10 मई की तारीख इतिहास में अपना एक अलग ही मक़ाम रखती
है। दस मई का नाम आते ही मन-मस्तिष्क में झंझावात उठता है और नजरों के सामने दिखाई देने लगते हैं एक थके से बुजुर्ग बहादुरशाह, अपने बेटे को पीठ पर
बांधे एक नौजवान महिला रानी लक्ष्मीबाई,
अपने
राज्य को बचाने की नाकाम कोशिस करते नानासाहेब, एक दुबला-पतला अधेड़ उम्र का सेनानायक
तांत्या और अपनी पूर्ण नफासत और नजाकत के साथ बहादुरी से आम जनता के बीच खड़ी अवध की बेगम।
ये तो नजर आने वाले वो प्रमुख चेहरे हैं जो सब लोग जानते हैं लेकिन इन चेहरों के
पीछे खड़े लाखों-लाख चेहरों की कोई पहचान नहीं बन पाई आज तक। कोई भारतीय इतिहासकार
इन लोगों को उनकी पहचान नहीं दिला सका है। क्यों नहीं मिली इन्हे पहचान?
किसका दोष है ये? क्या वाकई में ये लोग थे? या नहीं?
बहुत से सवाल उठते हैं जिनका जबाब ढूंढा जाना
बहुत जरूरी है। भारतीय इतिहासकारों की संकीर्ण
सोच ने इतिहास का कबाड़ा कर के रख दिया है। भारत से सुदूर पश्चिम में बैठा मार्क्स
जब सन् सत्तावन की क्रांति का उल्लेख करता है तो स्पष्ट लिखता है कि ये एक जन-आंदोलन था। क्या
मार्क्स पागल था जो ये लिख बैठा? नहीं, मार्क्स पागल नहीं था बल्कि पागल तो हमारे लोग है, जो हमारे पूर्वजों
की महानता पर संदेह करतें हैं।
सन् सत्तावन
के आंदोलन को
अंग्रेज़ और उनके पिछलग्गू इतिहासकारों ने सिर्फ
एक सैनिक विद्रोह करार दिया है जो कि उनकी घृणित सोच का प्रतीक है। तात्कालिक घटनाक्रम पर यदि
सम्यक दृष्टि डाली जाये और आज तक जिन दस्तावेजों का उपयोग नहीं हुआ, उनका उपयोग कर पुनः इतिहास लेखन किया जाये तो जो तस्वीर सामने आएगी वो
बहुत ही अलग होगी। सभी जानते हैं कि,
क्रांति
को इक्कतीस मई को प्रारम्भ
होना था, परंतु मंगल पांडे के विरोध और उनको दी गई फांसी ने माहौल को इतना गर्मा दिया
था कि दस मई को ये फोड़ा
मेरठ में फूट पड़ा। क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी। क्रांति को सिर्फ सैनिक
विद्रोह मानने वाले लोगों को ये नहीं पता कि इस विद्रोह के बारे में उस वक्त भारत
में मौजूद ब्रिटिश
अखबार “द टाइम्स” के पत्रकार “हावर्ड रसेल” ने अपनी डायरी और अपने लेखों में इस
आंदोलन को एक जन-आंदोलन माना है।
रसेल ने लिखा है,
“मैं कहता हूँ जबसे यह दुनिया बनी है,
किसी भी जगह, किसी भी साल, किसी भी नस्ल और कौम में इतनी ताक़त और
हिम्मत नहीं रही कि अंग्रेजों को इतनी कड़ी टक्कर दी हो,
जितनी यहां दी गई है। ऐसा लोहा कहीं नहीं बजा जैसा 1857 में भारत में बजा।”
भारत के शायद किसी भी लेखक ने रसेल की इन
बातों पर गौर नहीं किया है, यदि किया है तो पता नहीं क्यों उन्हे उल्लेखित नहीं किया है।
ये बात समझ से परे है कि जब दूसरी दुनिया के लोग हमारे इस आंदोलन को एक जन आंदोलन
मान रहे हैं, हमारे ही लोग इसे सिर्फ सैनिक और राजे-रजवाड़ों का विद्रोह मान
कर इसका मान कम कर रहे
हैं।
खुद डिज़रायली ने कहा और मार्क्स ने माना है
