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क्या सांस्कृतिक पतन हो गया है युवाओं का ?

9 अगस्त 2016

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आज के दौर में हर दूसरा व्यक्ति युवा वर्ग पर एक गंभीर आरोप बड़े छिछले तरीके से मढ़ देता है। युवा पीढ़ी में संस्कार नहीं है, युवा पीढ़ी संस्कृति के पतन में अपना योगदान दे रही है, युवा पीढ़ी पश्चिम का अंधानुकरण कर रही है, युवा पीढ़ी ये कर रही है युवा पीढ़ी वो कर रही है। हर सामाजिक विचलन के लिए युवा पीढ़ी को दोषी ठहराया जाता है। हर अपराध के पीछे युवा पीढ़ी को आलोचना झेलनी पड़ती है। रेल में, बसों में, स्कूलों में, कॉलेजों में, बाज़ारों में, मॉल में हर जगह पर युवा पीढ़ी को एक अजीब शक की नजर से देखा जा रहा है। आखिर क्यों ?

    मेरा सवाल है कि आखिर क्यों ? क्या युवा पीढ़ी ही बिगड़ी है ? क्या युवा पीढ़ी का ही पतन हुआ है ? क्या बुजुर्ग पीढ़ी तो हर कदम पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रही है ? क्या बीत चुके कल में बुजुर्गों ने हर कदम पर ईमानदारी और सच्चाई ही दिखाई थी ?

    आधुनिक कपड़े पहनना, टेक्नोलोजी के साथ कदम बढ़ाना, इंटरनेट और फेसबुक, वाहटसअप पर चेटिंग करना ही यदि युवा पीढ़ी के विचलन और पतन का एक मात्र उदाहरण है तो ये समाज का इकतरफा नजरिया है जो हमारे युवा वर्ग को जानबूझ कर हीन साबित करना चाहता है। आज के नेता, संत, समाज सुधारक, शिक्षक, बुजुर्ग सब ही युवा वर्ग के पीछे पड़े है।

    परंतु मैं नहीं सोचता कि किसी के जींस पहन लेने से, गॉगल लगा लेने से, या लड़कियों के दुप्पटे न ओढ़ने से ही उनका सांस्कृतिक पतन नहीं हो जाता। मैंने देखा है शिवालयों में सिर पर पल्लू डाले युवतियों को जलधारा देते हुए, देखा है उन युवाओं को भी चुपके से नंदी के कान में कुछ कहते जो बाहर से बहुत ही आधुनिक दिखते है। मैंने ये भी देखा है कि रेल में कोई भी अधेड़ या बुजुर्ग अपनी शीट नहीं छोड़ता लेकिन ये युवा स्त्री, वृद्ध आदि के लिए शीट तुरंत छोड़ देता है। वही युवा जब अपने किसी साथी से जरा सा ज़ोर से बोल लेता है तो वो संस्कारविहीन कैसे हो जाता है मैं आज तक समझ नहीं पाया।

    बल्डबैंकों के लिए ये युवा चुपके से आकर अपना खून दान कर जाता है और किसी को पता भी नहीं चलता कि खून किसने दिया है, लेकिन यदि वही युवा यदि होली या किसी त्योंहार पर जरा सा मस्ती में झूम जाए तो उसे सांस्कृतिक रूप से पतित घोषित कर दिया जाता है। मैंने देखा है मेरे युवा साथियों को समाजसेवा करते हुए। जलझुलनी ग्यारस पर मेरे ये युवा साथी ठंडी सिकंजी आते-जाते राहगीरों को पिलाते हैं, मोहर्रम पर ये छबील भी पिलाते है। सालासर बालाजी, रामदेवरा रामदेवजी, करौली की कैलादेवी, खाटू के श्यामजी, नीलकंठ के कावड़ियों और पैदल यात्रियों के लिए ये लोग भंडारे लगाते हैं तो गुरुद्वारों में भी अपनी सेवा देते हैं और चुपके से निकल जाते हैं।

    ये सब तो वो काम थे जो मेरे युवा साथी करते हैं बिना किसी दिखावे के, बिना किसी प्रचार के, बिना किसी लालच के। मेरे युवा साथी इस देश कि ज्वलंत समस्याओं से भी विमुख नहीं है। वोट डालने में भी ये किसी से कम नहीं हैं और इनकी राजनीति क समझ पर मुझे गर्व होता है।

    इन सबके बावजूद यदि मेरे युवा साथियों को भ्रमित, भटका हुआ, सांस्कृतिक रूप से विचलित कहा जाता है तो मैं इसका विरोध करता हूँ और पूछता हूँ इस समाज के ठेकेदारों से कि क्या इसके लिए सिर्फ ये लोग ही जिम्मेदार हैं। मेरा तो सीधा सा मत है कि यदि कोई युवा गलत है तो खोट उसके माँ-बाप की परवरिश में, उसके शिक्षक की शिक्षा में, उसके बुजुर्गों के आदर्शों में ही मिलेंगे। समाज को जरूरत है अपनी इस जिंदा और संवेदनशील सम्मपति पर विश्वास करने की और इनको विश्वास देने की।

         शेष फिर कभी ..................।

 

मनोज चारण कुमार

लिंक रोड़, वार्ड न.-3, रतनगढ़ (चूरु)

मो. 9414582964   

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