जीवन के बारे में, जीवन शैली के बारे में, किसी का भी अपना एक अलग फलसफा हो सकता है, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हम हर किसी के दर्शन को अक्षरस ग्रहण कर लें। आखिर क्यों ? हमें भी सोचने, समझने, तर्क करने और अपने तर्कों को प्रकट करने कि शक्ति प्राप्त है। भगवान ने हमें यह सब इसलिए इनायत किया है कि हम हर उस गलत बात को सुने जो हमें सही या अच्छी नहीं लगती और फिर उस बात का, उस तर्जुमे का खंडन करें और अपना एक नजरिया विकसित करें।
अगर हम इश्क की परिभाषा को ही लें तो अक्सर लोगों को विशेषकर बुद्धिवादी वर्ग में यह वहम है कि अगर एक लड़का व लड़की मिले तो उसका अर्थ है कि वे विलासी है। जरूरी तो नहीं कि उनकी प्राथमिकता वासना ही हो। किसी के इश्क को हम कैसे समझ सकते हैं। आज के लोगों का यह नजरिया बन गया है, वे एक लड़के और लड़की को एक साथ भाई-बहन के तौर पर देख ही नहीं सकते। जरूरी तो नहीं कि वे दोनों प्रेमी-प्रेमिका ही हो। भाई-बहन, चाचा-भतीजी, मामा-भांजी हो सकते हैं या फिर सिर्फ अच्छे दोस्त भी तो हो सकते हैं।
कहने का मतलब यह है कि इश्क को मात्र दो जिस्मों का मिलन मानना बेमानी है। इश्क दो रूहों का मिलाप होता है। अक्सर कहा ये जाता है कि रूहों का मिलाप जिस्म पर आ कर खत्म हो जाता है। चलो मान भी ले एक पल के लिए तो फिर एक माँ का बेटे के साथ, भाई का बहन के साथ, बाप का बेटी के साथ, भक्त का भगवान के साथ, गुरु का शिष्य के साथ जो रूहानी इश्क होता है उसमे क्या जिस्म होता है ?
नहीं ! यह तो सिर्फ सोचने और समझने का नजरिया है। हर जगह स्वार्थलिप्सा नहीं होती है, अनेक बार ऐसा इश्क भी सामने आता है जिसमें स्वार्थ का नामोनिशान तक नहीं होता। एक भक्त अगर मूर्ति के आगे बैठ कर आँसू बहाता है तो उसे हम घड़याली आँसू नहीं कह सकते, क्योंकि उस वक्त उस मूर्ति में बैठे ईश्वर और उस भक्त की आत्मा के बीच रूहानी संतोष के अलावा कुछ भी नहीं होता है। ऐसे में यह बात एकदम बेजा लगती है कि इसमें संतोष का स्वार्थ छिपा था।
जन्नत और जहन्नुम तो किसी ने देखा नहीं है फिर उनको प्राप्त करने की कैसी स्वार्थ-लिप्सा। यह सब कहने की बातें है, सच्चाई पर गौर किया जाये तो एक ही तथ्य उभरकर सामने आता है कि हर-एक व्यक्ति का अपना एक तरीका होता है किसी को भी देखने का, समझने का।
कबीर, मीरा, तुलसी की भक्ति में जहां किसी को स्वार्थ नजर आता है वहीं हसन-हुसैन का बलिदान, भीष्म का त्याग, कर्ण का दान इन लोगों को बेमानी लग सकता है। दरअसल हम किसी पर भी अपना फलसफा थोंप नहीं सकते। जहां इन लोगों को इन महापुरुषों में स्वार्थ नजर आता है, वहीं अगर इनसे यह सवाल पूछा जाय कि इनका स्वार्थ क्या था ? तब ?
चुप ! एकदम चुप हो जाएँगे ये क्योंकि उनका स्वार्थ था ही नहीं। बस यह तो सिर्फ तर्क की बात है। अलग-अलग लोगों का अपना अलग-अलग नजरिया है। हम किसी का भी नजरिया, किसी का भी फलसफा तब्दील तो नहीं कर सकते, परंतु किसी भी दूसरे के दर्शन और नजरिये को भी बिना तर्क के ग्रहण नहीं करना चाहिए। तर्कों को खंडित करें, उनको परिष्कृत करें और अपना एक अलग नजरिया, एक नई दृष्टि विकसित करनी चाहिए।
इस प्रकार से करने पर इंसान खुद यह महसूस कर सकता है कि, हाँ ये मेरा स्वयं अनुभूत दर्शन है, यह मेरी स्वयं की सोच है, यह मेरी मौलिकता है, यह है मेरा दुनिया को देखने का नजरिया ..............।
- मनोज चारण ‘कुमार’