कि, “यहां विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने की राष्ट्रीय तत्परता दिखाई देती है।” सन् सत्तावन के आंदोलन ने पूरे भारत को
अपनी गिरफ्त में ले लिया था। कानपुर में भयंकर कत्ले-आम हुआ था,
आक्रोशित अंग्रेजों ने आम भारतियों को चींटियों की तरह मसल दिया था। लखनऊ के नबाब
के साथ सिर्फ उसके सिपाही ही नहीं लड़ रहे थे बल्कि आम जनता भी कुछ
इस प्रकार से लड़ रही थी कि इसे सिर्फ विद्रोह ही नहीं कहा जा सकता। वास्तव में ये
एक ऐसी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष था जिसके नुमाइंदे हमारे सिर पर यहां बैठे थे और
आका दूर लंदन में। पठान, अफगान,
मुगल आदि भी इस देश में आक्रमणकारी ही थे, परंतु वे यहीं बस गए थे,
इस देश को अपना बना लिया था, जबकि अंग्रेज़ आज भी इस देश के लिए
हजारों मील दूर के लुटेरे ही थे, जिनके प्रति इस देश में सिर्फ और सिर्फ विदेशी होने का ही भाव था।
रसेल ने लिखा है,
“हमारी गवर्नमेंट का प्रभाव भारत में
कितना खोखला है। यह लोगों में, उनकी संस्थाओं में कोई जड़ नहीं जमा
सकी....मैं समझता हूँ इसे सच्चे तौर पर
देशभक्तिपूर्ण युद्ध में लगना कहा जा सकता है।.......यह देशभक्तिपूर्ण
युद्ध ही था, जो अपने देश और उसके स्वामी के लिए लड़ा गया था।”
सन् सत्तावन
की क्रांति कोई एक दिन का परिणाम था,
या
फिर सिर्फ चर्बी वाले कारतूसों की ही देन थी कहना तो इस आंदोलन के साथ मज़ाक ही लगता है। लार्ड डलहौजी
की “डाक्ट्रिन
ऑफ लैप्स” की
नीति और इस नीति के आधार पर सतारा, जैतपुर, संभलपुर, बाघट, झांसी, नागपुर, डूंगरपुर आदि को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया, अवध को कूशासन के आरोप में हड़प लिया। मुगल सम्राट जो हिन्दुस्तान
के लिए गौरव और सम्मान का प्रतीक था के प्रति ब्रितानियों का व्यवहार बड़ा अपमानजनक
था, उनको नजराना देना और सम्मान देना बंद कर दिया गया था। मुद्रा
पर से सम्राट का नाम हटा दिया गया। मुगल सम्राट का पद समाप्त करने की घोषणा कर दी
गई थी, लाल किले के स्थान पर कुतुब में रहने और भविष्य में सम्राट
के बेटे को बादशाह के स्थान पर सिर शाहज़ादा ही कहा जाएगा की घोषणा ने आम जनता में भयानक विरोध
पैदा कर दिया था।
भारतीयों को सिविल प्रशासन में कोई स्थान
नहीं दिया जा रहा था और लार्ड कार्नवालिस तो इसके लिए किसी भी भारतीय को योग्य भी
नहीं मानता था। कानून और राज की भाषा फारसी के स्थान पर अंग्रेजी को बना दिया गया जिससे आम
भारतीय असंतुष्ट हो गया था। इसी बीच भूमि सुधार के नाम पर आम जमींदारों के पट्टे
रद्ध किए गए और जिनके पास पट्टे नहीं थे उनकी ज़मीनें जब्त कर ली गई। किसानों की
दशा सुधारने की बात पर स्थायी बंदोबस्त, महालवाड़ी और रैयतवाड़ी प्रथा लागू कर दी गई और हर बार किसान को अधिक लगान देना पड़ा
जिससे किसानों की स्थिति बद से बदतर होती गई और विरोध का वटवृक्ष
पनपने लगा। व्यापारियों
और कुटीर उद्योगों पर भी अंग्रेज़ नीति बहुत भारी पड़ रही थी और लघु व्यापारी वर्ग
नष्टप्राय हो गया था।
भारत में 1813 से पहले ईसाई पादरियों को आने
