shabd-logo

राजस्थानी साहित्य के शिखर-पुरुष थे किशोर कल्पनाकान्त

4 अगस्त 2016

241 बार देखा गया 241
featured image

किसी भी भाषा का सौभाग्य होता है जब उसमे लिखने वाला उस भाषा को जीने लग जाता है। हिन्दी का सौभाग्य था कि भारेंतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद हिन्दी को जीते थे। अंग्रेजी का सौभाग्य था कि शेक्सपियर ने उसको जीना शुरू कर दिया था। उसी तरह राजस्थानी का भी सौभाग्य ये था कि उसे जीने वाला एक विलक्षण व्यक्तित्व अंचल में छोटी काशी नाम से विख्यात कस्बे रतनगढ़ में जन्मा था। अध्यात्म, कला और संस्कृति के जन-संकुल केंद्र रतनगढ़ में एक वेदपाठी ब्राह्मण और मनमौजी कलाकार पंडित चिरंजीलाल मिश्र के घर पर चार अगस्त उन्नीस सौ तीस में एक बालक जन्म लेता है जिसका नाम रखा जाता है नन्दकिशोर। किशोर अवस्था को प्राप्त करते-करते यह नाम भी केवल किशोर ही रह गया और कालांतर में यही किशोर राजस्थानी भाषाकाश में किशोर कल्पनाकान्त नाम का उज्ज्वल नक्षत्र के रूप में अपनी चमक बिखेरने लगा। पिता चिरंजीलाल संगीत, चित्रकला के कुशल एवं दक्ष कलाकार थे किन्तु लोकप्रसिद्धि से दूर रहते थे, परंतु कलाकार पिता के पास अंचल के श्रेष्ठ कलाकारों और साहित्यकारों का आना जाना लगा रहता था और युवा होते बालक में यहीं से साहित्य और कला का बीज एक वटवृक्ष के रूप में पनपने लगा था। पिता से चित्रकारी के गुर सीखे तो कत्थक की शिक्षा सोहनलाल कत्थक ने देनी शुरू की। पिता के घर पर कक्का और ककहरा याद करने के बाद आपने राजस्थान ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम रतनगढ़ में दाखिला लिया लेकिन स्कूली शिक्षा के दौरान ही एक अध्यापक की अत्यधिक पिटाई करने और छै माह घर पर खाट पर बिताने ने स्कूली शिक्षा का अंत कर दिया था, इस प्रकार अकादमिक शिक्षा ने अल्पवय में ही दम तोड़ दिया। पिता के पास आने वाली पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन बालक किशोर किया करता था, पिता को भजन लिखते देख स्वयं भी तुकबंदियाँ करने लगा था और यहीं से एक भावी कवि का जन्म होता है।

    बाल्यकाल में समाप्त हुई शिक्षा ने बाल किशोर की जिज्ञासा को और अधिक उग्र कर दिया जिसके फलस्वरूप उन्होने विभिन्न भाषाओं का अध्ययन करना शुरू कर दिया और स्वाधाय ने उन्हें अनेक भाषाओं का ज्ञाता बना दिया था। किशोर कल्पनाकान्त ने चित्रकारी, पतंग बनाने, कपड़े सिलने आदि के कार्य में महारथ हासिल की, साहित्य और घरेलू संघर्षों के बीच आपका काव्य पुरुष निरंतर प्रगति की और बढ़ रहा था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की तरह ही आपने भी निजी जीवन में अनेक संघर्ष किए थे। छोटी सी आयु में माता-पिता का देहांत होना भी कवि के लिए संघर्ष का एक बड़ा कारण था जिसमे अर्थाभाव भी एक कारण था, लेकिन राजस्थानी का ये कबीर अपनी फकीरी में ही मस्त रहता था।

