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भारतीय धर्म और दर्शन की घोषयात्रा क शंखनाद थी शिकागो की धर्म-सभा

10 सितम्बर 2016

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भारतीय धर्म और दर्शन की घोष यात्रा का शंखनाद थी शिकागो धर्म-सभा मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से विदेशी गुलामी से ग्रसित हुए भारतीय राष्ट्र-सूरज पर अंग्रेजी साम्राज्य का यूनियन जैक रूपी राहु ग्रहण लगा रहा था। भारतीय जन मानस में ये बात घर कर चुकी थी कि अंग्रेज़ हमसे शायद श्रेष्ठ हैं। एक तरफ जहां भारतीय मेधा में अंग्रेजी शिक्षा रूपी घुन लग चुका था वहीं दूसरी तरफ अंग्रेज़ विद्वान, इतिहासकार, दर्शनशास्त्री सब के सब इस बात को प्रमाणित करने में जुटे हुए थे कि भारत को सभ्यता का पाठ पढ़ाने के लिए ही अंग्रेज़ इस देश में आए हैं और उनका यहाँ रहना बहुत जरूरी है। झूठ के पुलिंदे बांधे जा रहे थे और इस झूठ को सच साबित करने में हमारे ही लोग भी अंग्रेजों के साथ लगे हुए थे। इसी भ्रम और भय के वातावरण में जन्म लिया था स्वामी विवेकानंद ने। बारह जनवरी अठारह सौ तिरेसठ में एक सम्पन्न परिवार में स्वामीजी का जन्म हुआ था और उन्हे आगे चल कर गुरु के रूप में मिले उस वक्त के ही नहीं बल्कि भारतीय ऋषि परंपरा के अब तक के सबसे जाजवल्यमान नक्षत्रों में से एक स्वामी रामकृष्ण परमहंस। गुरु का सानिध्य बालक नरेन को कब जिजीविषानन्द बना गया पता ही नहीं चला और देखते ही देखते नरेन का नाम बदल गया। यही युवा सन्यासी जब खेतड़ी के महाराजा से मिलते हैं तो उन्हे नया नाम मिलता है विवेकानंद जो कि आगे चल कर विश्व को एक तूफानी सन्यासी के रूप में नजर आता है। स्वामी विवेकानंद माँ शारदा से आशीष लेकर जब अमेरिका के लिए रवाना हुए थे तब उनके पास कुछ नहीं था, सिवाय अपने गुरु के दिये आशीर्वादों, भारतीय ज्ञान और संस्कृति के सनातन मूल्यों तथा कुछ इष्ट मित्रों के विश्वास के अलावा। शिकागो की धर्म सभा में पहुँचने के लिए उनको बहुत पापड़ बेलने पड़े, लेकिन जैसे सूर्य की राह बादल नहीं रोक सकते वैसे ही स्वामीजी की राह की बाधाए स्वतः ही मिटती गई। ग्यारह सितंबर अठारह सौ तिरानवे की वो सुबह पिछले बारह सौ सालों से दबते आए भारतीय समाज और संस्कृति के उद्घोष की सुबह थी। ये वो सुबह थी जिसमे विक्रमशिला और नालंदा के जलते ग्रन्थों का ज्ञान अपनी पूर्ण ज्वाला के साथ धधक उठा था। ये उस मानसिक गुलामी की जंजीरों का चटकना था जो मुस्लिम और अंग्रेज़ विदेशियों ने भारतियों के मन-मस्तिष्क पर डाल दी थी। ये सुबह उन