थी, गाँव के नौजवान कबड्डी खेलते थे, कुश्ती का खेल होता था, पत्थर का माला (भारोतोल्लन) दिया जाता था, और गाँव के बुजुर्ग इन लोगों को खूब प्रोत्साहित करते थे।
मेरे बचपन में हम ठेठ देहाती जीवन जीते थे और ग्रामीण अंचल के खेल खेला करते थे। संतोलिया, पकड़म-पकड़ाई, कुरकांई, मार-दड़ी, हार-दड़ा, घुचि-दड़ा, गुल्ली-डंडा, कंचे, चांगल, भिश्ता, छिब्बीयां, चूड़ी टुकड़े डोंड, आईस-पाईस, लट्टू घुमाना, लंगड़ी टांग, खो-खो, दौड़, चक्कर चलाना, निसरणी कूदना, रस्सी कूदना आदि। इन खेलों में कुछ का तो आज की पीढ़ी ने नाम तक नहीं सुना होगा।
संतोलिया गेंद और सात पत्थरों से खेला जाता था वहीं पकड़म-पकड़ाई में एक दूसरे को एक निश्चित दायरे में पकड़ना और पकड़ से बचना होता था। मार-दड़ी में गेंद से खिलाड़ियों को मारना होता था तो हार-दड़ा में आधुनिक क्रिकेट का रूप छिपा था। घुचि-दड़ा और गुल्ली डंडा में लकड़ी, गेंद से खेला जाता था। इसी तरह छिब्बियां के खेल में विभिन्न भाँत की माचिसों के लेबल इक्कठे करने होते थे तो चूड़ी टुकड़े डोंड में खिलाड़ी को बहुत ही सावधानी से चूड़ी के टुकड़ों को चक्कर से बाहर एक-एक कर निकालना पड़ता था जिसमे गज़ब की एकाग्रता और संतुलन चाहिए होता था। आईस-पाईस जिसे लुक-मिचणी भी कहा जाता है उसमे छुपे हुए खिलाड़ी को खोजना और एक को ही नहीं सभी को खोजने का प्रयास अपने आप में एक अनुसंधान के समान होता था, और अनायास ही बच्चे पुलिस की कुछ भूमिका निभा जाते थे, सीख जाते थे। दौड़ और चक्कर चलाना तो सीधे-सीधे एथेलेटिक्स के खेल थे जिसमे खिलाड़ी को लोहे का एक पतला सा चक्कर एक लोहे के तार जिसे ताड़ी कहा जाता था से चलते हुए सीधे भागना पड़ता था और चक्कर को भी संतुलित रूप से चलाना पड़ता था। खो-खो में तो पूरा व्यायाम हो जाता था, निसरणी और रस्सी कूद तो लड़कियों के विशेष खेल हुआ करते थे जिनसे लड़कियों का शारीरिक सौष्ठव बना रहता था.
आधुनिक समय के वीडियो-गेम और इंडोर खेलों ने, क्रिकेट ने और कम्प्युटर ने बच्चो को इन खेलों से दूर कर दिया है। ये खेल जो बच्चो को न केवल शारीरिक रूप से मजबूत बनाते थे बल्कि मानसिक रूप से भी कसरत कराते थे और सामाजिक रूप से एकता का पाठ पढ़ाते थे आज हमारे समाज से खत्म हो चुके है। शहरों की तो बात ही क्या ये पारंपरिक खेल आज कस्बों और गांवों से भी गायब हो चुके है।
क्या ओलोम्पिक में मिली हार के बाद इस खेल दिवस पर हमें रुक कर नहीं सोचना चाहिए कि अर्जुन, एकलव्य और ध्यानचंद के इस देश में, दूसरा मिल्खासिंह क्यों नहीं पैदा हुआ है ? आज हार दूसरे बच्चे को सचिन ही याद है क्यों नहीं इस देश के बच्चो को के.डी.जाधव और गामा याद नहीं है? ये समय सोचने का है कि हम एक और पी.टी.ऊषा क्यों नहीं पैदा कर पाये हैं ?
- मनोज चारण 'कुमार'