क्रांति शब्द को सुनते ही ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने कानो में गरम-गरम अंगारे डालें हैं , जैसे शांत वातावरण में अचानक आंधी आ गई है, या जैसे किसी ने शांत मंदिर में तेज घंटा बजा दिया है और नाद से पूरा मंदिर गूँज उठा हो। वास्तव में क्रांति शब्द में बेहद आकर्षण है, जो खींचता है अपनी ओर लेकिन यह खिंचाव तो ठीक वैसा ही है जैसे मशाल पर पतंगे का, जैसे शमा पर परवाने का, जैसे बीन पर मणिधर का। देखने में और सुनने में तो क्रांति शब्द काफी रोचक तथा रोमांच भरा लगता है लेकिन वास्तव में यह काँटों भरी राह ही नहीं अपितु रक्त और दर्द भरी राह भी है। ऐसी राह को चुनना ना सिर्फ दिलेरी और बहादुरी का काम है वरन अपार जोखिम और पीड़ा का भी है।
वास्तव में क्रांति शब्द पर खिंचने वाले क्या यह जानते भी है कि, इसका वास्तविक अर्थ क्या है ? शब्दकोष में तो जाने क्रांति का क्या अर्थ लिखा होगा ? परन्तु हमारे हिसाब से जब कोई कार्य एक साथ प्रबलता के साथ किया जाये तो वह शायद क्रांति होती है। क्रांति को शाब्दिक अर्थ से दूर खोजने पर ऐसा लगता है कि, पुरातन परम्पराओं के विरुद्ध आवाज उठाने को, परम्पराओं के खिलाफ चलकर कदम उठाने को, परम्पराओं की वर्जनाओं को तोडना क्रांति कहलाता है। आप किसी भी प्राचीन परम्परा को, एक ढर्रे को, एक बंधी- बंधाई लीक को यदि बदलने की, तोड़ने की या उस लीक को छोटी करने का प्रयास करते है, तो यह क्रांति कहलाती है। क्योंकि, परम्परा के विरुद्ध सोचना, चलना और उसे चुनोती देना किसी साधारण मनुष्य के बस की बात नहीं होती है । किसी समय में यही काम आर्कमिडीज ने किया, अरस्तु और प्लेटो ने किया होगा, शायद यही काम ईशा और मोहम्मद ने भी किया होगा तभी तो किसी को क्रूस पर चढ़ना पड़ा और किसी को जहर का प्याला पीना पड़ा। क्या कवी गंग का मस्तक यूँ ही कट गया था ? क्या आजाद को सीने में खुद की ही गोलियां खाने का शौक चर्राया था या फिर वह कोई पतंगे और मशाल वाली कहानी थी। क्या भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु की फांसी हमे नहीं बताती कि वास्तव में क्रांति क्या है और उसका अंजाम भी ।
वास्तव में क्रांति की राह पर ही चले थे ये सभी, किसी ने परम्परा के विरुद्ध सोचने की कोशिस की तो किसी ने सामाजिक रुढियों को तोड़ने की, किसी ने धर्म की वर्जनाओ को तोडा तो किसी ने परिवार और खानदान की। किसी ने शासन को आँख दिखने का काम किया तो किसी ने बागी बनकर बन्दूक उठा ली। वास्तव में क्रांति का क्षेत्र छोटा नहीं होता है और जिस विस्तृत परिदृश्य पर यह लागु होता है उस पर कभी बहस नहीं होती ।
