मैं उसे अक्सर देखा करता था। दिन में न जाने कितनी बार उसका वो
मासूम चेहरा मेरी नजरों की राह गुजरता था। कभी वो घर की बाहरदरी में झाड़ू लगाते
नजर आती तो कभी बाहर कचरा डालने जाया करती थी। जब वो हमारे पड़ौस में रहने आई थी, तब उसकी
उम्र यही कोई बारह या तेरह की होगी। अंजाने माहौल में ढलते-ढलते उसे छ: माह लग गए
थे। सबसे पहले वो रीमा के परिचय में आयी थी। रीमा जो कि उसकी सहपाठिन थी। अनजाने
स्कूल में यदि अपनी गली या मौहल्ले का कोई भी साथी पढ़ता हो तो लगता है जैसे उसका
कोई अपना ही साथ में है। रीमा के साथ वो स्कूल जया करती थी,
धीरे-धीरे दोनों कि दोस्ती गहरी होती गयी। हालांकि रीमा उसकी हमउम्र थी पर वो उसे
जीजा कहने लगी थी। मुझे उसका जीजा शब्द कुछ अटपटा सा लगता था क्योंकि जीजा तो बहन
के पति को कहते है, पर एक दिन मैंने मम्मी से पूछा तो पता
चला कि वास्तव में जयपुर अंचल में बड़ी बहन को भी जीजा कहते है। रीमा से उसकी
दोस्ती ही हमारे परिचय का सबब बनी थी। रीमा ! हाँ मेरी छोटी बहन का नाम है रीमा।
रीमा मुझे भैया कहती थी, पर उसने मेरे लिए भी एक नया रिश्ता, एक नया नाम, एक नया सम्बोधन ढूंढ लिया था।
जो भी सुनता चौंकता, हम दोनों जब भी बातें करते थे तो
भूल जाते थे कि कोई हमारे आस-पास बैठा भी है। अक्सर लोग हमें बातें करते देखते तो
उनकी चर्चा का केंद्र हम ही बन जाते थे। उसका मेरे कंधो पर बांहे डालकर दोस्तों कि
तरह बातें करना, बात-बात में मेरे हलका सा थप्पड़ लगा देना।
ना जाने वो कब मेरे इतना करीब आ गयी थी कि मैं रीमा से भी ज्यादा उसकी बातें मानने
लगा था। भायाजी कहती थी वो मुझे।
भायाजी ! कितनी मीठी थी उसकी बोली जिससे वो मुझे भायाजी कहती थी।
राखी नहीं बांधती थी वो मुझे पर उसका निश्छल प्रेम और विश्वास मुझे डरने और उसे
बहिन से भी ज्यादा स्नेह करने पर मजबूर कर देता था।
हमारे घर के सामने थोड़ी ही दूर पर एक भीमकाय बरगद का पुराना पेड़
था। मुझे बचपन में मेरे पड़दादाजी अपने बचपन की कहानियाँ बताया करते थे जब वो अपने
दादाजी के साथ वहाँ पर घूमने जया करते थे। वो बताते थे कि, उनके
दादाजी इस पेड़ को देख कर रोने लगते थे, मैंने पूछा क्यों तो
उन्होने बताया कि, ये पेड़ मेरे दादाजी के भी दादाजी का लगाया
हुआ है और मेरे दादाजी का बचपन इसी पेड़ कि डालियों पर खेलते हुए बड़ा हुआ था, अब ये पेड़ तो है पर ना तो उनके दादाजी है, ना ही
दादाजी। मेरे पड़दादाजी भी अक्सर अपने दादाजी की बाते कर के रोने लगते थे, पर मैं तो उस वक्त उस पेड़ कि उम्र के आंकड़ो में फंसा होता था।
मैं और प्रियंका अक्सर उस पेड़ कि तरफ घूमने जाया करते थे। मुझसे
जिद करके उसने इस पर दो झूले डलवा लिए थे। एक झूला तो नाइलोन कि मजबूत रस्सी का था
और दूसरा उस बरगद कि झूलती जटाओं का। जब भी उससे इन दोनों का सबब जानना चाहता तो
वो कहा करती कि जटाओं का झूला सिर्फ उसके लिए और उसकी भाभी के लिए है और रस्सी
वाला मेरे लिए था। जब मैं उससे पूछता कि भाभी कहाँ पर है तो वो मेरे गले में झूल
जाती और छोटी गुड़िया कि तरह कहती –
