डायरी दिनांक ११/०५/२०२२
शाम के पांच बजकर तीस मिनट हो रहे हैं ।
एक साहित्यिक मंच ने मुझे एक साहित्यिक प्रतियोगिता के लिये निर्णायक बनाया जिसमें मेरे दिये विषय हार में जीत पर आठ कविताएं प्राप्त हुईं। आज उन्होंने मुझे किसी विधा का प्रशिक्षक बनने का अनुरोध किया। तो मैंने लघुकथा लिखने के तरीके की जानकारी दी। तथा एक उदाहरण भी दिया। यह सब तो अच्छी बात रही। पर एक अजीब सी बात हुई। जिसका मतलब मेरी समझ में नहीं आया।
हुआ ऐसा कि मैंने अपनी निर्णायक क्षमता का प्रयोग करते हुए तीन विजेता घोषित कर दिये तथा इसकी सूचना भी सार्वजनिक कर दी (सूचना सार्वजनिक करने से पूर्व मंच के संचालक को मैसेज भी की थीं।) फिर मंच के संचालक महोदय ने कहा कि पंद्रह से कम रचनाएं आयी हैं, इसलिये परिणाम घोषित नहीं करना है। अब मैंने तो परिणाम घोषित कर दिया। वह भी सुबह समय से। पता नहीं कि यह मिसअन्डरस्टेंडिंग किस तरह हुई। फिर भी मुझे लगता है कि मंच के संचालक को मेरे निर्णय का सम्मान रखना चाहिये। चलो, यह सब तो चलता रहता है।
सीरीज लेखन के लिये एक कहानी गीता लिख रहा हूँ। इस कहानी को भी कम कथानक और अधिक मनोविज्ञान पर केंद्रित करना चाहता हूं। कोशिश रहेगी कि मैं अपने उद्देश्य में सफल रहूं।
आज एक बड़ी दुखद सूचना प्राप्त हुई। हमारे एक संबंधी की किसी ने गोली मारकर हत्या कर दी है। हालांकि वह संबंधी मेरे बहुत ज्यादा करीबी नहीं हैं। तथा मेरा उनसे कभी भी कोई व्यवहार नहीं रहा है। फिर भी दुखद बात सुनकर दुख तो हुआ।
माना जाता है कि शिक्षित महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक होती हैं। वे गलत बात का अपेक्षाकृत अधिक विरोध भी कर लेती हैं। पर कभी कभी स्थिति बिलकुल उलट भी हो जाती है। उस महिला की करनी पर विश्वास करना भी कठिन हो जाता है। फिर प्रश्न यही उठता है कि ऐसे पढे लिखे और अनपढ में अंतर ही क्या रहा।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।