अक्सर हमारा लोगों से मतभेद क्यों हो जाता है ? क्यों हम समय से समझौता नहीं कर सकते ? अपने आपको समयचक्र में समाहित क्यों नहीं कर लेते? आखिर हर जगह, हर वक्त और हर किसी व्यक्ति पर हम अपने फैसले थोंप तो नहीं सकते। तो फिर क्यों हम हर बार यही चाहते हैं कि सामने वाला हमारे सामने घुटने टेक दे। अगले की परिस्थिति को समझने की समझ हम क्यों नहीं विकसित कर पाते हैं ? जाने कैसी विकत परिस्थिति से गुजर रहा है वो ? जाने किस समस्या में घिरा है वो ? पर नहीं, हम समझौता नहीं कर सकते ? अगले को झुकाने के लिए खुद नहीं झुक सकते। आखिर क्यों ?
शायद हमने झुकना सीखा ही नहीं। पर क्यों ? शायद अपने-आप का अहम बहुत ज्यादा बलवान है हमारे अंदर। पर क्यों है ये इतना बलशाली ? शायद हमने इस पर कभी अंकुश लगाने की कोशिश भी नहीं की है। पर किसलिए नहीं की हमने ऐसी कोशिश ? शायद इसकी जरूरत ही महसूस नहीं की कभी। फिर वही सवाल कि आखिर जरूरत क्यों नहीं हुई ?
मानव स्वभाव ही ऐसा है। झुकाना ही चाहेगा, झुकना नहीं। हर किसी को सिर्फ समर्पण चाहिए पर खुद नहीं कर सकता। यही फितरत है इंसान की, हमेशा यही चाहेगा कि सभी उसके अनुसार ही चले। एक नजरिये से नजर डालें तो यही जूनून तो व्यक्ति को भीड़ में सबसे अलग करता है। समर्पण कराने की शक्ति ही व्यक्ति को विशिष्टता प्रदान करती है।
तो आओ हम भी एक जूनून को अपनाएं और बहाएँ अपनी एक नई धारा.............।
- मनोज चारण ‘कुमार’