हमाम में सब नंगे हैं। कहावत बहुत पुरानी है, शायद इतनी कि उस वक्त जब ये बनी होगी तब तो हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज भी पैदा नहीं हुए होंगे। कहावतों की बातें तो होती रहेगी हमेशा लेकिन ये कहावत कुछ अलग ही है। क्रिकेट देखते हुए लोग अक्सर आपस में उलझ जाते हैं दो टीमों को लेकर, दोस्तों में मन-मुटाव हो जाता है, कोई टीम हारती है और कोई जीतती है तो इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाता है। पर किसे पता है कि हम कल जिस मैच के लिए सर फोड़ रहे थे वो तो फिक्स था। कल हम जिस टीम के खिलाड़ियों के लिए लड़ रहे थे वो टीम और खिलाड़ी तो कब के ही बिक चुके थे।
अब आपस में हम चाहें झगड़े, चाहे तो सर फोड़ें, इनका क्या जाता है? ये तो सौदा कर चुके होते हैं आपकी भावनाओं का। इन्हें किसी की भावना, देश की इज्जत, टीम की हार-जीत से कोई वास्ता नहीं है। कोई मतलब नहीं है इन्हें। बस इनके तो दोनों हाथों लड्डू है और सिर कड़ाही में। हारे तो ही पैसे मिलेंगे और सटोरिये तो हैं ही इनके माई-बाप, पालनहार, तारनहार, अन्नदाता, क्या-क्या कहें इनको? पूरे समाज को और विशेषतः युवा वर्ग का सत्यानाश कर दिया है इन लोगों ने। सस्ती कामाइ की डगर दिखा कर और उस पर चला कर इन लोगों ने देश के साथ बड़ी गद्दारी की है। इन पर देशद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए।
देशद्रोही, गद्दार, पापी या भावनाओं के कातिल सौदागर? नहीं आज तक बनी ये सब गालियां इनके लिए कम है, बल्कि इन लोगों पर गालियों का प्रयोग तो खुद गालियों का अपमान है। इन लोगों को तो देशद्रोह के आरोप में सरेआम चौराहों पर मुंह काला कर के फांसी पर लटका देना चाहिए। परंतु नहीं फांसी तो शहीदों का गलहार हुआ करता है। इनको तो वो सजा देनी चाहिए जो आज तक किसी भी इतिहास और कानून की किताब में नहीं लिखी गई, नहीं देखी गई, नहीं सुनी गई।
हाँ ! शायद यही ठीक रहेगा कि इन्हें छोड़ दिया जाये खुला समाज में अकेला जहां कोई भी इनसे बात नहीं करे, कोई भी इनका सहयोग नहीं करे और कोई इन्हे अपने पास तक न फटकने दे। क्योंकि ये लोग इस लायक नहीं होते कि इनसे किसी भी प्रकार का भावनात्मक संबंध बनाया जाये। क्यों नहीं इनको समाज में ही रख कर समाज से ही काट दिया जाये.............।
- मनोज चारण ‘कुमार’