-
मेरे मामा कि लड़की बहुत सुंदर है, भायाजी
आपके लिए उसे ही लायेंगे।
और जब भी मैं शादी के लिए मना कर देता तो वो मुझसे नाराज हो जाती
और रूठकर बैठ जाया करती थी। हाथ जोड़ता, कान पकड़ता,
पाँव पकड़ता उसके, माफी मांगता तो भी वो बात नहीं करती थी। जब
काफी मिन्नतें करने पर भी वो नहीं मानती, तो मैं उसके पीठ
पीछे जाकर उसके गले में बांहे डालकर उसका दायाँ कान पकड़ कर सॉरी बोलता तब वो फिर
से बातें करने लगती।
तीन साल बीत गए थे उसे मेरे पड़ोस में आए हुए। अब उसमे कुदरती
बदलाव आने लगे थे। शरीर जवान हो रहा था पर मन उसका अब भी उसी जगह अटका हुआ था। अब
वो जूनीयर में पढ़ रही थी और मैं सैकिंडियर में पढ़ता था। अक्सर वो देर रात तक मेरे
पास बैठ कर पढ़ा करती थी, कभी-कभी तो मुझसे पढ़ने में होड़ लगाया करती थी। मुझे रात के दो बजे तक
पढ़ने कि आदत थी। जब रात बहुत हो जाया करती तो कभी मैं उसे छोड़ने जाता तो कभी वो
रीमा के साथ सो जाया करती थी। दोनों सहेलियों में बेहद प्रेम था तो झगड़ा भी बहुत
होता था। उसकी मम्मी को ईसपे कोई एतराज नहीं था। उसके पापा सीमा पर देश कि रक्षा
खातिर जैसलमेर सैक्टर में तैनात थे। छ: महीने से आते थे वो और जब आते तो प्रियंका
मुझे अपने घर पर ही रखती थी, आने ही नहीं देती थी। उसकी बड़ी
बहन से मेरी कभी नहीं बन पायी, ना जाने क्यों पर वो
हमेशा मुझे एक संदेह भरी नजर से देखा करती
थी। प्रियंका के पापा से सेना के बारे में ढेर सारी बातें सुनने को मिलती थी। एक
गज़ब का व्यक्तित्व था उनका, रौबदार आवाज, जब बोलते तो बस सुनने वाला सुनता ही रह जाता था। एक-एक शब्द अपने
सम्पूर्ण वजन और गरिमा को लेकर निकलता था। जब तक वे रहते मेरी कॉलेज और प्रियंका
कि स्कूल तो छूटते ही थे, वो रीमा को भी नहीं जाने देती थी।
दोनों वक्त का मेर खाना उसी के घर पर होता था। दिनभर तास-पत्ती, कैरम, शतरंज खेलना लगा ही रहता था। जब मैं और अंकल
खेलते तो रीमा अंकल के और प्रियंका मेरे खेमें में रहती थी। जब अंकल हारते तो इतना
चिड़ाती कि बस मत पूछो बात –
-
भायाजी से जीतना मुस्किल है, मुस्किल
ही नहीं नामुमकिन है। आप चीन-पाकिस्तान को हरा सकते है मेरे भायाजी को नहीं। पापा
आपने बंदूक और तोप चलानी सीखी है, शतरंज के मोहरे मेरे
भायाजी से चलाना सीखिये।
अंकल हँसते रहते और रीमा नाराज। जब कभी मैं हार जाता तो वो नाराज
हो जाती मुझसे। फिर उसी तरह दायाँ कान पकड़ कर मनाना पड़ता था उसे। अंकल को एक बार
वो बरगद के पेड़ तले जरूर ले जाती थी। हर वो कहानी जो उसने मुझसे सुनी थी, अंकल को
सुनाया करती थी और अंकल ! अंकल उसकी बातों को इतने गौर से सुनते थे मानो कोई
विद्यार्थी अपने गुरु कि बात सुन रहा हो।
समय बीटा प्रियंका अब बी.ए. में प्रवेश कर चुकी थी, उसकी बहन
कि शादी हो चुकी थी और उसके जीजाजी अमेरिका में रहते थे। यह रिश्ता उसके चाचा ने
जो खुद भी अमेरिका में रहते थे, उन्होने करवाया था। अपने
जीजाजी से मेरा परिचय उसने बड़े निराले अंदाज में करवाया था। पहले बताया कि ये एम.ए.
