डायरी दिनांक २६/०५/२०२२
शाम के पांच बजकर पैंतालीस मिनट हो रहे हैं ।
आजकल लिखना कुछ और चाहता हूं और लिखने कुछ और लगता हूँ। खासकर डायरी के विषय में तो ऐसा ही हो रहा है। जिन बातों को लिखना चाहता हूँ, उन्हें लिख पाना आसान नहीं है। फिर किसी न किसी तरह अपनी डायरी पूरी करने के लिये कुछ भी लिख देता हूँ।
कुछ दिनों से एक काव्य पढ रहा था जो कि वास्तव में एक महान कवि का काव्य समझ मैंने खरीदा था। छंद और तुक बहुत अच्छे लगे। फिर भी कवि की जिस अलग धारणा को मैं ढूंढ रहा था, वह बहुत ज्यादा पकड़ में नहीं आयी। फिर भी कवि के लेखन की प्रशंसा करनी चाहिये।
उससे पूर्व बहन रिशा गुप्ता की किताब कसक को पढा जो कि तीन कहानियों का संग्रह है। तीनों कहानियाँ समाज के अलग अलग चित्रों का चित्रण करती हैं।
कभी जो वस्तुएं बहुतायत में मिला करती थीं, वे आजकल बहुत कम मिलती हैं। बाजारीकरण की व्यवस्था में बहुत सारी खाद्य वस्तुओं का अस्तित्व ही संकट में आ चुका है।
प्रतिस्पर्धा न केवल किसी वस्तु के विभिन्न ब्रांडों के मध्य होती है, अपितु उस वस्तु के दूसरे विकल्प से भी प्रतिस्पर्धा होती है। माना जाता है कि दूसरी तरह की प्रतिस्पर्धा प्रथम तरीके की प्रतिस्पर्धा से अधिक भयावह होती है। जिसमें कई बार तो एक वस्तु का अस्तित्व ही मिट जाता है।
उदाहरण के तौर पर ककड़ी और खीरा भले ही अलग अलग पदार्थ हैं, फिर भी दोनों एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी हैं। मेरे बचपन के समय पर ककड़ी बहुतायत से मिलती थी तो आज खीरा के सामने ककड़ी लगभग दुर्लभ सी हो गयी है।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।