गंगा,
नाम लेते ही आँखों के आगे भगवान शिव के मस्तक से बहती,
मकरवाहिनी, मंद मुस्कान के साथ धरती की तरफ सन्यासी बने भागीरथ के
पीछे-पीछे चलती एक शुभ्र और मन को शीतलता प्रदान करने वाली देवी का चित्र आ जाता
है। परंतु जब हम हरिद्वार में पहुँचते हैं तो सामने दिखती है एक विशाल जलराशि जो
अपनी विशिष्ट गति के साथ बहती है उत्तर के हिमालय की ओर से। गंगा,
जिसे हमारे शास्त्रों में पापमोचनी कहा गया है, पुराण बताते हैं कि,
महाराज सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार करने को गंगा उतरी थी धरा-धाम पर। सात पीढ़ियों तक अटूट तपस्या और कोशिशों के बाद जब गंगा पृथ्वी पर उतरने को तैयार हुई तो गंगा के वेग को झेलने के लिए भगवान शिव की
जरूरत पड़ी और फिर भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में धारण किया। ये वो कहानी है
जो हमने सदियों से पढ़ी है, परंतु जब हम गंगा दर्शन
के लिए हरिद्वार पहुँचते हैं और हरिद्वार से ऋषिकेश तक
का सफर जब हम सड़क मार्ग से करते हैं तब पता चलता है कि ये जो कथाएँ हमे बताई जाती
है वो सिर्फ पौराणिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक स्तर पर भी कुछ हद तक सही लगती है।
विज्ञान का छात्र नहीं होने और एक साहित्य का छात्र होने के नाते मेरी कल्पना ही
बता सकता हूँ, ये कोई वैज्ञानिक तर्क नहीं हो सकता,
परंतु कल्पना तो हम कर ही सकते है। हरिद्वार से ऋषिकेश तक के राह में फैले विशाल
जंगल को यदि हम गौर से देखें तो हमें लगेगा कि ये वाकई किसी शिव नाम के विशाल
व्यक्ति के मस्तक पर लटकती जटाएँ ही है। यदि पुरातन काल के विज्ञान पर ध्यान दिया
जाये तो ये कहा जाता है कि, गंगा के पानी के पदार्थ-विज्ञान में कोई विशिष्ट बदलाव कर
दिया गया था जिससे उसके पानी में जीव नहीं पड़ते हैं। यदि हम इसे एक क्षण के लिए सच
माने तो फिर लगता है कि ये वैज्ञानिक कोशिश सिर्फ भागीरथ ने ही नहीं की थी,
बल्कि उनसे पहले उनके पूर्वजों ने भी कोशिश की थी और जिसका नतीजा था कि,
भागीरथ आखिर में इसमें सफल हुए थे। हाँ यदि शिव के मस्तक की जटाओं वाली बात की
कल्पना करें तो हम ये भी मान सकते हैं कि, शिव जो कि बहुत बड़े रसायन-शास्त्री,
प्राणीशास्त्री और भौतिक-विज्ञानी थे उन्होने भागीरथ की इस महान कार्य में मदद की
होगी।
ये तो बात है विज्ञान की,
जिसको हम यहीं पर छोड़ देते हैं और चलते हैं गंगा की घाटी में गंगा के
किनारे-किनारे एक अलौलिक आनंद की अनुभूति लेने के लिए। हरिद्वार के रेलवे स्टेशन
तक साधारण-दर्जे के डिब्बे की यात्रा करते हुए हम बुरी तरह से थक गए थे,
परंतु जब हर की पौड़ी पर पहुंचे तो पहले तो गंगा पल को पार करते हुए कुछ चक्कर से
आने लगे, क्योंकि गंगा को कई धाराओं में बांटा गया है वहाँ पर,
और हमारा एक साथ इतना पानी यूं बहते हुए कभी देखा नहीं गया था। पर कुछ देर बाद जब
गंगा की शीतल और वेगवती धारा में अपने पाँव रखे तो रीढ़ की हड्डी
तक सिहरन दौड़ गई। गंगा के शीतल जल में नहाने से रात की नींद,
यात्रा की थकान सारी की सारी गायब हो गई। गंगा की धारा के बीच तैरते छोटे-छोटे