    उन्नीस सौ चौवालीस में हस्तलिखित पत्रिका पतंग के माध्यम से आपने साहित्य जगत में प्रवेश किया था और बाद में जाग्रत और निर्याम नाम की दो हस्तलिखित पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया था। निर्याम को आपने उन्नीस सौ बावन में साप्ताहिक के रूप में भी प्रकाशित करवाना शुरू किया था जो कि चूरु जिले का प्रथम समाचार -पत्र होने का श्रेय रखता है। उन्नीस सौ चौवन में आपने मों का प्रकाशन प्रारम्भ किया जो राजस्थानी में अपने नवबोध के कारण एक क्रांतिकारी कदम था। मों का प्रकाशन राजस्थानी भाषा आंदोलन में एक युगांतकारी कदम था। मों का प्रकाशन आपके लिए एक निर्दोष प्रार्थना के समान रहा था जिसके लिए आपने अपनी पत्नी के गहने तक गिरवी रखने पड़े थे।

किशोर कल्पनाकान्त को उनकी कृति कूख पड्ये री पीड़ के लिए राष्ट्रपति पुरूस्कार भी मिला था। आपने राजस्थानी भाषा में हर विधा में लेख न किया था और वो प्रसाद की तरह अपने समय के वैतालिक थे

    हेलो, मानखो हेला मारै, देखै जिसी चितारे, कूख पड्ये री पीड़, भूत-प्रभूत री बाताँ, गीतां रो बावळीयो, सोक्याँ माय एक-लो बो-ई, का धिराणी-घरां धिराणी, उजास आंगणे प्रीत, मरवतार बजा, कूंपअर फूल, निवण-निवण शिव उनकी काव्य कृतियाँ है। किशोर गीता में आपने गीता का अनुवाद किया है जो कि गीतों के रूप में है। कुण कि है बो में उन्होने केनोपनिषद का अनुवाद किया है। रुत संहार में आपने कालीदास के ऋतुसंहार का अनुवाद किया है। गद्य में नस्टनीड़, शेक्सपियर री बाताँ, लोढ़ी-मोडी-मथरी, विश्वनाथ री बाताँ अर बनड़ा रो सौदागर नामक पुस्तकें लिखी। विभिन्न पुरुस्कारों से सम्मानित और राष्ट्रपति पुरूस्कार से सम्मानित कवि किशोर कल्पनाकान्त ने अपनी लेखनी से राजस्थानी भाषा को समृद्धि प्रदान की थी।

    छै फरवरी सन दो हजार दो में आपके नश्वर शरीर ने ये दुनियाँ छोड़ दी और आत्मा पंचतत्व में विलीन हो गई। काव्य शरीर रूप में किशोर कल्पनाकान्त आज भी हमारे बीच मौजूद है।

 

मनोज चारण (गाडण) कुमार

लिंक रोड़, वार्ड न.-3, रतनगढ़ (चूरु)

मो. 9414582964

मनोज चारण 'कुमार' की अन्य किताबें

1

जीवंत संस्कृति का नाम है गंगा

30 जून 2016
0
0
0

गंगा,नाम लेते ही आँखों के आगे भगवान शिव के मस्तक से बहती,मकरवाहिनी, मंद मुस्कान के साथ धरती की तरफ सन्यासी बने भागीरथ केपीछे-पीछे चलती एक शुभ्र और मन को शीतलता प्रदान करने वाली देवी का चित्र आ जाताहै। परंतु जब हम हरिद्वार में पहुँचते हैं तो सामने दिखती है एक विशाल जलराशि जोअपनी विशिष्ट गति के साथ बह

2

नपुंसक योद्धा

30 जून 2016
0
1
0

अल्लाऊदीन की सेना उफनती नदीकी तरह बढ़ती ही जा रही थी। नुसरतखान के नेतृत्व में सल्तनत की विशाल सेना ने गुजरात की और कूच किया था। दिल्ली की सेना जिस और मुंह कर लेती उधर जाने कोई जलजलाआ जाता था। उधर सिंध से उलूगखान केसाथ हजारों की संख्या में सैनिक रवाना हो चुके थे जो कि गुजरात के रास्ते में नुसरतखान की

3

प्रतिभा

6 जुलाई 2016
0
2
0

गुरूपदेशादध्येतुंशास्त्र जड़धियो∙प्यलम।काव्यं तु जायते जातु कस्यचित प्रतिभावतः॥ <!--[if !supportLists]-->-                                                                                                  -    आचार्य भामह अर्थात गुरु के उपदेशएवंशास्त्रों से जड़बुद्धि भी साधारण काव्य रच सकता है, किन्तुश

4

बरगद का पेड़

11 जुलाई 2016
0
3
0

      मैं उसे अक्सर देखा करता था। दिन में न जाने कितनी बार उसका वोमासूम चेहरा मेरी नजरों की राह गुजरता था। कभी वो घर की बाहरदरी में झाड़ू लगातेनजर आती तो कभी बाहर कचरा डालने जाया करती थी। जब वो हमारे पड़ौस में रहने आई थी, तब उसकीउम्र यही कोई बारह या तेरह की होगी। अंजाने माहौल में ढलते-ढलते उसे छ: माह

5

क्या वास्तव में जन-आंदोलन था सन् सत्तावन का विप्लव ?

