अक्सर दीवारें दो लोगों के बीच में आ जाया
करती है। आखिर क्यों बनती है ये दीवारें ? कौन बनाता है इन्हें ? समझ में नहीं आता किसे दोष दूँ।
समाज
को, परम्परा को, आज के वातावरण को या खुद इंसान को ? परम्पराएँ दोषी कैसे हो सकती है, क्योंकि परम्पराएँ
डालता कौन है ? समाज किससे बनता है और वातावरण बनाता कौन है ? आज से नहीं वर्षों और सदियों से ही नहीं अगर कहें तो वास्तव में मानव का
जन्म हुआ है तब से ही मनुष्य स्वयं ही तो यह सब बनाता आया है।
कभी
वातावरण का निर्माण तो कभी समाज का, कभी परम्परा का तो कभी मूल्यों का।
इन सबने मिलकर खड़ी की है ये दीवारें।
दीवार
आखिर है क्या ? इसे तो कोई भी फांद सकता है। क्या वह कुछ बोलकर कहेगी ? शायद नहीं ! क्योंकि दीवारें बोलती नहीं, पत्थर
बोला नहीं करते। लेकिन पत्थरों से बनने वाले गवाक्ष बोलते है, अक्सर बोला करते है। इन गवाक्षों से झांक कर ही तो अक्सर लोग परम्पराओं
की दुहाई दिया करते है। किन्तु, वे स्वयं नहीं जानते कि वो
इस गवाक्ष में छुप कर क्या एक नयी परम्परा को जन्म नहीं दे रहे है। आखिर कब तक यूं
ही परम्पराओं के नाम पर लोगों को मिलने से, जानने से और
पहचानने से रोका जाता रहेगा।
कहीं से, कभी तो शुरुआत करनी होगी। जब शुरुआत करनी ही है तो फिर हमसे ही क्यों नहीं ? हम ही क्यों न मिलें ये गवाक्ष पीछे छोड़ कर, दीवारें तोड़ कर। एक उन्मुक्त वातावरण में, के खुले आसमान तले, एक दीवार रहित धरा पर। क्यों नहीं सिलसिला हम ही शुरू करें..............दीवारों को तोड़ने का।