भारतीय सनातन मूल्यों के विजय की सुबह थी जो सम्पूर्ण विश्व में सिर्फ भारत के ही पास थे। भारत के एक सिंह ने अपनी घन-गंभीर गर्जना से सम्पूर्ण विश्व को हिला दिया था। जिस पश्चिम ने आज तक स्त्री-पुरुष के दैहिक सम्बन्धों के अलावा कोई संबंध सोचा और देखा ही नहीं था उस पश्चिम में स्वामीजी ने अमेरिकन भाइयों और बहनों का उद्बोधन देकर ये बता दिया कि, हम भारतियों की संस्कृति यूं ही पिछले पाँच हजार वर्षों से जिंदा नहीं है, वास्तव में कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। वेदों और उपनिषदों के श्लोकों की विषद व्याख्या करते हुए स्वामीजी ने सम्पूर्ण विश्व को ये बता दिया कि जब पूरी दुनियाँ जल रही थी तब हमने ही “वसुधैव कुटुंबकम” के साथ दुनिया की उन नष्ट होती संस्कृतियों के बीजों की रक्षा की थी। उन्होने मन से हार मान चुके भारतियों को अपने भाषण से ये बता दिया कि, आज भी पूरे विश्व में हमारी नस्ल सर्वश्रेष्ट है। शून्य से शुरू करते हुए स्वामीजी ने शून्य में ही सबको समाहित कर दिया था। इस विश्व धर्म-सभा के बाद जो स्वामीजी के अनेक जगह भाषण हुए, सभाए हुई और फिर पूरा पश्चिम खुद को शर्मिंदा महसूस करने लगा था। पाश्चात्य विद्वानों को तो ये तक कहना पड़ा कि, यदि हमारे अंदर थोड़ी भी शर्म बाकी है तो हमें भारत को तुरंत खाली कर देना चाहिए, जिस देश में स्वामी जैसे संत मौजूद हैं वहाँ पर हमारे द्वारा ईसाई मिसनरी भेजना किसी मज़ाक से कम नहीं है। ये कोई छोटी बात नहीं थी, बल्कि असंख्य सैनिकों के शस्त्र, हजारों विद्रोही और प्रदर्शनकारी मिलकर जो काम नहीं कर पाते वो एक अकेले गेरुए पहने सन्यासी ने कर दिखाया। किसी भी मामले में वो एक यौधा से कम नहीं थे इसीलिए उनको यौधा सन्यासी भी कहा गया। एक अद्भुत व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ने वास्तव में हजारों साल से जड़ पकड़ चुके भारतीय मानस को झकझोर दिया था, मानो किसी झंझावात ने किसी वृक्ष को झकझोर दिया हो। भारतियों के मानस में आई जकड़न को उनके भाषणों में मिलने वाली कड़वी घुट्टी ने तोड़ दिया था और भारतीय मेधा फिर से अपने-आप पर गर्व करने लगी थी, खुद पर यकीन करने लगी थी और आजादी की लड़ाई के लिए कमर कस के तैयार हो चुकी थी। वास्तव में ग्यारह सितंबर अठारह सौ तिरानवें की वो विश्व धर्म-सभा की सुबह भारतीय धर्म और दर्शन की घोषयात्रा का उद्घोष और शंखनाद थी जिसका श्रीगणेश शिकागो विश्व धर्म-सभा में स्वामी विवेकानंद ने किया था। - मनोज चारण (गाडण) “कुमार” लिंक रोड़, वार्ड न.-3, रतनगढ़ (चूरु) मो. 9414582964