14 जुलाई 2016
0
1
1

       10 मई की तारीख इतिहास में अपना एक अलग ही मक़ाम रखतीहै। दस मई का नाम आते ही मन-मस्तिष्क में झंझावात उठता है और नजरों के सामने दिखाई देने लगते हैं एक थके से बुजुर्ग बहादुरशाह, अपने बेटे को पीठ परबांधे एक नौजवान महिला रानी लक्ष्मीबाई,अपनेराज्य को बचाने की नाकाम कोशिस करते नानासाहेब, एक दुबला-पतला

6

कलाम को सलाम

15 जुलाई 2016
0
3
0

अद्भुत, अनन्य भक्त था,माँ भारती का लाल वो।रखता उज्जवल चेतना,भारतीय मेधा का भाल वो।थी गजब की जिजिविषा,क्या गजब थी चाल वो।छोङ पृथ्वी आज चला,नक्षत्र बङा विशाल वो।।थीह्रदय में एक लगन,बस एक लक्ष्य था अटल।भारत फिर से बने गुरू,पूजे सारा विश्व सकल।उसकी अग्नि की मार से,गूंज दिशाएं जाती थी,व्योम थर्राता आकाश

7

माखण

26 जुलाई 2016
0
1
0

माखण‘पेट की आगबहुत बुरी होती है साब, क्या नहीं करवा सकती ये।’ वह दार्शनिक के से अंदाज में बोला, <!--[if !supportLists]-->-      <!--[endif]-->तेरी उम्र कितनी है रे ? मैंने पूछा, <!--[if !supportLists]-->-      <!--[endif]-->बीस वर्ष। जबाब था उसका,<!--[if !supportLists]-->-      <!--[endif]-->और मेरी

8

कहानी संग्रह “पराई जमीन पर उगे पेड़” की समीक्षा

27 जुलाई 2016
0
4
0

      पिछलेदिनों में प्रतिलिपि वेबसाइट पर मैंने एक कहानी पढ़ी थी “पराई जमीन पर उगे पेड़”कहानी मुझे पसंद आई और मैंने कहानी की लेखिका को इस कहानी के बाबत टिप्पणी लिखी थी। लेखिकाने बताया कि उनका इसीनाम से एक कहानी संग्रह छप चुका है। मेरे द्वारा इस कहानी संग्रह के बारे में ये जिज्ञासाकी गई कि, मुझे ये कहा

9

ईमानदारी जिंदा है अभी तक

28 जुलाई 2016
0
5
3

ईमानदारी जिंदा है अभी तक आदरणीय राणोजी नमस्कार!      पिछले एक महीने से मैं लगातार सोच रहा था कि, आपकोकिस प्रकार से शुक्रिया अदा करूँ, लेकिन समझ नहीं पा रहाथा। इस भागती-दौड़ती स्वार्थी और मतलबी दुनियां में आपकी ईमानदारी और सरल स्वभाव मेरे लिए एक सुखद एहसास ही नहीं बल्किआर्थिक रूप से भी लाभकारी रहा है।

10

दीवारें

29 जुलाई 2016
0
2
0

अक्सर दीवारें दो लोगों के बीच में आ जायाकरती है। आखिर क्यों बनती है ये दीवारें ? कौन बनाता है इन्हें ? समझ में नहीं आता किसे दोष दूँ।     समाजको, परम्परा को, आज के वातावरण को या खुद इंसान को ? परम्पराएँ दोषी कैसे हो सकती है, क्योंकि परम्पराएँडालता कौन है ? समाज किससे बनता है और वातावरण बनाता कौन है