कर रहे है, रीमा जीजा मेरे साथ पढ़ती है वो इनकी मम्मी कि
लड़की है और ये रीमा जीजा के पापा के बेटे, मेरे प्यारे
भायाजी है। कहते-कहते वो मेरे गले में झूल गयी थी, उसके
जीजाजी चकित थे और मैं हैरान।
चाहे रिश्ते में कितनी ही पवित्रता हो, चाहे
कितना ही कोई आप पर विश्वास करे, पर हमारे आस-पास के लोग
कानाफूसी किया बिना नहीं मानते, अक्सर उँगली उठाया करते हैं।
हम पर भी उठी, बरगद पर झूलते, देर रात
उसे घर छोड़ने जाते, गली में खेलते,
हँसते देख लोग चर्चा करने लगे थे। मम्मी ने जब मुझे यह सब बताया तो पहले-पहल तो
बहुत गुस्सा आया बाद में जब गौर किया तो पता चला कि वास्तव में हम कितने ही पवित्र
रहें, बदनामी तो होगी। मैंने प्रियंका को समझाने कि बहुत
कोशिस कि –
-
मेरा कुछ भी नहीं होगा, पर पिंकू
सोचो जरा तेरी बदनामी तेरे भायाजी कैसे सहे ?
-
भायाजी, कोई भी कुछ कहे पर मैं आपसे दूर
नहीं रहूँगी।
-
पिंकू, कल जब तेरी शादी हो जाएगी तब भी तो
दूर रहेगी तू मुझसे।
बस उसी दिन से बल्कि उसी समय से प्रियंका ने मुझसे बात करनी छोड़
दी थी। रीमा के पास भी वो अब कम ही आया करती थी, वरना तो बस हर वक्त कमरे
में बैठी किताबों में सर खपाया करती थी। रीमा बता रही थी कि एक दिन जब वो गयी तो
प्रियंका एक फोटो को देख कर रो रही थी। बरगद के झूले पर हम दोनों कि फोटो रीमा ने
ही ली थी। मैं उसे झूला देने कि कोशिस कर रहा था कि उसने मेरी गर्दन में अपनी
बांहे दाल दी और रीमा ने कैमरे का बटन दबा दिया था। इस फोटो को देखकर कोई भी, कुछ भी गलत धारणा बना सकता था। मैंने उसे इस फोटो को फाड़ने के लिए भी कहा
था, पर उसने इसे अपनी पढ़ने कि मेज पर रख रखा था। रीमा ने
बताया कि वो बार-बार बस यूं घ कहती रही कि, “भायाजी आप कितने झूठे है।”
जब मैंने रीमा से ये बात सुनी तो रहा नहीं गया। मैं आंटी के पास
गया और जब उसके बारे में पूछा तो आंटी ने बताया कि उसने कॉलेज जाना भी छोड़ दिया था, बहुत कम
खाने लगी थी और रात को तीन-चार बजे तक पढ़ने लगी थी। मेरी तरह पढ़ते वक्त चाय बहुत
पीने लगी थी।
-
जाकर देखो तो सही कितनी कमजोर हो गई है आजकल।
मैं अंदर गया तो देखा वो पढ़ नहीं रही थी बल्कि रो रही थी। जब
मैंने उसे पुकारा तो उसने चौंक कर यूं देखा मानो किसी कोयल ने कोए कि कांव-कांव
सुन ली हो। जब मैंने उसे रोते देख लिया तो उसने फिर मेरी तरफ पीठ कर ली। मैं उसके