मनोज चारण 'कुमार' की अन्य किताबें

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जीवंत संस्कृति का नाम है गंगा

30 जून 2016
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गंगा,नाम लेते ही आँखों के आगे भगवान शिव के मस्तक से बहती,मकरवाहिनी, मंद मुस्कान के साथ धरती की तरफ सन्यासी बने भागीरथ केपीछे-पीछे चलती एक शुभ्र और मन को शीतलता प्रदान करने वाली देवी का चित्र आ जाताहै। परंतु जब हम हरिद्वार में पहुँचते हैं तो सामने दिखती है एक विशाल जलराशि जोअपनी विशिष्ट गति के साथ बह

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नपुंसक योद्धा

30 जून 2016
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अल्लाऊदीन की सेना उफनती नदीकी तरह बढ़ती ही जा रही थी। नुसरतखान के नेतृत्व में सल्तनत की विशाल सेना ने गुजरात की और कूच किया था। दिल्ली की सेना जिस और मुंह कर लेती उधर जाने कोई जलजलाआ जाता था। उधर सिंध से उलूगखान केसाथ हजारों की संख्या में सैनिक रवाना हो चुके थे जो कि गुजरात के रास्ते में नुसरतखान की

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प्रतिभा

6 जुलाई 2016
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गुरूपदेशादध्येतुंशास्त्र जड़धियो∙प्यलम।काव्यं तु जायते जातु कस्यचित प्रतिभावतः॥ <!--[if !supportLists]-->-                                                                                                  -    आचार्य भामह अर्थात गुरु के उपदेशएवंशास्त्रों से जड़बुद्धि भी साधारण काव्य रच सकता है, किन्तुश

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बरगद का पेड़

11 जुलाई 2016
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      मैं उसे अक्सर देखा करता था। दिन में न जाने कितनी बार उसका वोमासूम चेहरा मेरी नजरों की राह गुजरता था। कभी वो घर की बाहरदरी में झाड़ू लगातेनजर आती तो कभी बाहर कचरा डालने जाया करती थी। जब वो हमारे पड़ौस में रहने आई थी, तब उसकीउम्र यही कोई बारह या तेरह की होगी। अंजाने माहौल में ढलते-ढलते उसे छ: माह

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क्या वास्तव में जन-आंदोलन था सन् सत्तावन का विप्लव ?

14 जुलाई 2016
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       10 मई की तारीख इतिहास में अपना एक अलग ही मक़ाम रखतीहै। दस मई का नाम आते ही मन-मस्तिष्क में झंझावात उठता है और नजरों के सामने दिखाई देने लगते हैं एक थके से बुजुर्ग बहादुरशाह, अपने बेटे को पीठ परबांधे एक नौजवान महिला रानी लक्ष्मीबाई,अपनेराज्य को बचाने की नाकाम कोशिस करते नानासाहेब, एक दुबला-पतला

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कलाम को सलाम

15 जुलाई 2016
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अद्भुत, अनन्य भक्त था,माँ भारती का लाल वो।रखता उज्जवल चेतना,भारतीय मेधा का भाल वो।थी गजब की जिजिविषा,क्या गजब थी चाल वो।छोङ पृथ्वी आज चला,नक्षत्र बङा विशाल वो।।थीह्रदय में एक लगन,बस एक लक्ष्य था अटल।भारत फिर से बने गुरू,पूजे सारा विश्व सकल।उसकी अग्नि की मार से,गूंज दिशाएं जाती थी,व्योम थर्राता आकाश

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माखण

26 जुलाई 2016
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माखण‘पेट की आगबहुत बुरी होती है साब, क्या नहीं करवा सकती ये।’ वह दार्शनिक के से अंदाज में बोला, <!--[if !supportLists]-->-      <!--[endif]-->तेरी उम्र कितनी है रे ? मैंने पूछा, <!--[if !supportLists]-->-      <!--[endif]-->बीस वर्ष। जबाब था उसका,<!--[if !supportLists]-->-      <!--[endif]-->और मेरी

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कहानी संग्रह “पराई जमीन पर उगे पेड़” की समीक्षा

27 जुलाई 2016
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      पिछलेदिनों में प्रतिलिपि वेबसाइट पर मैंने एक कहानी पढ़ी थी “पराई जमीन पर उगे पेड़”कहानी मुझे पसंद आई और मैंने कहानी की लेखिका को इस कहानी के बाबत टिप्पणी लिखी थी। लेखिकाने बताया कि उनका इसीनाम से एक कहानी संग्रह छप चुका है। मेरे द्वारा इस कहानी संग्रह के बारे में ये जिज्ञासाकी गई कि, मुझे ये कहा

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ईमानदारी जिंदा है अभी तक

28 जुलाई 2016
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ईमानदारी जिंदा है अभी तक आदरणीय राणोजी नमस्कार!      पिछले एक महीने से मैं लगातार सोच रहा था कि, आपकोकिस प्रकार से शुक्रिया अदा करूँ, लेकिन समझ नहीं पा रहाथा। इस भागती-दौड़ती स्वार्थी और मतलबी दुनियां में आपकी ईमानदारी और सरल स्वभाव मेरे लिए एक सुखद एहसास ही नहीं बल्किआर्थिक रूप से भी लाभकारी रहा है।