ठाकुर केसरीसिंह बारठ ऐसे ही एक क्रांतिकारी का नाम है, जिसे वास्तव में इतिहास में वह स्थान नहीं मिल पाया जो उसे मिलना था। बारठ कृष्णसिंह के घर पर ज्येष्ठ पुत्र के रूप में माँ बख्तावर बाईकी कोख से 21 नवम्बर, 1872 ई. विक्रम संवत 1929 को केसरीसिंह जी ने जन्म लिया और आपकी एक माह की बाल्यावस्था में ही आपकी माताश्री का निधन हो गया। ऐसे में केसरीसिंह जी का पालन पोषण उनकी दादी श्रृंगारीबाई ने किया था। आपकी दादी ने आपको बचपन में जो कहानियां सुनाई थी वे कोई चंदामामा या राजकुमारी की नहीं बल्कि प्रताप, सांगा, शिवाजी जैसे महापुरुषों की थी, जिन्होंने फाखे रखकर भी आजादी को बरक़रार रखा था। ऐसे प्रभावशाली बचपन का पौधा तो विशाल बरगद बनना ही था। हम केसरीसिंह जी के पारिवारिक जीवन पर अधिक विस्तार से चर्चा न करके उन्होंने जो कार्य किया उस पर अधिक चर्चा करें तो ज्यादा अच्छा रहेगा। महाराणा प्रताप का गौरव आज यदि धरती पर और भारतवर्ष के जनमानस पर अमिट है तो उसका कारण थे कवी पृथ्वीराज राठोड़ जिन्होंने बेहद खरी-खरी बातें कह कर राणा के सोये स्वाभिमान को जगाया था, वरना तो राणा ने तो जलाले अकबरी के सामने समर्पण का मन बना ही लिया था, पत्र लिख दिया था। एक क्षण के लिए सोचिए कि, यदि महाराणा प्रताप भी अकबर के दरबार में मानसिंह के साथ खड़े जुहार करते तो क्या राणा की वो छवि बन पाती जो आज है ?
कालांतर में वही और उससे भी बढ़कर काम किया था क्रांतिवीर श्री केसरीसिंह बारठ ने। वही मेवाड़, वही महाराणा, वही केन्द्रीय सत्ता, वही केन्द्रीय दरबार बदला कुछ नहीं था, बस बदले थे कुछ नाम और चेहरे। प्रताप की जगह फतेहसिंह हो गया, अकबर की जगह लार्ड कर्जन, आगरा की जगह दिल्ली और पृथ्वीराज राठोड़ के स्थान पर थे केसरीसिंह बारठ। बारठजी ने महाराणा मेवाड़ को संबोधित करते हुए तेरह सोरठे लिखे जो कि, इतिहास में ''चेतावणी रा चूंटीया'' लिखे थे। (यहाँ पर एक बात पर थोडा सा मतिभ्रम हो जाता है कि, वे सोरठे
''चेतावनी रा चुंगटया'' थे या ''चेतावणी रा चुंटीया''। वास्तव में यह कोई मतिभ्रम का प्रश्न नहीं है, बल्कि भाषा का है। शाहपुरा पड़ता है भीलवाड़ा जिले में यानि कि मेवाड़ व हाडोती के अंचल में जहाँ की भाषा मारवाड़, थली व शेखावाटी अंचल से पूर्णतः भिन्न है। ऐसे में जहां मारवाड़, थली व शेखावाटी में जो अर्थ चूंटीया का है वही अर्थ मेवाड़ अंचल की भाषा में चुंगटया का भी है। ऐसे में किसी भी प्रकार का वितंडावाद करना केवल दिमागी खर्च है वास्तविकता नहीं।) वास्तव में तो ये सोरठे महाराणा के मन को कचोटने के लिए, उन्हें वास्तविक स्थिति का भान कराने के लिए ही लिखे गए थे ।