बच्चों को देख कर मत तो बहुत किया कि हम भी उस वेगवती धारा का आनंद लें,
परंतु हमारा रेगिस्तान में रहने वाला शरीर जो कि तैरना नहीं जानता उस धारा से दूर
घाट पर लगी सांकलों तक ही सिमट कर रह गया। घाट पर एक औरत दूध लिए फिर रही थी,
पूर्वजों को तर्पण करने के लिए वो दूध बेच रही थी, गंगा की पूजा के लिए पत्तों के दौनों
में गुलाब, गैंदा के पुष्प और एक दीपक लिए भी बहुत
सी औरतें अपनी दूकान लगाए बैठी थी। घाट के दूसरी तरफ गंगाजी का मंदिर था और कुछ दुःसाहसी लोग धारा में तैर कर गंगा मंदिर की परिक्रमा लगा रहे
थे।
हर
की पौड़ी पर स्नान
करने के बाद हम लोग मनसादेवी के मंदिर गए और वहाँ
की ऊंची सीढ़ियों पर चढ़ते हुए हमारे एक साथी की तबीयत भी
खराब हो गई थी। मनसादेवी मंदिर हिन्दू धर्म अनुसार देवी पार्वती का मंदिर है जो कि
समुद्र मंथन के बाद जब शिव नीलकंठ में आकर बैठ गए थे तब उनको पुनः प्राप्त करने के लिए यहाँ पर तपस्या करने के कारण एक
सिद्ध-पीठ के रूप में विख्यात हुआ। इतना महान स्थान होने के बावजूद यहाँ पर सरकार
और मंदिर प्रशासन की तरफ से न तो सुरक्षा की व्यवस्था थी और ना ही छाया-पानी या किसी भी प्रकार की
कोई सुविधा ही दिखाई
दी। यहाँ पर बस थड़ी वालों की तरफ से ही छाया-पानी
की व्यवस्था की हुई दिखती है। मनसादेवी मंदिर से लौट कर हम लोग ऋषिकेश के लिए कुछ
साधन देख रहे थे कि, साधन की तलास में भीमगोड़ा पहुँच गए थे,
जाकर
देखा तो पता चला कि, कभी जो प्रकृति का बेहतरीन नजारा हुआ करता था,
उसे
आज के बिना बुद्धि किए गए विकास के तांडव ने लील गया है। अब भीमगोड़ा एक ऐसा कुंड है जिसमें सिरेमिक टाइलें लगी हुई है और जल के
नाम पर बस चंद बाल्टी पानी बचा है जिसमे बेचारी मछलियाँ तैर रही थी, भाग्य की मारी स्वार्थी मनुष्य की मारी।
भीमगोड़ा पर एक बहुत प्राचीन शिवलिंग भी स्थापित है जो ना जाने कितने वर्षों पुराना है, पर उस शिवलिंग में बहुत बड़ा सा छेद हो गया है जिसमे एक बाल्टी पानी पूरा
समा जाता है।
भीमगोड़ा
से हमने विक्रम टैक्सी जो ऋषिकेश के लिए एक सुलभ साधन है ली और हरिद्वार से रवाना
हो गए। बीच राह में रायवाला नाम का स्थान आता है जो कि राजाजी नेशनल पार्क का हिस्सा है। मेरे बचपन में एक बार रेलवे स्काउट के एक शिविर में मैं
यहाँ पहले भी आ चुका था तो मेरे दोस्तों को मैं एक गाइड के रूप में रास्ते की
जानकारी भी देता जा रहा था।
रास्ते में सौंग नदी भी आई जिसमें कभी मैं बचपन
में नहा चुका था। ऋषिकेश पहुंचे तब गंगा की आरती हो रही थी। झूलते हुए पल राम-झूले
जिसे शिवानंद झूला भी कहा जाता है से उतर कर हम सबने गंगा आरती के दर्शन किए और फिर
गीता-भवन में कमरे की व्यवस्था करने के बाद गंगा-स्नान के लिए गीता-भवन के सामने
बने घाट पर पहुंचे। गीता-भवन जैसा नाम है वैसा ही स्थान है,
स्वामी रामसुखदासजी, भाईजी हनुमानप्रसाद पोद्दार और जयदयालजी गोयन्दका द्वारा
स्थापित ये धर्मशाला अपने-आप में एक तीर्थ है, जहां हर सुबह गीता पाठ,
दिन में भागवत कथा और साँयकाल में भी धर्म-चर्चा चलती रहती है। ऋषिकेश में नहाने