सामने जाकर बैठ गया और कहा-
-
ये क्या बचपना है, प्रियंका ? अब उन्नीस साल कि हो गयी हो तुम कोई बच्ची नहीं रहाई, जो इतना जिद करती हो। जरा दर्पण में अपना चेहरा तो देखो।
सचमुच इतनी गौर-वर्ण हो गई थी वो मानो इसे अभी दूध में डुबोकर
निकाला हो। वो आंखे जो हमेशा चपलता व चंचलता से इधर-उधर देखती रहती थी, वो अब
गंभीरता कि चुनार ओढ़ चुकी थी। उन्नीस वर्ष कि नवयुवती जो कल तक कच्ची सरसों सी
खिलखिलाती थी आज एक सुंदर पर कमजोर तपस्विनी सी लगने लगी थी जैसे गर्मी कि ऋतु में
गंगा कि धारा कुछ क्षीण हो जाती है। मैंने जब उसे यूं कहा तो वो अचानक हंसने लगी। असमंजस
में था मैं कि इसे अचानक ये क्या हो गया लेकिन दो पल ही गुजरे थे कि यकायक उसकी
आंखो से आँसू बहने लगे थे। मैंने उसे जितना भी चुप करने कि कोशिस कि उसकी हिचकियाँ
उतनी ही तेज होने लगी। मैंने जब उसे सॉरी कहा तब भी नहीं मानी और फिर मैं खड़ा हो
गया, चलने लगा तो हाथ पकड़ लिया उसने मेरा-
-
बस भायाजी ! इतना ही प्यार था अपनी पिंकू से, छ: महीने
में ही सब कुछ भूल गए नाम, सॉरी बोलना,
बस !
उसका अंतिम शब्द “बस” मेरे कानों में यूं लगा मानो किसी माँ ने
अपने छोटे बच्चे के थप्पड़ लगाया हो, जिसमे गुस्सा होता है पर साथ में
प्रेम भी होता है। मैं खड़ा का खड़ा रह गया पर अपने-आप पर काबू करके बोला-
-
नहीं, कुछ नहीं भूला मैं, ना तो नाम और ना ही सॉरी बोलना। पर पिंकू तेरा भायाजी मजबूर है।
-
बस भायाजी बस, पिंकू कहने का हक खो दिया है आपने।
मैं उसकी ये बात सुनकर गुस्से से बाहर निकल आया। मैं अब बरगद कि
तरफ बिल्कुल भी नहीं जाता था, कैसे जाता ? मेरी पिंकू
जो नहीं थी मेरे साथ। वो लड़की जिसने कभी मुझे राखी नहीं बांधी पर बहन से ज्यादा
प्यार किया। कभी मेरे बुखार हो जाता तो रात-रात भर मेरे पास बैठी रहती, रीमा और मम्मी को तो पता भी नहीं रहता कि घर में कोई बीमार भी है क्या ? रीमा के साथ प्रियंका जाया करती थी बरगद कि तरफ पर कभी भी झूला नहीं झूली
वो, हर बार झूले पर बैठते ही रोने लगती थी। जब रीमा उसे झूला
देने कि कोशिस करती तो वो मना कर देती –
-
नहीं जीजा, मैंने भायाजी को खो दिया।
छ: महीने गुजर गए अब प्रियंका कि सगाई कि चर्चा चल रही थी, पर वो
लड़की तो जाने पत्थर बन चुकी थी, उसे कोई खुशी ही नहीं थी।