11

मेरा देश तरक्की कर रहा है

2 अगस्त 2016
0
0
0

आज लिखने को कुछ खास नहीं,मन अस्थिर है, उदास नहीं,क्या करूँकोई शक्ति मेरे पास नहीं,जो संभालसकूँ इस देश को,पर कुछ नहींकर पाता हूँ,और कुछ होनेकी भी आस नहीं।। मेरा देशतरक्की कर रह है,हम बाईसवीसदी मे जा रहे है,कल तक हमारेपास रिस्तों की भरमार थी,आज अकाल हैरिस्तों का,खो गए है,मुहल्ले के दादा-दादी, ताऊ-ताई,

12

सामली दादी

3 अगस्त 2016
0
2
2

झुर्रियों वाला वो कांतिहीनचेहरा मुझे आज तक याद है। झुकी हुई कमर, हाथ में बल खायी लकड़ी और सर पर सरकंडे सेबना खरिया लिए, बकरियों को हाँकते हुए जब ज्याना खेत जाती तोलगता मानो खुद गरीबी साकार हो धरती पर आ गयी है। एक काला मरियल सा बैल और टूटी हुईसी गाड़ी भी थी ज्याना के पास जिसे हांक कर पदमाराम खेत जया कर

13

राजस्थानी साहित्य के शिखर-पुरुष थे किशोर कल्पनाकान्त

4 अगस्त 2016
0
0
0

किसीभी भाषा का सौभाग्य होता है जब उसमे लिखने वाला उस भाषा को जीने लग जाता है।हिन्दी का सौभाग्य था कि भारेंतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद और जयशंकरप्रसाद हिन्दी को जीते थे। अंग्रेजी का सौभाग्य था कि शेक्सपियर ने उसको जीना शुरूकर दिया था। उसी तरह राजस्थानी का भी सौभाग्य ये था कि उसे जीने वाला एक विलक्षणव

14

राजस्थानी साहित्य के शिखर-पुरुष थे किशोर कल्पनाकान्त

9 अगस्त 2016
0
1
0

किसीभी भाषा का सौभाग्य होता है जब उसमे लिखने वाला उस भाषा को जीने लग जाता है।हिन्दी का सौभाग्य था कि भारेंतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद और जयशंकरप्रसाद हिन्दी को जीते थे। अंग्रेजी का सौभाग्य था कि शेक्सपियर ने उसको जीना शुरूकर दिया था। उसी तरह राजस्थानी का भी सौभाग्य ये था कि उसे जीने वाला एक विलक्षणव

15

कवित्व की शक्ति

9 अगस्त 2016
0
1
0

नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा। कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा॥                     -  अग्निपुराण             अर्थात इस लोक में मनुष्य होना बहुत ही दुर्लभहोता है, उसमें भी मनुष्यहोकर विद्या-अर्जन करना और भी दुर्लभ काम होता है, विद्यावान होकर कवि होना उससे भी दुर्लभ और कवि हो

16

क्या सांस्कृतिक पतन हो गया है युवाओं का ?

9 अगस्त 2016
0
2
0

आज के दौर में हरदूसरा व्यक्ति युवा वर्ग पर एक गंभीर आरोप बड़े छिछले तरीके से मढ़ देता है। युवापीढ़ी में संस्कार नहीं है,युवा पीढ़ी संस्कृति के पतन में अपना योगदान दे रही है, युवा पीढ़ी पश्चिम का अंधानुकरण कर रहीहै, युवा पीढ़ी ये कर रहीहै युवा पीढ़ी वो कर रही है। हर सामाजिक विचलन के लिए युवा पीढ़ी को दोषी ठह

17

क्रान्तिकारी केशरीसिंह बारठ

11 अगस्त 2016
0
1
0

   क्रांति शब्द को सुनते ही ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने कानो में गरम-गरम  अंगारे डालें हैं , जैसे शांत वातावरण में अचानक आंधी आ गई है, या जैसे किसी ने शांत मंदिर में तेज घंटा बजा दिया है और नाद से पूरा मंदिर गूँज उठा हो। वास्तव में क्रांति शब्द में बेहद   आकर्षण है, जो खींचता है अपनी  ओर लेकिन यह खि