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दीवारें

29 जुलाई 2016
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अक्सर दीवारें दो लोगों के बीच में आ जायाकरती है। आखिर क्यों बनती है ये दीवारें ? कौन बनाता है इन्हें ? समझ में नहीं आता किसे दोष दूँ।     समाजको, परम्परा को, आज के वातावरण को या खुद इंसान को ? परम्पराएँ दोषी कैसे हो सकती है, क्योंकि परम्पराएँडालता कौन है ? समाज किससे बनता है और वातावरण बनाता कौन है

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मेरा देश तरक्की कर रहा है

2 अगस्त 2016
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आज लिखने को कुछ खास नहीं,मन अस्थिर है, उदास नहीं,क्या करूँकोई शक्ति मेरे पास नहीं,जो संभालसकूँ इस देश को,पर कुछ नहींकर पाता हूँ,और कुछ होनेकी भी आस नहीं।। मेरा देशतरक्की कर रह है,हम बाईसवीसदी मे जा रहे है,कल तक हमारेपास रिस्तों की भरमार थी,आज अकाल हैरिस्तों का,खो गए है,मुहल्ले के दादा-दादी, ताऊ-ताई,

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सामली दादी

3 अगस्त 2016
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झुर्रियों वाला वो कांतिहीनचेहरा मुझे आज तक याद है। झुकी हुई कमर, हाथ में बल खायी लकड़ी और सर पर सरकंडे सेबना खरिया लिए, बकरियों को हाँकते हुए जब ज्याना खेत जाती तोलगता मानो खुद गरीबी साकार हो धरती पर आ गयी है। एक काला मरियल सा बैल और टूटी हुईसी गाड़ी भी थी ज्याना के पास जिसे हांक कर पदमाराम खेत जया कर

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राजस्थानी साहित्य के शिखर-पुरुष थे किशोर कल्पनाकान्त

4 अगस्त 2016
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किसीभी भाषा का सौभाग्य होता है जब उसमे लिखने वाला उस भाषा को जीने लग जाता है।हिन्दी का सौभाग्य था कि भारेंतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद और जयशंकरप्रसाद हिन्दी को जीते थे। अंग्रेजी का सौभाग्य था कि शेक्सपियर ने उसको जीना शुरूकर दिया था। उसी तरह राजस्थानी का भी सौभाग्य ये था कि उसे जीने वाला एक विलक्षणव

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राजस्थानी साहित्य के शिखर-पुरुष थे किशोर कल्पनाकान्त

9 अगस्त 2016
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किसीभी भाषा का सौभाग्य होता है जब उसमे लिखने वाला उस भाषा को जीने लग जाता है।हिन्दी का सौभाग्य था कि भारेंतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद और जयशंकरप्रसाद हिन्दी को जीते थे। अंग्रेजी का सौभाग्य था कि शेक्सपियर ने उसको जीना शुरूकर दिया था। उसी तरह राजस्थानी का भी सौभाग्य ये था कि उसे जीने वाला एक विलक्षणव

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कवित्व की शक्ति

9 अगस्त 2016
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नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा। कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा॥                     -  अग्निपुराण             अर्थात इस लोक में मनुष्य होना बहुत ही दुर्लभहोता है, उसमें भी मनुष्यहोकर विद्या-अर्जन करना और भी दुर्लभ काम होता है, विद्यावान होकर कवि होना उससे भी दुर्लभ और कवि हो

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क्या सांस्कृतिक पतन हो गया है युवाओं का ?

9 अगस्त 2016
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आज के दौर में हरदूसरा व्यक्ति युवा वर्ग पर एक गंभीर आरोप बड़े छिछले तरीके से मढ़ देता है। युवापीढ़ी में संस्कार नहीं है,युवा पीढ़ी संस्कृति के पतन में अपना योगदान दे रही है, युवा पीढ़ी पश्चिम का अंधानुकरण कर रहीहै, युवा पीढ़ी ये कर रहीहै युवा पीढ़ी वो कर रही है। हर सामाजिक विचलन के लिए युवा पीढ़ी को दोषी ठह

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क्रान्तिकारी केशरीसिंह बारठ

11 अगस्त 2016
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   क्रांति शब्द को सुनते ही ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने कानो में गरम-गरम  अंगारे डालें हैं , जैसे शांत वातावरण में अचानक आंधी आ गई है, या जैसे किसी ने शांत मंदिर में तेज घंटा बजा दिया है और नाद से पूरा मंदिर गूँज उठा हो। वास्तव में क्रांति शब्द में बेहद   आकर्षण है, जो खींचता है अपनी  ओर लेकिन यह खि