पहले वो रीमा से मिलने आया करती थी, पर अब तो रीमा कि शादी
कि बाद आना ही छोड़ दिया था। एक दिन अचानक हमारे घरों में विस्फोट हुआ, पता चला कि सीमा पर होने वाली आए दिन कि गोलीबारी में अंकल को गोली लग
गयी। अंकल का पार्थिव शरीर सैनिक गाड़ी में आया। अंकल कि अंतिम यात्रा कि तैयारी हो
रही थी। उस वक्त उनका चेहरा खुला था। चेहरे पर खून के दो-चार छींटे लगे थे, मानो प्रकृति ने उन्हे उनकी बहादुरी के पुरुस्कार दिये हो। हमेशा फौज कि
बातें करने वाला वो उनका रौबदार चेहरा अब शांत था। रौब अब भी झलक रहा था फर्क
सिर्फ इतना था कि उस रौब में एक औज चमकता था, वीरता झलकती थी, वहीं अब शांति और सौम्यता कि झलक थी। जब अर्थी उठाने कि बारी आई तो अब तक
पत्थर बनी प्रियंका टूट गयी और पापा-पापा चिल्लाकर लिपट गई अर्थी से। हर किसी ने
उसे अलग करने कि कोशिस कि मगर नहीं हटी वो और फिर मम्मी ने मुझे ईशारा किया। मैंने
उसे छुआ तो लगा कि मानो बर्फ कि शिला के हाथ लगाया हो। उसने मेरी तरफ देखा तक
नहीं। पता नहीं क्यों पर अब वो मुझसे बात तक नहीं करती थी। कोई चारा न देख मैंने
उसके गले में बांहे दाल दी और कहा –
-
पिंकू
-
भायाजी।
अचानक उछल कर लिपट गयी वो मुझसे और बेहद कस के लिपट गई, ज़ोर से
रोने लगी थी वो। उसे चुप कराते-कराते मैंने अंकल के भाई को ईशारा किया तो उन्होने
अर्थी उठा ली। थोड़ी देर बाद मैंने मम्मी को बुलाया तो प्रियंका मम्मी से लिपट गई, मैं चला अपना कर्तव्य निभाने, अंकल को कंधा देने।
श्मसान घाट गूंज उठा था, एक सौ एक बंदूकों कि सलामी से।
क्यों ना मिलता ये सम्मान उन्हे, तीन आतंकवादियो को मार
गिराया तब गोली लगी थी उन्हे, एक पैर से जख्मी हालत में भी
मोर्चे पर डटे रहे थे वो। सब लोग एक-एक कर घर जाने लगे थे,
मैं भी आ गया अगले दिन ही मेरा फौज में भर्ती का कॉल-लेटर आ गया था। मैं ट्रेनिंग
में जाने कि तैयारी कर रहा था, जाने से पहले जब मैं आंटी से
मिलने गया और ट्रेनिंग के बारे में बताया तो मुझे वो कहने लगी –
-
राकेश खुशी से फौज में जाओ और अपने अंकल कि तरह ही
बहादुर बनना।
-
नहीं भायाजी, आप तो पढे-लिखे है ये फौज कि नौकरी
मत करो।
मुझसे लिपटते हुए प्रियंका
ने कहा। मैंने भी उसे बताया कि मेरा जाना जरूरी है।
-
मेरा कॉल-लेटर आ गया है पिंकू, अब जाना
पड़ेगा, फिर कमाई भी तो करनी है, इज्जत
कि नौकरी क्यों न करें ?
