किसी
भी भाषा का सौभाग्य होता है जब उसमे लिखने वाला उस भाषा को जीने लग जाता है।
हिन्दी का सौभाग्य था कि भारेंतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद और जयशंकर
प्रसाद हिन्दी को जीते थे। अंग्रेजी का सौभाग्य था कि शेक्सपियर ने उसको जीना शुरू
कर दिया था। उसी तरह राजस्थानी का भी सौभाग्य ये था कि उसे जीने वाला एक विलक्षण
व्यक्तित्व अंचल में छोटी काशी नाम से विख्यात कस्बे रतनगढ़ में जन्मा था। अध्यात्म, कला और संस्कृति के जन-संकुल केंद्र
रतनगढ़ में एक वेदपाठी ब्राह्मण और मनमौजी कलाकार पंडित चिरंजीलाल मिश्र के घर पर
चार अगस्त उन्नीस सौ तीस में एक बालक जन्म लेता है जिसका नाम रखा जाता है
नन्दकिशोर। किशोर अवस्था को प्राप्त करते-करते यह नाम भी केवल किशोर ही रह गया और
कालांतर में यही किशोर राजस्थानी भाषाकाश में किशोर कल्पनाकान्त नाम का उज्ज्वल
नक्षत्र के रूप में अपनी चमक बिखेरने लगा। पिता चिरंजीलाल संगीत, चित्रकला के कुशल एवं दक्ष कलाकार थे
किन्तु लोकप्रसिद्धि से दूर रहते थे,
परंतु कलाकार पिता के पास अंचल के श्रेष्ठ कलाकारों और साहित्यकारों का आना जाना
लगा रहता था और युवा होते बालक में यहीं से साहित्य और कला का बीज एक वटवृक्ष के
रूप में पनपने लगा था। पिता से चित्रकारी के गुर सीखे तो कत्थक की शिक्षा सोहनलाल
कत्थक ने देनी शुरू की। पिता के घर पर कक्का और ककहरा याद करने के बाद आपने राजस्थान ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम रतनगढ़
में दाखिला लिया लेकिन स्कूली शिक्षा के दौरान ही एक अध्यापक की अत्यधिक पिटाई
करने और छै माह घर पर खाट पर बिताने ने स्कूली शिक्षा का अंत कर दिया था, इस प्रकार अकादमिक शिक्षा ने अल्पवय
में ही दम तोड़ दिया। पिता के पास आने वाली पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन बालक किशोर
किया करता था,
पिता को भजन लिखते देख स्वयं भी तुकबंदियाँ करने लगा था और यहीं से एक भावी कवि का
जन्म होता है।
बाल्यकाल में समाप्त हुई शिक्षा ने बाल किशोर
की जिज्ञासा को और अधिक उग्र कर दिया जिसके फलस्वरूप उन्होने विभिन्न भाषाओं का
अध्ययन करना शुरू कर दिया और स्वाधाय ने उन्हें अनेक भाषाओं का ज्ञाता बना दिया
था। किशोर कल्पनाकान्त ने चित्रकारी,
पतंग बनाने, कपड़े सिलने आदि के
कार्य में महारथ हासिल की,
साहित्य और घरेलू संघर्षों के बीच आपका काव्य पुरुष निरंतर प्रगति की और बढ़ रहा
था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
की तरह ही आपने भी निजी जीवन में अनेक संघर्ष किए थे। छोटी सी आयु में माता-पिता
का देहांत होना भी कवि के लिए संघर्ष का एक बड़ा कारण था जिसमे अर्थाभाव भी एक कारण
था, लेकिन राजस्थानी का
ये कबीर अपनी फकीरी में ही मस्त रहता था।
उन्नीस सौ चौवालीस में हस्तलिखित पत्रिका “पतंग” के माध्यम से आपने साहित्य जगत में
प्रवेश किया था और बाद में “जाग्रत” और “निर्याम” नाम की दो हस्तलिखित पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया था।
निर्याम को आपने उन्नीस सौ बावन में साप्ताहिक के रूप में भी प्रकाशित करवाना शुरू
किया था जो कि चूरु जिले का प्रथम समाचार -पत्र होने का श्रेय
रखता है। उन्नीस सौ चौवन में
आपने “ओळमों” का प्रकाशन प्रारम्भ किया जो राजस्थानी
में अपने नवबोध के कारण एक क्रांतिकारी कदम था। “ओळमों” का प्रकाशन राजस्थानी भाषा आंदोलन में एक युगांतकारी कदम था। “ओळमों” का प्रकाशन आपके लिए एक निर्दोष प्रार्थना के समान रहा था
जिसके लिए आपने अपनी पत्नी के गहने तक गिरवी रखने पड़े थे।
किशोर
कल्पनाकान्त को उनकी कृति “कूख पड्ये री पीड़” के लिए राष्ट्रपति पुरूस्कार भी मिला था। आपने राजस्थानी भाषा
में हर विधा में लेख न किया था और वो प्रसाद की तरह अपने समय के वैतालिक
थे।
हेलो,
मानखो हेला मारै,
देखै जिसी चितारे,
कूख पड्ये री पीड़, भूत-प्रभूत
री बाताँ, गीतां रो बावळीयो, सोक्याँ माय एक-लो बो-ई, काळ
धिराणी-घरां धिराणी, उजास आंगणे प्रीत, मरवण तार बजा, कूंपळ अर फूल, निवण-निवण शिव उनकी काव्य
कृतियाँ है। किशोर गीता में आपने गीता का अनुवाद किया है जो कि गीतों के रूप
में है। “कुण कि है बो” में
उन्होने केनोपनिषद का अनुवाद किया है। “रुत संहार” में
आपने कालीदास के ऋतुसंहार का अनुवाद किया है।
गद्य में नस्टनीड़, शेक्सपियर री बाताँ, लोढ़ी-मोडी-मथरी, विश्वनाथ री बाताँ अर बनड़ा
रो सौदागर नामक पुस्तकें लिखी। विभिन्न पुरुस्कारों से सम्मानित और राष्ट्रपति पुरूस्कार से
सम्मानित कवि किशोर कल्पनाकान्त ने अपनी लेखनी से राजस्थानी भाषा को समृद्धि
प्रदान की थी।
छै फरवरी सन दो हजार दो में आपके नश्वर शरीर
ने ये दुनियाँ छोड़ दी और आत्मा
पंचतत्व
में विलीन हो गई। काव्य शरीर रूप में किशोर कल्पनाकान्त आज
भी हमारे बीच मौजूद है।
मनोज चारण
(गाडण) “कुमार”
लिंक रोड़, वार्ड न.-3, रतनगढ़ (चूरु)
मो.
9414582964