महाराणा को जब ये सोरठे मिले तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और वे दिल्ली जाकर भी कर्जन के दरबार में उपस्थित नहीं हुए और हिंदवाणी सूरज की लाज बच गयी। जो लाज कभी पृथ्वीराज की हुंकार ने बचाई थी वही हुंकार केसरीसिंह बारठ ने भी भरी थी। मेवाड़ को इस बात पर गर्व है कि वहां पर संग्रामसिंह, महाराणा प्रताप, राजसिंह जैसे शासक हुए है, जिन्होंने रजपूती गर्व और गुमान को एक नई परवाज़ दी थी, परन्तु मेवाड़ को यह भी गर्व होना चाहिए कि, उनके पास महाराणाओं के शुभचिंतकों में पृथ्वीराज और केसरीसिंह बारठ जैसे लोग हुए जो उनका मरना पसंद करते थे बजाय उनके झुकने के।
यही नहीं बल्कि केसरीसिंह बारठ ने क्रांति की राह में अपने सहोदर भाई ठाकुर जोरावरसिंह बारठ, पुत्र प्रतापसिंह बारठ तथा अपने दामाद ईश्वरदान आशिया को भी झौंक दिया था। इतिहास में दो परिवार ही ऐसे हुए है, जिनका पूरा परिवार क्रांति की राह में ख़त्म हो गया। एक तो था सिखों के गुरु दशमेश गुरु गोविन्दसिंह जी का जिनके पिता, पुत्र और स्वयं भी क्रांति की राह में वीरगति को प्राप्त हो गए, दूसरा परिवार था केसरीसिंह बारठ का, जिन्होंने अपने भाई, पुत्र, दामाद सभी को क्रांति की ज्वाला में हॊम दिया।
केसरीसिंह बारठ ने राजस्थान में शिक्षा के प्रचार-प्रसार व तात्कालिक क्रांतिकारियों की हथियारों व पैसों की मदद के लिए जोधपुर के एक मठ के महंत, साधू प्यारेराम को धन देने के लिए कहा । साधू प्यारेराम कहने को तो भगवा वस्त्र पहनने वाला साधू था, परन्तु वास्तव में वह एक साधू नहीं स्वादू था, जो कि व्याभिचार में लिप्त रहता था। बारठजी ने उससे येन-केन-प्रकारेण धन लेने की योजना बनाई और अपने शिष्यों शान्तभानु लहरी, हीरालाल व भाई जोरावरसिंह को भेजा, वहाँ पर उन्होंने बहुत प्रयास किया परन्तु साधू प्यारेरम की तिजोरी की चाबियाँ उनके हाथ नहीं लगी क्योंकि साधू प्यारेराम स्वयं अहमदाबाद गया हुआ था । ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार उनको बारठजी ने आदेश दिया कि साधू को कोटा ले आये। कोटा में बारठजी ने साधू को समझाया कि, आपके पास अपार धन है उसमे से कुछ हमे दे दीजिये ताकि क्रांति की राह पर चलने वाले परवानों की मदद की जा सके, परन्तु वह साधू टस-से-मस नहीं हुआ व किसी भी प्रकार धन देने के लिए तैयार नहीं हुआ। ऐसे में उसे क्रांति की राह में जहर देकर परलोक भेज दिया गया, जिसकी हत्या के षड्यंत्र में शांतभानु लहरी व हीरालाल को कालेपानी की सजा हुई तथा केसरीसिंह जी को बीस वर्ष की उम्रकैद कर हजारीबाग जेल भेज दिया गया। हालाँकि कोटा महाराव उम्मेदसिंह ने तो अंग्रेज सरकार से यह निवेदन तक कर दिया था कि, केसरीसिंह बारठ को भी अंडमान मे कालापानी भेज दिया जाना चाहिए, परन्तु अंग्रेज सरकार ने अपने ही नियमों के विरुद्ध जाने से मना करते हुए 42 वर्षीय बारठजी को कालेपानी की सजा पर नहीं भेजा। इससे सिद्ध होता है कि, क्रांति की राह और देशप्रेम के लिए हत्या जैसे जघन्य पाप को करने से भी क्रन्तिकारी नहीं डरते थे, और इतिहास में अनेकों बार यह सिद्ध हुआ है कि, राष्ट्रप्रेम और आजादी से बढ़कर कुछ नहीं होता और यही किया था केसरीसिंह बारठ ने।
