आज के अखबारों में एक छोटी लेकिन वास्तव में बहुत बड़ी खबर पढ़ी। खबर थी गोवा की। गोवा जो कि भारत के एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल के रूप में विख्यात है। कुछ कामों के लिए कुख्यात भी है, उन पर हम चर्चा नहीं करेंगे। आज चर्चा कुछ नई बात पर होनी चाहिए। जिस गोवा से मनोहर पर्रीकर जैसे ईमानदार नेता भाजपा में आते हैं उसी गोवा में जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पहुंचे तो उनको काले झंडे दिखाये गए, क्यों ? सवाल बड़ा है कि ये काले झंडे क्यों दिखाये गए ? लेकिन अगला सवाल इससे भी बड़ा है कि किसने दिखाये ?
जबाब हमे अखबारों से ही मिलता है कि गोवा की आरएसएस की प्रदेश शाखा के प्रमुख ने ये काले झंडे दिखाये थे। इस पर संघ ने कड़ा कदम उठाते हुए उन्हे उनके पद से हटा दिया। उन पर आरोप लगाया गया कि वो भाजपा की सरकार का ही विरोध कर रहे हैं।
अब असली सवाल ये उठता है कि यदि उन्होने किसी सरकार का विरोध किया है तो संघ को उनकी पीठ थपथपानी चाहिए थी न कि यूं पल्ला झाड़ते हुए दंडित करना चाहिए था। एक तरफ तो संघ खुद को राजनीति से दूर सिर्फ सांस्कृतिक संगठन बताता है और दूसरी तरफ भाजपा के माध्यम से राजनीति करना चाहता है।
क्या ये दोहरी मानसिकता नहीं है ? क्या संघ देश के हिन्दू लोगों के लिए सिर्फ संघ बना रह कर और दूसरे वोटरों के सामने अपना दूसरा चेहरा भाजपा का दिखा कर छद्म धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने की कोशिश नहीं कर रहा है ? क्यों नहीं संघ सीधे राजनीति में कूद जाता एक पार्टी के रूप में ? खुद को क्या संघ चाणक्य समझता है जो राजनीति को दूर से चलाये ? पर संघ को याद होना चाहिए कि जब राष्ट्र को जरूरत थी तो चाणक्य ने स्वयं राजनीति में भागीदारी निभाकर राष्ट्र का भविष्य बदला था। संघ से देश को उम्मीद है एक सांस्कृतिक बदलाव की जो निरपेक्ष भाव से सिर्फ राष्ट्र के बारे में ही सोचे, किसी सरकार या व्यक्ति विशेष के लिए नहीं।
इसलिए ये सवाल उठने चाहिए देश के नागरिकों के मन में और स्वयं संघ के कार्यकर्ताओ के मन में भी कि गोवा के उस प्रमुख को सिर्फ काले-झंडे दिखाने और सरकार विरोध के कारण क्यों हटाया गया ? क्या सरकारों का विरोध करना इस देश का विरोध करना हो गया है ? क्या हम आज भी अंग्रेजों के शासन में जी रहें हैं जहाँ काले झंडे दिखाने पर लालाजी की हत्या कर दी गई थी …………..?
- मनोज चारण “कुमार”