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कच्चे धागे की डोरी

19 अगस्त 2016
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इतिहासों से जाना जिसको, परम्परा से माना है। सूत वाला कच्चा धागा, रिश्तों का ताना-बाना है। इस धागे ने बांध लिया था, वचन बलि बलशाली का। यही धागा चाबी बना था, नारायण की ताली का। यही बना था मरहम पट्टी, कटी तर्जनी कान्हा की। पांचाली का चीर बना यह, शान बना फिर कान्हा की। भरी सभा में लाज बचायी, बस इक

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कहने को आजाद हैं हम

19 अगस्त 2016
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हम आजाद हैं सिर्फ, सरकारों को कोसने में, रिश्वतखोरी फैलाने में, खाली जमीने हथियाने में, कुर्सियां कब्जाने में। हम आजाद हैं, बस कचरा फैलाने को, दूजों की गलतियां बताने को, मयखाने सजाने को, झूठ को बचाने को। हम आजाद हैं, बस बस्तियां जलाने को, झूठा हल्ला मचाने को, सांम्प्रदायिकता फैलाने को,

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गरीबी पाप नहीं

22 अगस्त 2016
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मेरे हिस्से की गरीबी झेल रहा हूं, जबसे पैदा हुआ बस मिट्टी से खेल रहा हूं। माना कि गरबी पाप नहीं है, यह कोई बहुत घिनोना श्राप नहीं है, पर इसको कैसे पून्य बता दूं, क्या बीत रही है गरीबी में मुझ पर, सबको सब कुछ कैसे बता दूं। बचपन में तरसा था हरदम, कॉपी, पेंसिल, बरते,

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मौन

23 अगस्त 2016
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मौन भले ही बेहतर होता, पर हर बार मौन नहीं चलता है, कुरूखेत आबाद हो जाता, दुर्योधन मौन से पलता है। सही समय पर मौन रह जाना, भले हमारी नीति हो, पर बने जब हथियार पाप का, मौन रहना बङी अनीति है। मौन मौन में द्रोपदी लुट गयी, भिष्म-द्रोण जब मौन रहे, मौन रहा जब यदुकुल सारा, कस के हाथों छले गये। म

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नागदमण : कालीयै मर्दन

24 अगस्त 2016
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जन्माष्टमी पर विशेष रूप से मेरे खंड-काव्य से कुछ घनाक्षरीनटखट नंदलाला खेलत है गैंद तीर, गैंद जाय मारी देखो जमुना के नीर में। तुमहि अब जाओ लाला, गैंद हमारी लाओ, मार दई कालीयै के दह वाले नीर में। कस लई कछनी तो कूद गए दह मांही, तरन लगे है कान्हा जमुना के नीर में। श्याम सलौने को जो देखा नागिन भय भई,

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लुप्त हो चुके है भारत के मूल खेल

29 अगस्त 2016
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आज 29 अगस्त है, हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का जन्मदिवस। आज के दिन को ज़ोर-शोर से हमारे देश में खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। खेल, जो जीवन का एक अभिन्न अंग है। खेल, जो हमारे खून में समाया हुआ है। हमारे तीज-त्योंहार से खेल जुड़े हुए हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है कि मेरे ननिहाल में गण

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कश्मीर से सवाल

31 अगस्त 2016
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तुम रजधानी में आये आकर माता को गाली दी। उस माँ को गाली दे डाली, जिसने तुमको थाली दी। भरी हुई थाली में तुमने छेद किया है बोली से। इससे बेहतर हत्या कर देते बंदूक की गोली से।सीमा पार के आतंकी सीने पे हमने झेले है। कौन बचाये सांपो से बांहो में जो फन फैले हैं। जिनकी बातें जहरीली, सांसो में गरल उफनता

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स्वप्न वो जो हमें सोने न दे !