इतिहासकारों ने केसरीसिंह जी बारठ पर जितना लिखा जाना चाहिए था उसका शतांस भी नहीं लिखा, जिसके अभाव में यह क्रांतिवीर इतिहास के पन्नों में दब कर ही रह गया। केसरीसिंह बारठ को कैद से छुडवाने के लिए कांग्रेस के अधिवेशन में स्वयं लोकमान्य तिलक ने यह प्रस्ताव रखा था कि कांग्रेस अंग्रेज सरकार पर दबाव बनाये कि वह केसरीसिंह बारठ को जल्द रिहा करे। इससे इस क्रांतिवीर की आजादी की लड़ाई में हैसियत का अंदाजा हो जाता है कि वह क्या चीज थे। स्वयं महात्मा गाँधी केसरीसिंह बारठ के परम मित्र थे। आजादी की लड़ाई में केसरीसिंह बारठ का योगदान अतुलनीय है तथा उनकी सोच न सिर्फ तात्कालिक समय के लिए थी बल्कि भावी समय के लिए भी वे प्रासंगिक थे। इतिहासकारों ने राजस्थान के साथ हमेसा अन्याय ही किया है, जिसके कारण चाहे जो रहे हो, परन्तु मानगढ़ हत्याकांड तो जलियांवाला बाग़ हत्याकांड से बड़ा था, विभत्सथा। कुवंर प्रतापसिंह बारठ सिर्फ बाईस वर्ष की आयु में ही अंग्रेजी जुल्मों से शहीद हो गए थे और लगभग उसी आयु में ही भगतसिंह भी शहीद हुए थे। दिल्ली में धमाका ही तो भगतसिंह ने किया थाऔर उसी दिल्ली में उनसे भी काफी पहले धमाका तो जोरावरसिंह बारठ ने भी तो किया था। आमरण अनसन ही तो गाँधीजी ने किये थे और आहुवा के मैदान में राजस्थान के चारणों ने जो अनसन किया था और जो धरना दिया था क्या वो किसी से कम था ?
परन्तु सच यही है कि, न तो हमारे राजस्थान के इतिहासकारों ने इस तरफ ध्यान दिया और ना ही बाहर के ही इतिहासकारों की नजर इन बातों पर कभी गई। जलियांवाला बाग़ आज राष्ट्रीय स्मारक है,भगतसिंह आज राष्ट्रनायक है, गांधीजी आज राष्ट्रपिता है। और हमारा मानगढ़ ? हमारे प्रतापसिंह बारठ ? जोरावरसिंह बारठ ? केसरीसिंह बारठ ? आहुवा के आहूत वीर ? कहाँ पर है सब के सब और कहाँ पर है इतिहास में इनका नाम ?
हमे भगतसिंह, जलियांवाला बाग़ और गाँधीजी की महानता पर कोई शक नहीं है और ना ही कोई ऐतराज है, बल्कि हम तो ये मानते है कि यदि भगतसिंह नहीं होते तो राष्ट्र के युवा के खून में उबाल कौन लाने वाला था, सब तो अंग्रेजो की दुम बन बैठे थे। ऐसे में हम कह सकते है कि, इन सबने तो भारत को भारत बनाने की राह आसान की थी। परन्तु फिर भी इतिहास से और इतिहासकारों से यह शिकायत जरूर है कि, क्या उन्होंने निष्पक्ष होकर इतिहास लिखा है ?
सोचने का काम ना सिर्फ इतिहासकारों का है बल्कि राजस्थान, इसके निवासियों का और यहाँ के बौद्धिक जन का भी है कि,
क्या उन्होंने अपने राजस्थान और अपने वीरों का, अपने क्रांतिवीरों का सम्मान किया है ?
यदि नहीं तो क्यों
? प्रश्न बड़ा है पर जबाब --------------- ?
मनोज चारण 'कुमार'
मो. 9414582964