की आज्ञा नहीं दी जाती थी, परंतु 1813 में कंपनी के आदेश पत्र के द्वारा पादरियों को आने
की खुल्ली छूट मिल गई और उनका एकमात्र काम ईसाई धर्म का प्रचार था,
और उनके इस काम में शासक वर्ग ने भी सहयोग दिया, यहां तक कि जेलों तक में ईसाई धर्मोपदेश दिये जाने लगे तो हिन्दु और मुसलमान दोनों ही
शासन-तंत्र के खिलाफ हो गये।
इस प्रकार पूरा भारतीय जन-मानस अंग्रेज़ सरकार
और अंग्रेज़ कौम के विरुद्ध हो गया था और ऐसे में एनफ़िल्ड राइफल का भारत में प्रयोग
किये जाने का आदेश प्रसारित किया गया जिसके कारतूस को प्रयोग करने
से पहले उस पर लगी सील को दाँत से काटना पड़ता था और उस सील पर जो चिकनाई लगी होती
थी उसके बारे में ये प्रसारित हो गया था कि ये गाय और सूअर की चर्बी से बनी है।
गाय हिंदुओं और सूअर मुसलमानों के लिए धर्म से जुड़े हुए थे तो सैनिकों ने इसका
प्रयोग करने को मना कर दिया और फिर जो आग लगी उसके बारे में तो हमारे इतिहासकारों
ने पानी पी-पी कर के लिखा है।
भारत की जनचेतना में उपजे
इस आक्रोश को इतिहासकार अशोक मेहता ने “महान विद्रोह” नाम की पुस्तक में राष्ट्रीय विद्रोह
माना है। वीर सावरकर ने इसे “राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए युद्ध” माना है। डिज़रायली ने भी इसे राष्ट्रीय
विद्रोह ही करार दिया है। फिर भी हमारे बहुत से विद्वान इतिहासकार इसे पता नहीं
क्यों एक विद्रोह और सैनिक आक्रोश का नाम दे कर छोड़ देते हैं। शायद वे भूल जाते
हैं कि अमेरिका के स्वतन्त्रता का संग्राम भी कोई राष्ट्रव्यापी आंदोलन नहीं था,
ना ही फ़्रांस की महान क्रांति में भी पूरा देश शामिल था। कालांतर में हुए असहयोग आंदोलन,
सत्याग्रह, भारत छोड़ो आंदोलन और स्वतन्त्रता संग्राम में भी पूरे देश ने एक साथ आवाज उठाई हो ऐसा
नहीं है। राजस्थान में भी ये विद्रोह अपने पूर्ण चरम पर पहुंचा था। डूंगरपुर, कोटा, अलवर, शाहपुरा, भरतपुर, निम्बाहेड़ा,
कुशलपुरा, मेवाड़, देवली, भंवरगढ़, ये वो स्थान थे जहां पर विरोधी सैनिकों का आम जनता ने न सिर्फ स्वागत किया बल्कि रसद सामग्री भेंट कर उनकी सहयाता
भी की थी वहीं अंग्रेजों के लिए तो शाहपुरा शासक ने अपने किले के द्वार तक नहीं
खोले थे। रसेल ने लिखा है कि, “जब हम मानते हैं कि ये जन-क्रांति या
राष्ट्रीय विद्रोह नहीं था, महज ‘सिपाही गदर’
था तो तमाम सिपाहियों को ही कत्ल करना सही था।.............. लेकिन उनकी जगह हजारों किसानों, कारीगरों,
ओहदेदारों और सेवादारों का मय बच्चों के कत्ल कर
देना ...... सही कैसे है?”
आखिर सवाल यही उठता है कि,
हमारे इतिहासकार अभी तक लखनऊ, दिल्ली, अवध, कानपुर, शाहपुरा, कोटा, आगरा जैसे स्थानों पर पड़े दस्तावेजों
का प्रयोग क्यों नहीं करते और क्यों नहीं भारत की आजादी के इतिहास का पुनर्लेखन करते?
हमें यह सवीकार करने में कतई संकोच नहीं है कि सन सत्तावन का ये विप्लव वास्तव में एक जन-आंदोलन था।
मनोज
चारण (गाडण) “कुमार”
लिंक
रोड़,
वार्ड
न.-3,
रतनगढ़
(चूरु)
मो.
9414582964