डायरी दिनांक २५/०५/२०२२
शाम के छह बजकर तीस मिनट हो रहे हैं ।
बच्चों के आने से आज काफी चहल पहल है। दूसरा बच्चों के साथ बड़ों की भी मौज बन रही है। वैसे भी दादा और नाना के घर का प्रेम अलग भी अनुभूति देता है। यदि परिवार संयुक्त है, उस समय दादा - दादी का प्रेम नित्य का अंग बन जाता है। ननिहाल का स्नेह कुछ विशेष बन जाता है।
जब हम अपनी नानी के घर जाते थे तब नानी उपलब्ध संसाधनों से पूरी कोशिश करती थीं ताकि हम खुश रहें। नानी के यहां मक्खन लगी हाथ की रोटी बहुत अच्छी लगती थी। पास में एक दुकान थी। जिसपर दो तीन तरह के कंपट, चुर्री आदि मिलती थीं। पता नहीं क्यों पैसे के स्थान पर अनाज से सामान लेने का चलन था। फ्राक पहनने के कारण लड़कियां ज्यादा फायदे में रहती थीं। उनकी झोली में ज्यादा अनाज आ जाता था तो उन्हें ज्यादा कंपट मिलते थे। हम लड़कों की जेब में कितना अनाज आता था। तो हमें तो जो भी मिलता था, अहसान से ही मिलता था।
एक बार तीन मित्र परदेश में व्यापार करने गये। पहले मित्र ने लाभ से सब्जियां खरीदीं और उन्हें बैलगाड़ियों पर लादकर वह अपने शहर के लिये चल दिया। घर पहुंचते पहुंचते सारी सब्जियां खराब हो गयीं। बैलगाड़ियों का खर्च देना मुश्किल हो गया।
दूसरे मित्र ने लाभ से अनाज खरीदा। बहुत सा अनाज ठीक तरह से घर तक पहुंचा तो बहुत सा अनाज मौसम में खराब भी हो गया।
तीसरे मित्र ने लाभ से सोने के सिक्के खरीदे। उसका बैलगाड़ियों का खर्च भी बचा और कोई नुकसान भी नहीं हुआ।
मनुष्य के कर्म उसका भाग्य बनाते हैं। पर उस भाग्य का प्रयोग भी किस तरह होगा, यह कहा नहीं जा सकता है। अलग अलग सोच बाले लोगों पर उनके कर्मों का फल भी अलग अलग होता है।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।