-
मैं पापा को खो चुकी हूँ भायाजी।
-
ये अंकल कि ही इच्छा थी कि मैं फौजी बनूँ।
मैं उसे समझा-बुझाकर आया, उस दिन अंतिम बार गले मिली थी वो
मुझसे। मैं दस महीने बाद लौटा तो मम्मी ने जो कुछ बताया सुनते-सुनते आंखे अपने-आप
बहने लगी। आंटी ने अंकल कि मौत को गले लगा लिया और रात-दिन घुटती रहती अंदर ही
अंदर। एक धूआं सा उठता रहा अंतस में जिसे कभी आँसू के रूप में नहीं निकलने दिया
आंटी ने। अक्सर खांसी आने लगी थी उन्हे, खाँसते-खाँसते मुंह
से खून के कतरे भी आने लगे थे और दस कदम चलते ही दम फूल जाता था उनका। डॉक्टर को
दिखाया तो उन्हे टीबी बताई और किसी पहाड़ी जगह ले जाने के लिए कहा। उनके भाई उन्हे
लेकर शिमला चले गए, देवर तो बारह दिन पूरे होते-होते अमेरिका
चले गए थे, उनके साथ ही प्रियंका कि बड़ी बहन भी चली गयी थी।
आंटी शिमला ऐसी गई कि वापस लौटकर ही नहीं आयी। मामा प्रियंका को अपने साथ ले गए।
मामा तो ठीक थे पर मामी को अपनी औलाद ही ज्यादा प्यारी थी। मामा के भी लड़कियां ही
थी, एक-आध नहीं पूरी छ:। बेटियों से घर भर गया मामा का सिर्फ
एक बेटे कि चाह में। सबसे बड़ी लड़की इक्कीस कि थी शायद और उससे छोटी दो और जो थी वो
भी लगभग अठारह-उन्नीस कि तो रही होगी। अब मामा के सामने चार लड़कियों कि शादी कि
समस्या थी, हालांकि प्रियंका के लिए तो उसके पापा कि मौत के
बाद मिले पैसे खूब थे, पर मामा भी प्रियंका के साथ ही अपनी
तीनों बेटियों कि शादी भी करना चाहता था। मामा रिश्ता ढूँढने लगा और जोधपुर में
मामा को एक रिश्ता मिल भी गया। मामा ने यहाँ अपनी दो बेटियों और प्रियंका का
रिश्ता तय कर दिया। मामा कि बड़ी बेटी थोड़ी कुरूप थी सो उसकी शादी में अड़चन आ रही
थी। लेकिन मामा को पचास वर्ष का एक लड़का मिल गया था जिसकी अभी शादी नहीं हुई थी, उसका छोटा भाई जो पुलिस में नौकरी करता था उसके दो बेटियाँ थी, एक बीस वर्ष कि और दूसरी उससे दो साल छोटी। उसकी पत्नी रक्त-कैंसर से दो
साल पहले मर गई थी। मामा ने अपनी छोटी बेटी का जोड़ उसके भतीजे से मिलाया जो शायद
पच्चीस-छब्बीस का होगा। मामा ने यह रिश्ता तय कर दिया क्योंकि उन लोगों को लड़की
नहीं मिल रही थी और मामा को इतने सस्ते लड़के कहीं नहीं मिल सकते थे। प्रियंका के
हिस्से के पचास हजार नकद दे कर यह रिश्ता तय किया था मामा ने। वो विरोध करती रही
पर कौन सुनता उसकी। उसने मम्मी को लैटर लिखा था कि भायाजी को बुला दो मम्मी ने
मुझे लैटर भी लिखा था, पर मैं आ न सका। आना तो दूर मुझे लैटर
तीन महीने बाद मिला, उस वक्त जब प्रियंका कि शादी हो रही थी, मेरी ड्यूटी मश्कोह घाटी में थी, चारों तरफ बारूद
कि गंध और उड़ते धूएं के सिवा कुछ भी नहीं था वहाँ। प्रियंका जो उस वक्त बीसवाँ
बसंत पार कर रही थी को एक ऐसे व्यक्ति के पल्ले बांध दिया गया जिसकी बेटियाँ उसकी
हमउम्र थी।
तीन महीने बाद जब मुझे लैटर मिला तो मैं आया छुट्टी पर। सात महीने
कि ट्रेनिंग और फिर तीन महीने युद्ध के बाद जब लैटर मिला तो सिर्फ इतना ही लिखा था