के लिए हरिद्वार की तरह से घाट तो बना दिये गए हैं लेकिन हरिद्वार की सी व्यवस्था
यहाँ पर नहीं है, यदि दूसरे शब्दों में कहूँ तो यहाँ पर गंगा अपनी उन्मुक्तता
में बहती है बिना कोई बंधन के, पूर्ण यौवन के साथ। रात के साढ़े-नौ बजे
शीतल जल में उतरने के लिए कोई भी तैयार नहीं था, आखिर हिम्मत कर सभी ने अपने पाँव रखने
के लिए माँ गंगा से अनुमति ली। फिर तो कब गंगा की गोद में एक घंटा बीत गया पता ही
नहीं चला। रात के समय गंगा की धारा को देखने का
आनंद कहा नहीं जा सकता, सूर्य की गर्मी शांत होने या हिमनद के कम पिघलने, या जो भी कारण हो रात में गंगा की गति
में एक ठहराव सा
दिखता है,
लगता
है जैसे पूरे दिन बहने के बाद
अब गंगा आराम कर रही है।
रात्रि विश्राम के बाद सुबह हम फिर
नहाने गए और गंगा की पूजा करने और पूर्वजों के नाम का तर्पण करने के बाद नीलकंठ
महादेव के मंदिर के लिए रवाना हुए। नीलकंठ का पैदल रास्ता भी है,
लेकिन हम छोटी जीप से गए थे। बद्रीनाथ जाने वाला
रास्ता भी नीलकंठ की रास्ते से ही निकलता है। घुमावदार रास्ता, गहरी घाटियां और विशाल वृक्षों से हरी-भरी पहाड़ियाँ और विभिन्न प्रकार के फूल देख कर उस अनाम चित्रकार को प्रणाम किया जिसके बारे में प.भरत व्यास
ने अपने लिखे गीत में पूछा है, “ये कौन चित्रकार है।”
नीलकंठ के दरबार में खड़े पुजारीजी,
वहाँ पर व्यवस्था संभाल रहे सिक्योरिटी गार्ड जो कि एक महिला और एक पुरुष थे का
यात्रियों के साथ मृदु व्यवहार देख कर मन प्रसन्न हो गया। नीलकंठ की भी बहुत रौचक
कहानी है, कहा जाता है कि, जब समुद्र मंथन से प्राप्त हलाहल
को भगवान शंकर ने पी लिया और फिर उस की जलन का शमन नहीं हुआ तो वो इस नीलकंठ महादेव नामक स्थान पर आ कर हिमालय की ऊंची छोटी पर बैठ कर समाधि लगा ली थी, जिससे उनको शीतलता मिली थी। नीलकंठ के रास्ते का वर्णन करना किसी साधारण मनुष्य के बस की बात नहीं, उसे
सिर्फ आँखों के द्वारा पिया जा सकता है, पूरे रास्ते में मैं बहुत कम बोला और सिर्फ प्रकृति की उस सुंदरता को निहार रहा था, घाटियों के आध्यात्म
को अपनी आत्मा में उतार
रहा था, पहाड़ों के सम्मोहन
में मोहित हो रहा था। मेरी स्थिति तो उस गूंगे की सी हो रही है, जो
बस गुड़ के मीठेपन को महसूस कर सकता हूँ, पर बता नहीं सकता।
यात्रा का समापन भी हमने पुनः गंगा-स्नान से ही किया और माँ से पुनः दर्शन देने की विनती करते हुए रेल पकड़ ली। गंगा के प्रदूषण की बातों को, सरकार द्वारा नमामि गंगे योजना के विज्ञापनों
को,
गंगा
को पुनः शुद्ध करने के संकल्पों की बातों को सुन
रहा हूँ, और समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि,
जो
गंगा एक बार थोड़ा सा उग्र हुई तो पूरे उत्तरकाशी
जिले सहित पूरे उत्तराखंड राज्य में हा-हा-कार मच गया था, वो गंगा जिस दिन जरूरत पड़ी,
क्या अपनी सफाई खुद नहीं कर लेगी? मेरा तो यही मत है कि,
गंगा को बस बहने दो, निर्बाध, निर्विरोध और निर्मल।
मनोज
चारण (गाडण) “कुमार”
लिंक
रोड़,
वार्ड
न.-3,
रतनगढ़
(चूरु)
मो. 9414582964