18

कच्चे धागे की डोरी

19 अगस्त 2016
0
0
0

इतिहासों से जाना जिसको, परम्परा से माना है। सूत वाला कच्चा धागा, रिश्तों का ताना-बाना है। इस धागे ने बांध लिया था, वचन बलि बलशाली का। यही धागा चाबी बना था, नारायण की ताली का। यही बना था मरहम पट्टी, कटी तर्जनी कान्हा की। पांचाली का चीर बना यह, शान बना फिर कान्हा की। भरी सभा में लाज बचायी, बस इक

19

कहने को आजाद हैं हम

19 अगस्त 2016
0
1
0

हम आजाद हैं सिर्फ, सरकारों को कोसने में, रिश्वतखोरी फैलाने में, खाली जमीने हथियाने में, कुर्सियां कब्जाने में। हम आजाद हैं, बस कचरा फैलाने को, दूजों की गलतियां बताने को, मयखाने सजाने को, झूठ को बचाने को। हम आजाद हैं, बस बस्तियां जलाने को, झूठा हल्ला मचाने को, सांम्प्रदायिकता फैलाने को,

20

गरीबी पाप नहीं

22 अगस्त 2016
0
0
0

मेरे हिस्से की गरीबी झेल रहा हूं, जबसे पैदा हुआ बस मिट्टी से खेल रहा हूं। माना कि गरबी पाप नहीं है, यह कोई बहुत घिनोना श्राप नहीं है, पर इसको कैसे पून्य बता दूं, क्या बीत रही है गरीबी में मुझ पर, सबको सब कुछ कैसे बता दूं। बचपन में तरसा था हरदम, कॉपी, पेंसिल, बरते,

21

मौन

23 अगस्त 2016
0
0
0

मौन भले ही बेहतर होता, पर हर बार मौन नहीं चलता है, कुरूखेत आबाद हो जाता, दुर्योधन मौन से पलता है। सही समय पर मौन रह जाना, भले हमारी नीति हो, पर बने जब हथियार पाप का, मौन रहना बङी अनीति है। मौन मौन में द्रोपदी लुट गयी, भिष्म-द्रोण जब मौन रहे, मौन रहा जब यदुकुल सारा, कस के हाथों छले गये। म

22

नागदमण : कालीयै मर्दन

24 अगस्त 2016
0
1
0

जन्माष्टमी पर विशेष रूप से मेरे खंड-काव्य से कुछ घनाक्षरीनटखट नंदलाला खेलत है गैंद तीर, गैंद जाय मारी देखो जमुना के नीर में। तुमहि अब जाओ लाला, गैंद हमारी लाओ, मार दई कालीयै के दह वाले नीर में। कस लई कछनी तो कूद गए दह मांही, तरन लगे है कान्हा जमुना के नीर में। श्याम सलौने को जो देखा नागिन भय भई,

23

लुप्त हो चुके है भारत के मूल खेल

29 अगस्त 2016
0
0
0

आज 29 अगस्त है, हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का जन्मदिवस। आज के दिन को ज़ोर-शोर से हमारे देश में खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। खेल, जो जीवन का एक अभिन्न अंग है। खेल, जो हमारे खून में समाया हुआ है। हमारे तीज-त्योंहार से खेल जुड़े हुए हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है कि मेरे ननिहाल में गण

24

कश्मीर से सवाल

31 अगस्त 2016
0
1
0

तुम रजधानी में आये आकर माता को गाली दी। उस माँ को गाली दे डाली, जिसने तुमको थाली दी। भरी हुई थाली में तुमने छेद किया है बोली से। इससे बेहतर हत्या कर देते बंदूक की गोली से।सीमा पार के आतंकी सीने पे हमने झेले है। कौन बचाये सांपो से बांहो में जो फन फैले हैं। जिनकी बातें जहरीली, सांसो में गरल उफनता

25

स्वप्न वो जो हमें सोने न दे !

31 अगस्त 2016
0
1
1

अक्सर हम खुली आँखों से भी सपने देखने लगते हैं। आखिर क्यों कहते हैं कि सपने तो सिर्फ नींद में ही आते हैं। अक्सर व्यक्ति देखते-देखते अचानक कहीं ख्यालों में खो जाता है। दरअसल बात कुछ यूं है कि जब अचानक हम भविष्य के प्रश्न पर विचार करने लगते हैं तो वर्तमान में हमारे पास क

26

दोहरी छद्म-धर्मनिरपेक्षता की राजनीति क्यों ?