कि तुम जल्दी आओ प्रियंका मुसीबत में है। मैं जब तक आया तब तक तो मेरी पिंकू पर
मुसीबतों का पहाड़ टूट चुका था। घर लौटा तब मम्मी से सुनी थी ये सारी राम-कहानी।
मैं जोधपुर गया भी था पर कुछ पता नहीं चल सका। ट्रेनिंग और उसके बाद युद्ध, इसलिए
मुझे चार महीने कि लंबी छुट्टी मिल गई थी। एक दिन अचानक प्रियंका मेरे सामने आ खड़ी
हुई। मैंने उसे अचानक देखा तो सकते में आ गया। सफ़ेद साड़ी में लिपटी थी वो, आंखे मरणासन्न पड़ी गाय कि सी हो रही थी उसकी। चेहरा पाला मारे पत्तों कि
तरह पीला पड़ गया था, मुर्दनी छाई थी उस पर। दुबली तो इतनी हो
चुकी थी कि हवा चली और ये अब उड़ी तब उड़ी। राह छोड़ चली नदी सी सुनी मांग वीरान लग
रही थी। उसका ये रूप देख मुझे चक्कर आने लगा। मैंने अपना सर पकड़ लिया, मैं गिरने ही वाला था कि मुझे गिरता देख उसने अपना बैग फेंक दिया और
भायाजी कह कर मुझे थाम लिया। उससे मेरा भारी शरीर कैसे थमता,
मैं गिरने लगा तो उसने मुझे धीरे-धीरे लिटा दिया।
जब थोड़ी देर बाद आँख खुली तो मैं जमीन पर गिरा था और मेरा सर
प्रियंका कि गोद में था। जब थोड़ी राहत महसूस कि तो मैंने उस वेष का सबब जानना चाहा
तो पता चला कि उसके पति को भी ब्रेन-ट्यूमर था और शादी के महिने भर बाद ही वो उसे
छोड़ चला गया। दो महिने के अशोच के बाद घरवालों ने उसे वहाँ से निकाल दिया। मैं उसे
घर ले आया था। मम्मी ने उसे कहा कि रीमा अब ससुराल है और राकेश जब नौकरी पर चला
जाता है तो मैं और तेरे ताऊजी अकेले रह जाते है, अब तू आ गई है, हमारे साथ रहेगी तू।
मैं अब प्रियंका के साथ दोबारा बरगद के पेड़ कि तरफ जाने लगा था।
अब वो झूला नहीं झूलती थी बस सिर्फ जाती थी वहाँ पर। अक्सर झूले पर बैठी-बैठी रोने
लग जाती थी। हर रोज अब उसकी एक ही रट रहती थी कि भायाजी अब शादी कर लो, मुझे भाभी
ला दो। मैं अभी शादी के लिए तैयार नहीं था। मुझे प्रियंका के साथ देख लोग फिर
बातें बनाने लगे थे क्योंकि ये तो लोगों कि आदत होती है कि किसी से हमारा चाहे
जैसा संबंध हो पर उँगलियाँ जरूर उठती है। मैं एक महिने तक रहा था तब तक तो वो रही
और मैं जब वापस नौकरी पर चला गया तो वो भी पीछे से पता नहीं कहाँ चली गई। मम्मी ने
एक लैटर मुझे दिया तो पंद्रहवें दिन ही वापस लौट आया मैं। मम्मी ने मुझे एक लैटर
दिया, जो प्रियंका ने मेरे नाम लिखा था –
-
भायाजी, आपका कान पकड़ कर सॉरी ।
“आपको व ताईजी को
बिना बताए, बिना कहे जा रही हूँ। कहाँ जा रही हूँ, नहीं पता पर
क्यों जा रही हूँ, बताती हूँ। भायाजी हमारे संबंध कैसे थे
कोई नहीं जानता, मैंने कभी आपको राखी नहीं बांधी ना आपने
मुझे कभी बहन कहा। पर फिर भी मेरे लिए रीमा जीजा को भी तुम डांट देते थे। भायाजी
हर संबंध पर एक नाम कि मुहर होती है और इस समाज के लिहाज से होनी भी चाहिए। हमारे
रिश्ते पर कोई मुहर नहीं थी, पता नहीं तुम मेरे भाई थे, पिता थे, अंकल थे या दोस्त थे लेकिन उस रिश्ते को
हमने कोई नाम नहीं दिया। यहीं मात खा गए हम। भाई-बहन से भी बढ़ कर प्रेम था हम