31 अगस्त 2016
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अक्सर हम खुली आँखों से भी सपने देखने लगते हैं। आखिर क्यों कहते हैं कि सपने तो सिर्फ नींद में ही आते हैं। अक्सर व्यक्ति देखते-देखते अचानक कहीं ख्यालों में खो जाता है। दरअसल बात कुछ यूं है कि जब अचानक हम भविष्य के प्रश्न पर विचार करने लगते हैं तो वर्तमान में हमारे पास क

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दोहरी छद्म-धर्मनिरपेक्षता की राजनीति क्यों ?

1 सितम्बर 2016
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आज के अखबारों में एक छोटी लेकिन वास्तव में बहुत बड़ी खबर पढ़ी। खबर थी गोवा की। गोवा जो कि भारत के एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल के रूप में विख्यात है। कुछ कामों के लिए कुख्यात भी है, उन पर हम चर्चा नहीं करेंगे। आज चर्चा कुछ नई बात पर होनी चाहिए। जिस गोवा से मनोहर

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सजा नहीं सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए

2 सितम्बर 2016
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हमाम में सब नंगे हैं। कहावत बहुत पुरानी है, शायद इतनी कि उस वक्त जब ये बनी होगी तब तो हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज भी पैदा नहीं हुए होंगे। कहावतों की बातें तो होती रहेगी हमेशा लेकिन ये कहावत कुछ अलग ही है। क्रिकेट देखते हुए लोग अक्सर आपस में उलझ जाते हैं दो टीमों को लेकर, दोस्तों में मन-

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समर्पण ! क्यों करें हम ?

7 सितम्बर 2016
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अक्सर हमारा लोगों से मतभेद क्यों हो जाता है ? क्यों हम समय से समझौता नहीं कर सकते ? अपने आपको समयचक्र में समाहित क्यों नहीं कर लेते? आखिर हर जगह, हर वक्त और हर किसी व्यक्ति पर हम अपने फैसले थोंप तो नहीं सकते। तो फिर क्यों हम हर बार यही चाहते हैं कि सामने वाला

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नजरिया अपना-अपना

9 सितम्बर 2016
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जीवन के बारे में, जीवन शैली के बारे में, किसी का भी अपना एक अलग फलसफा हो सकता है, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हम हर किसी के दर्शन को अक्षरस ग्रहण कर लें। आखिर क्यों ? हमें भी सोचने, समझने, तर्क करने और अपने तर्कों को प्रकट करने कि शक्ति प्राप्त है। भगवान ने हमें यह सब इसलिए इनायत किया है कि हम हर उस

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भारतीय धर्म और दर्शन की घोषयात्रा क शंखनाद थी शिकागो की धर्म-सभा

10 सितम्बर 2016
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भारतीय धर्म और दर्शन की घोषयात्रा का शंखनाद थी शिकागो धर्म-सभा मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से विदेशी गुलामी से ग्रसित हुए भारतीय राष्ट्र-सूरज पर अंग्रेजी साम्राज्य का यूनियन जैक रूपी राहु ग्रहण लगा रहा था। भारतीय जन मानस में ये बात घर कर चुकी थी कि अंग्रेज़ हमसे शायद श्रेष्ठ हैं। एक तरफ जहां भार

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हिन्दी

14 सितम्बर 2016
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हिन्दी हिन्द में हुई पराई, लोग अपनाते अंग्रेजी। नित नये बदलते चोले, पूत हो गये रंगरेजी। तुलसी-सूर-मीरां की भाषा, क्रंदन करती दिखती है। कवि चंद के छंदो में भी, अब अग्रेजी बिकती है। मैथिल कोकिल नहीं कूकती, मौन साध कर बैठी है। सौतन बनी परायी भाषा, सिंहासन पर ऐंठी है। प

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युद्ध का उन्माद बंद करो

20 सितम्बर 2016
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पिछले तीन दिनों से सब जन एक ही भाषा बोल रहे हैं की पाकिस्तान को मुंह तोड़ जबाब देना चाहिए। मेरा भी ये ही कहना है।परन्तु ये जबाब किस भाषा में हो, कैसा हो ? ये समझ नहीं पा रहा हूँ। कुछ लोग जोश में चिल्ला रहे है कि आर-पार की लड़ाई हो जानी चाहिए, कुछ म्यांमार जैसे ऑपरेशन की बात कर रहे है। सब के सब रक्ष

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