डायरी दिनांक ०७/०५/२०२२
शाम के पांच बजकर पचास मिनट हो रहे हैं ।
अंत हमेशा नवीन आरंभ की भूमिका तैयार करता है। किसी भी कार्य का अंत होते ही नवीन कार्य आरंभ होने लगता है।
आज कल्याण का मासिक अंक आया। पढा। आदरणीय संपूर्णानंद सरस्वती जी का एक लेख पढा। लेख का शीर्षक है - मूर्तिपूजा। वैसे कुछ साधक मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं। प्रसिद्ध संत और कवि कबीरदास जी ने भी लिखा था -
पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजूं पहार।
ताते तो चकिया भली, पीस भाइ संसार।।
संत संपूर्णानंद जी लिखते हैं कि जैसे कोई पत्र पढने बाला कभी भी पत्र के कागज और स्याही को नहीं पढता है। अपितु कागज पर स्याही से लिखे शव्दों को ही पढता है और उन शव्दों के भाव को मन में धारण करता है। उसी तरह कोई भी मूर्ति पूजक वास्तव में किसी भी मूर्ति की पूजा नहीं करता है। अपितु उस मूर्ति के माध्यम से अपने आराध्य देव की ही आराधना करता है।
यदि किसी के सोचने और समझने की शक्ति ही नष्ट हो चुकी हो, तो उसे समझा पाना लगभग असंभव कार्य है। ऐसी स्थिति में उसे पूरी तरह नजरंदाज करना ही उचित है। हालांकि किसी घनिष्ठ को नजरअंदाज करना भी कोई आसान कार्य नहीं है। फिर भी एक दिन ऐसा आता है कि मनुष्य को अपने विचार की दिशा बदलकर पुराने घनिष्ठ से दूरी बढानी ही होती है। उस स्थिति में तो निश्चित ही जबकि घनिष्ठता पुनः स्थापित होने का कोई मार्ग ही शेष न हो।
कभी ऊसर रही भूमि भी समयचक्र या उससे भी अधिक व्यवस्था के अभाव में बंजर भी हो सकती है। प्रयास से मानव ने असंभव को भी संभव किया है। पर विपरीत दिशा में किया गया प्रयास हमेशा विनाश को निमंत्रण देता है।
कभी कभी बिना बताये भी मनुष्य जान जाता है कि दूसरा व्यक्ति क्या कहना चाहता है। कुछ उस बात पर विमर्श करते हैं। कुछ उपेक्षा भी करते हैं। और कुछ पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर सही और गलत का विचार किये बिना ही सही को गलत और गलत को सही मानते हैं।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।