दोनों में पर लोगों को शायद ये नहीं पता था कि हम एक-दूसरे के क्या है और अगर था
भी तो लोगों का क्या मुंह तो बंद किया नहीं जा सकता। याद है आपको एक बार मैं
साइकिल से गिर गयी थी और मेरा हाथ टूट गया था, दो महिने तक
आपने मुझे अपने हाथों से खाना खिलाया था, कॉलेज का काम पूरा
किया था।
आज कि बात बताती हूँ, मैं बाजार
से सब्जी ला रही थी, तो पीछे-पीछे अपनी गली के पीछे वाली
चाची और रजनी आ रही थी। वो बातें कर रही थी। रजनी कह रही थी –
-
चाची क्या कलयुग आ गया है, मैंने एक
दिन देखा कि प्रियंका और राकेश छत पर बैठे चाय पी रहे थे,
अचानक जाने क्या सूझा कि प्रियंका राकेश के पास बैठ गई। चाची मैं तो शर्म के मारे
नीचे चली गई।
-
अरे भाई-बहन के रिश्ते को भी बदनाम किया है इन
दोनों ने। रजनी ये दोनों तो रीमा के कंधे पे रख कर बंदूक चला रहे है।
याद है भायाजी उस
दिन आपको चक्कर आ गया था और मैंने आपका सर अपनी गोदी में रख लिया था। मेरा बहुत
झगड़ा हुआ उन दोनों से। घर आकर मैंने ताईजी को सारी बात बताई तो वे कुछ भी नहीं बोल
सके, बस मुझे गले लगा लिया और रोते-रोते सिर्फ इतना ही कहा कि –
-
बेटा ये सब लोग यूं ही कहते रहेंगे, तू इन पर
ध्यान मत दिया कर।
भायाजी मैं सब सहन
कर सकती हूँ। पापा-मम्मी की मौत सहन कि, अपने जीवन कि बरबादी सहन की, विधवापन सहन किया, ससुराल वालों से अपमान भी, पर भायाजी आपकी, रीमा जीजा और मेरे रिश्ते कि
बदनामी सहन करने कि ताकत अब मेरे में नहीं है। आपको दु:ख तो होगा पर क्या करूँ
भायाजी ? शायद जीवन में यही लिखा था। बोझ सी लगती इस ज़िंदगी
को जब तक जीऊँगी शान से, आत्महत्या नहीं करूंगी। आपको फिर
कभी लिखूँगी और एक दिन जरूर वापस आऊँगी लेकिन इस बार आऊँ तो मुझे भाभी मिलनी चाहिए
घर पर। अब बंद करती हूँ पर एक बार फिर आपका कान पकड़ कर सॉरी,
ताईजी को प्रणाम।
प्रियंका लेकिन
आपकी सिर्फ पिंकू।
खत पढ़ते-पढ़ते कब आंखे बहने लगी थी पता ही नहीं चल पाया, आखिरी
शब्दों को पढ़ते-पढ़ते चक्कर सा आने लगा और मैंने सर पकड़ा भी था पर गिर गया और आधे
घंटे बाद होस आया। दो दिन आराम किया मैंने और फिर एक लंबी छुट्टी कि अर्जी दे दी
और निकल पड़ा अपनी पिंकू कि खोज में, पर कहाँ मिलती, इतने बड़े भारत में तीन महिने तक खोजता रहा, फिरता
रहा पर नहीं मिली वो। हार कर मैं वापस नौकरी पर चला गया। पाँच साल बीत गए पर पिंकू
नहीं लौटी।
बरगद के पेड़ कि तरफ जाना ही छोड़ दिया था मैंने। क्योंकि अब डर
लगता है वहाँ जाने पर, आज अनायास ही उधर से निकल रहा था तो देखा कि बरगद कि जटाओं वाले झूले पर
एक तीन-चार साल की लड़की झूल रही थी। अचानक इस लड़की को देख मेरे कदम उस तरफ बढ्ने
लगे पर फिर अचानक रुक गया मैं, क्योंकि डर लगता है अब कहीं
कोई एक पिंकू फिर से न खो जाये। मैं रुक गया और फिर पीछे लौटने लगा था कि, पीछे से एक आवाज आयी –
-
भायाजी ..........................।
मनोज चारण “कुमार”
रतनगढ़
मोब. 9414582964