1 सितम्बर 2016
0
0
0

आज के अखबारों में एक छोटी लेकिन वास्तव में बहुत बड़ी खबर पढ़ी। खबर थी गोवा की। गोवा जो कि भारत के एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल के रूप में विख्यात है। कुछ कामों के लिए कुख्यात भी है, उन पर हम चर्चा नहीं करेंगे। आज चर्चा कुछ नई बात पर होनी चाहिए। जिस गोवा से मनोहर

27

सजा नहीं सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए

2 सितम्बर 2016
0
0
0

हमाम में सब नंगे हैं। कहावत बहुत पुरानी है, शायद इतनी कि उस वक्त जब ये बनी होगी तब तो हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज भी पैदा नहीं हुए होंगे। कहावतों की बातें तो होती रहेगी हमेशा लेकिन ये कहावत कुछ अलग ही है। क्रिकेट देखते हुए लोग अक्सर आपस में उलझ जाते हैं दो टीमों को लेकर, दोस्तों में मन-

28

समर्पण ! क्यों करें हम ?

7 सितम्बर 2016
0
0
0

अक्सर हमारा लोगों से मतभेद क्यों हो जाता है ? क्यों हम समय से समझौता नहीं कर सकते ? अपने आपको समयचक्र में समाहित क्यों नहीं कर लेते? आखिर हर जगह, हर वक्त और हर किसी व्यक्ति पर हम अपने फैसले थोंप तो नहीं सकते। तो फिर क्यों हम हर बार यही चाहते हैं कि सामने वाला

29

नजरिया अपना-अपना

9 सितम्बर 2016
0
0
0

जीवन के बारे में, जीवन शैली के बारे में, किसी का भी अपना एक अलग फलसफा हो सकता है, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हम हर किसी के दर्शन को अक्षरस ग्रहण कर लें। आखिर क्यों ? हमें भी सोचने, समझने, तर्क करने और अपने तर्कों को प्रकट करने कि शक्ति प्राप्त है। भगवान ने हमें यह सब इसलिए इनायत किया है कि हम हर उस

30

भारतीय धर्म और दर्शन की घोषयात्रा क शंखनाद थी शिकागो की धर्म-सभा

10 सितम्बर 2016
0
0
0

भारतीय धर्म और दर्शन की घोषयात्रा का शंखनाद थी शिकागो धर्म-सभा मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से विदेशी गुलामी से ग्रसित हुए भारतीय राष्ट्र-सूरज पर अंग्रेजी साम्राज्य का यूनियन जैक रूपी राहु ग्रहण लगा रहा था। भारतीय जन मानस में ये बात घर कर चुकी थी कि अंग्रेज़ हमसे शायद श्रेष्ठ हैं। एक तरफ जहां भार

31

हिन्दी

14 सितम्बर 2016
0
1
0

हिन्दी हिन्द में हुई पराई, लोग अपनाते अंग्रेजी। नित नये बदलते चोले, पूत हो गये रंगरेजी। तुलसी-सूर-मीरां की भाषा, क्रंदन करती दिखती है। कवि चंद के छंदो में भी, अब अग्रेजी बिकती है। मैथिल कोकिल नहीं कूकती, मौन साध कर बैठी है। सौतन बनी परायी भाषा, सिंहासन पर ऐंठी है। प

32

युद्ध का उन्माद बंद करो

20 सितम्बर 2016
0
2
0

पिछले तीन दिनों से सब जन एक ही भाषा बोल रहे हैं की पाकिस्तान को मुंह तोड़ जबाब देना चाहिए। मेरा भी ये ही कहना है।परन्तु ये जबाब किस भाषा में हो, कैसा हो ? ये समझ नहीं पा रहा हूँ। कुछ लोग जोश में चिल्ला रहे है कि आर-पार की लड़ाई हो जानी चाहिए, कुछ म्यांमार जैसे ऑपरेशन की बात कर रहे है। सब के सब रक्ष

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए